चैप्टर 12 हृदयहारिणी किशोरी लाल गोस्वामी का उपन्यास | Chapter 12 Hridayaharini Kishorilal Goswami Ka Upanyas
Chapter 12 Hridayaharini Kishorilal Goswami Ka Upanyas
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बारहवां परिच्छेद : हास-बिलास
“हास्यं मनोहारि सखीजनानाम्”
एक दिन संध्या के समय एक सजे हुए कमरे में कुसुम- कुमारी और लवंगलता बैठी हुई आपस में इधर उधर की बातें करके अपना जी बहला रही थीं। उस समय वहां पर और कोई तीसरा न था, इसलिये उन दोनोंने अपने अपने हिये के किवाड़े खोल दिए थे और हास-परिहास का आनन्द हो रहा था।
कुसुमकुमारी ने लवंगलता को ठुढ्ढी पकड़कर कहा,-“क्यों, बीबी! तुम तो मुझे अभीसे इतना प्यार करने लग गई हो कि मानों हमारा-तुम्हारा जनम से साथ रहा हो!”
लवंगलता ने कुसुम के गले में बाहें डाल दी और मुस्कुराकर कहा,-“यह बात तुमने कैसे जानी, भाभी!”
इतना सुनकर कुसुम खिलखिलाकर हंस पड़ी और उसने अपने दाहिने हाथ की नन्हीं नन्हीं तीन अंगुलियों से लवंगलता के गाल को छूकर कहा,-” वाह, क्या कहना है! भला,मैं तुम्हारी भाभी कबसे हुई!”
लवंगलता,-“जबसे तुमने मेरे भैया के चित्त को चुराया! किन्तु बड़े आश्चर्य की बात है कि, उलटा चोर कोतवालै डांड़ै!”
कुसुम,-“वाह,भई! तुम तो खूब बोलना जानती हो, पर यह तो बतलाओ कि तुमने इतनी बात बनानी किससे सीखी है! क्या तुम उसका नाम बतलाओगी, जिसने तुम्हें इतनी चतुराई सिखाई है!”
लवंगलता,-“पर, भई! भाभी के कहने से तुम इतना चिढ़ती क्यों हो? मान लो कि अभी लोकाचार का होना या फेरे का पड़ना भर बाक़ी रहगया है, तो इससे क्या! जब कि चार दिन बीते वह बात होहीगी, तो फिर उसके लिये इतना घबराती क्यों हो!”
कुसुम,-“बहुत खासी! सवाल कुछ और जवाब कुछ और!!! तुम्हारे इस कहने से तो, बीबी! मुझे यही जान पड़ता है कि तुम मेरे सिर नहाकर अपने जी का उबाल उगल रही हो!”
लवंग०,-“तुम यह क्या कहने लगी!”
कुसुम,-“यही कि तुम्हारे लिये भी तो अभी उतनी ही देर है, जितनी कि तुम मेरे लिये बतला रही हो! किन्तु यदि तुम्हें चार दिन की भी समाई न हो तो मैं आज ही तुम्हारे फेरे पड़ने का प्रबन्ध करदूं!”
लवंग०,-“वाह! यह तो तुमने अपने जी का हाल खूब ही कहा! मैं आज ही भैया से कह-सुन-कर तुम्हारी घबराहट के दूर करने का उपाय करूंगी!”
कुसुम,-“और मैं भी बबुआ मदनमोहन से इस विषय में बातचीत करूंगी और उनसे कहूंगी कि,-‘बबुआ! आप एक कामिनी को इतना क्यों तरसा रहे हैं? क्यों तब तो ठीक होगा न?”
लवंग०,-“वाह, यह तो तुमने अच्छा बेसुरा तान गाया! भला; उनसे क्या प्रयोजन है!”
कुसुम,-“अक्ख़ाह! यह मैंने अब जाना कि बबुआ मदनमोहन के अलावे तुम किसी और से भी कुछ मतलब रखती हो!!!”
लवंग,०-” आइने में जैसा मुंह देखो, वैसा ही दिखलाई देता है!”
कुसुम,-“ठीक है, यह मैंने अब समझा कि मैं आइना भी हूं! तब तो तुमने अपनी सूरत जैसी की तैसी देखली!”
लवंग०,-“जाओ, भई! तुम तो ऐसी बातें करने लगती हो कि जिनका मेरे पास कुछ जवाब ही नहीं है!”
कुसुम,-“तो अपने उस्तादजी से सीखकर जवाब देना!”
लवंग०,-“वाह! मेरा उस्ताद कौन है?”
“उसे मैं अभी यहीं बुलवाए लेती हूं!” यों कहकर कुसुम ने घंटी बजाकर एक दासी को बुलाया और उसे हुक्म़ दिया कि,- “तू अभी जाकर बबुआ मदनमोहन को यहां बुला ला!”
इतना सुनते ही लवंगलता ने कुसुम के पैर थाम्ह लिए और गिड़गिड़ाकर कहा,-“भाभी! मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूं दयाकर तुम मुझे इतना न सताओ!”
लवंगलता की गिड़गिड़ाहट देख उसे कुसुम ने अपने गले लगा लिया और ठीक उसी समय कमरे में पैर रखते-रखते नरेन्द्र ने हंसकर कहा,-“वाह आज तो खूब घुट-घुट-कर बातें होरही हैं! तुझे किसने सताया है,लवंग!”
नरेन्द्र को आते देख कुसुमकुमारी और लवंगलता उठ खड़ी हुई और दासी, जो अभी तक वहीं खड़ी थी मुस्कुराती हुई तुरंत कमरे के बाहर चली गई; परन्तु मदनमोहन को उसने इसलिये नहीं बुलाया कि कुसुम ने इशारे से उसे मना कर दिया था।
निदान, कुसुम ने नरेन्द्र का हाथ थाम कर उन्हें गद्दी पर ला बैठाया और गद्दी से कुछ दूर पर लवंगलता का हाथ पकड़े हुई स्वयं भी बैठ गई।
उसने नरेन्द्र की ओर देख मुस्कुराकर कहा,-“अभी जो तुमने बीबीरानी से इनके सताए जाने का हाल पूछा था,उसके विषय में यदि कहो तो मैं कुछ सुनाऊं!”
कुसुम के इस ढंग को देख लवंगलता बहुत ही लज्जित हुई और उसने बहुतेरा चाहा कि,–’किसी तरह यहांसे भागे,’-पर कुसुम इतने ज़ोर से उसका हाथ पकड़े हुई थी कि वह किसी तरह भी अपने हाथ को न छुड़ा सकी।
नरेन्द्र ने कहा,-“हां,हां! कहो, इसे किसने क्या सताया है!”
कुसुम,-“तुमने सताया है!”
नरेन्द्र,-(आश्चर्य से) “क्या, मैंने!”
कुसुम,-“हां, हां! तुम्हींने!”
नरेन्द्र,-” कैसे!”
कुसुम,-“कहते हो कि कैसे! भला, तुम्हें इतना भी ज्ञान नहीं है, कि तुम इनके ब्याह में इतनी ढिलाई कर रहे हो? देखते नहीं कि बिचारी दिन पर दिन, मारे सोच फिकर के, फूल की तरह कम्हलाई जाती हैं! क्या तुम्हें इन पर ज़रा भी दया नहीं आती! क्या, इन्हें तुम सदा क्वारी ही रक्खोगे! देखो तो सही, बिचारी ब्याह के लिये कितना तड़प रही हैं !”
इतना सुनते ही लवंग बड़े झटके से अपना हाथ छुड़ाकर वहां से भागी!
नरेन्द्र ने कुसुम के परिहास पर हँस दिया और कहा,-“मुझे सबका खयाल है, किन्तु बात यह है कि पहिले तुम्हारा ब्याह करादूं, तब लवंग का करूं!”
कुसुम ने कहा,-” हां; हां! अच्छा तो है! मेरा ब्याह मदनमोहन से करा दो और तुम लवंगलता से कर लो!”
नरेन्द्र, “वाह! यह क्या कहने लगीं!”
कुसुम,-“और क्या! जब भरपूर जवाब मिला, तब कैसा चिहके! अभी तुमने क्या कहा था, ज़रा अपने कहने के ढंग पर बिचार तो करो! आज तुमने फिर कल की भांति ‘रुक्मिणी-परिहास’ की पोथी खोली!”
नरेन्द्र ने मुस्कुराकर कहा,-“क्यों, प्यारी! तुमने इतना क्रोध कभी और भी किसीपर किया था!”
इतना सुनकर कुसुम ने हंस दिया और कहा,-“किस पर करती! क्यों कि तुम सा अपराधी मेरे भाग्यों ने पाया ही कब था!!!”
नरेन्द्र,-“तो फिर इस (मुझ) अपराधी को कुछ दण्ड भी तो मिलना चाहिए।”
कुसुम,-“हां, अवश्य मिलना चाहिए और वह दण्ड यह है!”
इतना कहकर वह नरेन्द्र ले ज़रा दूर हट गई और बोली- “क्यों! उस अपराध के लिये क्या यह दण्ड ठीक नहीं है!”
नरेन्द्र ने उसे पास खैंचकर कहा,-“प्यारी संसार में इससे बढ़कर प्रणयी के लिये और कोई दूसरा दण्ड हई नहीं; इसलिये अब तो मैं दिन रात में ऐसे ऐसेलाखों अपराध किया करूंगा, जिसमें मुझे तुम बराबर ऐसाही दण्ड दिया करो!”
कुसुम ने कहा,-“अच्छा, एक बात पूछूं?”
नरेन्द्र,-“क्या?”
कुसुम,-“यही कि लवंगलता के व्याह में तुम इतनी ढिलाई क्यों कर रहे हो?”
नरेन्द्र,-“क्या तुम यह बतला सकती हो कि लवंग मदनमोहन को हदय से चाहती है?”
कुसुम,-“इसमें कुछ भी सन्देह न करना चाहिए, क्यों कि जहां तक मैंने परखा है, वहां तक यही बात साबित हुई है कि वे दोनों एक दूसरे को जी-जान से प्यार करते हैं।”
नरेन्द्र,-“ठीक है, मैं भी ऐसा ही समझता हूं और तुम्हारे कहने से तो अब इस विषय में कुछ संदेह रहा ही नहीं।”
कुसुम,-“तो फिर इस काम को झटपट निपटा डालो।”
नरेन्द्र,-“हां, मैं भी यही चाहता हूं, किन्तु एक अड़चन बीच में यह आपड़ी है कि जिसके कारण अभी कुछ दिन तक और भी लवंगलता के ब्याह को रोकना पड़ेगा। हां, इस बात को तुम निश्चय जानो कि इस झंझट से छुटकारा पाते ही मैं पहिले लवंगलता का ब्याह करके तब दूसरा काम करूंगा।”
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