चैप्टर 12 नारी सियारामशरण गुप्त का उपन्यास | Chapter 12 Nari Siyaramsharan Gupt Novel
Chapter 12 Nari Siyaramsharan Gupt Novel
Table of Contents
जमना सन्नाटे में आ गई कि मोतीलाल चौधरी चार सौ से अधिक रुपये उस पर निकाल रहे हैं। उसने कहा- इतने रुपये हो कैसे गये ? मैं तो हर साल बराबर चुकाती रही हूँ ।
अजीत ने पूछा- रसीद ले लेती थीं?
“हाँ।”
“किसी से पढ़ा लेती थीं?”
जमना चुप रह गई। किसी से रुपये की रसीद लेने का अर्थ है उसका अविश्वास करना । रसीद लेकर उसे औरों से पढ़वाते फिरना जना के लिए ऐसा काम है जैसा किसी को मार चुकने पर भी बराबर उसके ऊपर खाँड़ा चलाते रहना। परन्तु इस समय वह यह सब प्रकट भी नहीं कर सकी। इसी बात को लेकर एक बार उसे जो अपमान सहना पड़ा था, उसकी लज्जा उसके मर्म में आज तक व्याप्त थी। उस दिन वह मोतीलाल के यहाँ पहले पहल अपने हाथ से रुपये देने गई थी। रुपये की रसीद ज्यों ही उसे मिली, त्यों ही पास बैठे हुए एक आदमी ने पढ़ने के लिए उसे उसके हाथ से ले लिया। कदाचित् वह व्यक्ति दिखाना चाहता था कि मैं मूर्ख नहीं हूँ, पढ़ना मुझे आता है। देखकर मोतीलाल कहने लगा—“हाँ, अच्छी तरह पढ़वा लो मातौन, हमने झूठी रसीद तो नहीं लिख दी। कलजुग है न, महाजन बेईमान होते हैं ! जरूरत पड़ने पर आसामी को भूखों मरने से बचावें तो हम बचावें, परवरिस करें, तो हम करें, परन्तु नतीजा निकलता है-क्या निकलता है, – तुम चुप क्यों हो धन्नी ?” पास बैठे हुए उस आदमी ने उत्तर दिया- “यही कि महाजन और साहूकार परले सिरे के बेईमान है !” लज्जित होकर पहला आदमी जमना का कागज उसके हाथ में लौटाने लगा, परन्तु मोतीलाल ने जोर देकर उससे वह अच्छी तरह पढ़वा ही दिया। वह पढ़ चुका तब उपस्थित अन्य व्यक्तियों को भी बारी-बारी से उसे फिर पढ़ना पड़ा। बाहर सड़क पर कोई जा रहा था उसे बुलाकर उससे भी यह बेगार ली गई। आसामियों के अविश्वास को लेकर जब सभी अपना भिन्न-भिन्न मत छिपी और खुली हँसी के साथ प्रकट कर चुके तब मोतीलाल ने फिर कहा – ” अब भी मातौन को अविश्वास हो तो और भी चाहे जिससे पढ़वा लें। तुम सब भी तो बेईमानी कर सकते हो। जमाना आजकल विश्वास करने का नहीं है।” उस दिन जमना को किसी तरह वहाँ से भागना कठिन हो गया था। तब से आज यह पहली ही बार रसीद पढ़वाने की बात उसके सामने आई थी।
जमना को चुप देखकर अजीत ने कहा- रसीद कभी किसी से पढ़वाकर नहीं देखी तब उसका लेना न लेना बराबर है। औरतें ऐसी ही मूरख होती हैं। चालाक आदमी तभी तो उन्हें अपने फन्दे में फाँसकर उनका सत्यानाश कर डालते हैं। कोई मुझसे करे चालाकी ! मैं जेलखाने की हवा खिलाये बिना न मानूँ ।
जमना ने खीझकर कहा- चौधरी ने कब किसे झूठी रसीद लिख दी जो तुम उनके लिए ऐसा कह रहे हो ?
अजीत कृत्रिम विस्मय के साथ कहने लगा-ना-ना, ऐसा कहने से पाप लगेगा। चौधरी बड़े रिसी-मुनी जो हैं !
जमना संकटापन्न स्थिति में है। इधर और उधर के अविश्वास के बीच में उसके विश्वास का जो टापू है, वह बहुत छोटा है। उस पर वह खड़ी है, परन्तु ऐसा नहीं जान पड़ता कि वहाँ वह डेरा डालकर रुक भी सकेगी।
जमना का मौन अजीत के लिए असह्य हो उठा। उसे जान पड़ा कि इसने मेरा व्यंग न समझकर मोतीलाल को सचमुच ऋषि-मुनि का अवतार मान लिया है। बोला- तो अब बैठी क्यों हो? उठो, लोहे की सन्दूक खोलकर तोड़ा निकाल लाओ। मोतीलाल झूठ तो लिख नहीं सकते, उन्हें उनका पावना देना ही चाहिए ।
जमना ने कहा- क्या मेरे घर में लोहे की सन्दूक रक्खी हैं? जाकर तुम आप सब देख आओ जो कहीं कुछ हो ।
अजीत हँस पड़ा। सरस होकर उसने कहा- देखो, जमना, तुम सतजुग की रहने वाली हो, परन्तु समय तो सतजुग का नहीं है। कलजुग के लिए कलजुग की ही बनना पड़ता है।
जमना की आकृति कठोर हो गई। परन्तु इस पर ध्यान न देकर अजीत ने आगे कहा- तुम बहुत विसवास करोगी तो दुनियाँ तुम्हें ठग लेगी।
“मेरे पास ऐसी ही रोकड़ तो है जो कोई ठग लेगा। कुछ होता तो चौधरी को चार-पाँच सौ दे ही न देती ।”
“तब फिर चौधरी जितना निकाल रहे हैं वह तुम्हें उनका देना है? नहीं? – नहीं, कैसे, तुम अभी कह रही थीं, रुपये होते तो चार-पाँच सौ उन्हें दे न देती । यही तो चौधरी चाहते हैं। मैं समझ गया, तुम फँसोगी। मैं तुम्हें बचा नहीं सकता, कोई वकील – वालिस्टर भी कैसे बचा सकेगा? मैं जो कहने के लिए कहूँ, वही तुम कहो तो कुछ हो सकता है।”
“तुम जो कहोगे वह न करूँगी तो क्या करूँगी। चौधरी मुझे लूट लेना चाहते हैं, परन्तु ऊपर भगवान हैं।”
“ऊपर भगवान हैं तो, परन्तु चौधरी का इस समय वे कुछ कर नहीं सकेंगे? व्रम्मभोज और दान-पुन्न चौधरी क्या सेंत ही करते हैं? उनके खाते में यह सब भगवान के ही नाम लिखा है। सबके ऊपर ब्याज – त्याज फैलाकर चौधरी कहीं डिगरी करा लें तो भगवान को भी आफत पड़ जायगी। अच्छा जाने दो, हँसी तुम्हें नहीं रुचती । असल मुद्दा की बात यह है कि चौधरी के यहाँ का आदमी आये तो उससे साफ कह दो – हमें रुपये नहीं देने, जाकर नालिस करो। “
जमना ने दृढ़ता से कहा- नहीं, मैं ऐसा नहीं कहूँगी।
“तो फिर अभी क्यों कहती थीं, – तुम जो कहोगे कहूँगी।”
“नहीं मैं यह न कहूँगी” – जमना ने फिर कहा ।
“नहीं कहोगी, न कहो, देखो अपना काम । मुझे किसी की बात में पड़ने की क्या पड़ी है।” कहकर अजीत चुप हो गया।
“अच्छी बात है, तुम भी मुझे मँझधार में छोड़ दो। घर के आदमी ही साथ नहीं देते, तुम क्या करोगे?”
“मैं क्या करूँगा?” – अजीत बोला – ” मैं तो चौधरी को नाकों चने चबवा दूँ, तुम भी तो मेरी सुनो। मैं यह न कहूँगी, मैं वह न कहूँगी, इस तरह भी कहीं चलता है। मोतीलाल चाहते हैं कि तुम्हारा खेत और कुआँ हड़प जायँ । गाँव में वह ऐसी ही सिरे की जमीन है।”
“देखूँ कोई कैसे लेता है। मैं मर जाऊँगी परन्तु उसे छोडूंगी नहीं।”
“तुम न छोड़ोगी तो सरकारी प्यादा आकर छुड़ा जायगा। तुम अभी हमारी बात नहीं सुनती, परन्तु पीछे पछताओगी। अच्छा, मेरी एक बात का जवाब दो। तुम्हें चौधरी के इतने रुपये देने हैं?”
जमना ने सिर हिलाकर नाही कर दी।
“तो बस इतनी ही बात है, उनसे कह दो, हमें रुपये नहीं देने । नालिस कर दो।”
जमना ने कहा- मैं नया कागद लिख दूँगी।
“नया कागद लिख दोगी ! जानती हो, कागद लिख देने से क्या होता है ? इसका मतलब होगा, हल्ली के गले में सदा के लिए फाँसी डाल देना । हल्ली के गले की डोर रहेगी चौधरी के हाथ में वह बेचारा मार खा खाकर दूसरे के खेतों में चर आया करेगा और अपना दूध दुहायगा मोतीलाल के घर जाकर । बछड़े के भी दूध दुह लेने की विद्या महाजन को आती है ! चाहे जितना बड़ा पिरीत हो, मैं चुटकी बजाकर भगा सकता हूँ, चाहे जैसा काला कीड़ा हो, मेरे आगे किसी पर दाँत नहीं चला सकता; परन्तु जानते हो, – महाजन के काटे का इलाज मेरे हाथ में नहीं है।”
जमना घबरा उठी। आँखों में आँसू भरकर उसने कहा- मैं क्या करूँ, तुम बताते क्यों नहीं हो?
मैं कह तो रहा हूँ, कोई कागद-बागद न लिखना । उन्हें करना हो करें नालिस ।”
अजीत घेर घारकर जमना को इसी बात पर सहमत करना चाहता है । छूटी हुई गाय की तरह घेरी जाकर किसी भाँति कुछ दूर तक वह साथ चली भी आती है । परन्तु जहाँ थान के दरवाजे पर वह पहुँची नहीं, वहीं विचककर फिर भाग खड़ी होती है। वह कह उठी- मैं ऐसी बात न कहूँगी।
अजीत अपना करम ठोककर कहने लगा-वही बात कितने बार समझाई परन्तु तुम्हारी समझ में नहीं आती। कागद लिखकर तुम वृन्दावन भैया की जमीन भी न बचा सकोगी।
जमना बोली- मैं कागद-बागद लिखने में क्या समझूँ ?
“हाँ, यह समझदारी की बात है। चौधरी नालिस तो करें फिर हम सब देख लेंगे। अदालत में मैं ऐसे-ऐसे सवाल करूँगा कि अपने मरे बाप को रोयँगे। आजकल जो मुन्सिफ साब हैं वे बड़े भले आदमी हैं। किसान आदमी का बहुत ख्याल रखते हैं। इस मामले में लाट साब तक का डर उन्हें नहीं है। जब मैं तुम्हारा सब हाल सुनाऊँगा तब वे तुम्हारी पूजा न करने लगें तो कहना। उनके यहाँ पूजा, धरम- पुत्र सब कुछ होता है। क्रस्तान नहीं हैं। अँगरेज को छूकर नहाये बिना पानी नहीं छूते । मुझे बहुत मानते हैं। उस दिन अदालत में पूछने लगे- ‘अजीत, तुम मन्त्र-जन्त्र जानते हो?’ मैंने कहा – ‘हाँ हजूर, जानता हूँ।’ सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ । हाकिम हैं, सब तरफ की खबर न रक्खें तो काम कैसे चले। तुम बेफिकिर रहो, मैं सब ठीक कर लूँगा । मोतीलाल हमसे एक कौड़ी बाँध ले तो कहना।”
जमना उठ खड़ी हुई। अजीत ने भी उठकर कहा- अच्छी बात है, मैं फिर आकर बात करूँगा ।
क्रमश:
Prev | Next| All Chapters
प्रेमा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास
वैशाली की नगरवाधु आचार्य चतुर सेन शास्त्री का उपन्यास
अप्सरा सूर्य कांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास