चैप्टर 12 दो सखियाँ मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 12 Do Sakhiyan Munshi Premchand Ka Upanyas
Chapter 12 Do Sakhiyan Munshi Premchand Ka Upanyas
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काशी
10-2-26
प्रिय पद्मा,
कई दिन तक तुम्हारे पत्र की प्रतीक्षा करने के बाद आज यह खत लिख रही हूँ। मैं अब भी आशा कर रही हूँ कि विनोद बाबू घर आ गये होंगे। मगर अभी वह न आये हों और तुम रो-रोकर अपनी ऑंखे फोड़े डालती हो, तो मुझे जरा भी दु:ख न होगा! तुमने उनके साथ जो अन्याय किया है, उसका यही दण्ड है। मुझे तुमसे जरा भी सहानुभूति नहीं है। तुम गृहिणी होकर वह कुटिल क्रीड़ा करने चली थीं, जो प्रेम का सौदा करने वाली स्त्रियों को ही शोभा देती है। मैं तो जब खुश होती कि विनोद ने तुम्हारा गला घोंट दिया होता और भुवन के कुसंस्कारों को सदा के लिए शांत कर देते। तुम चाहे मुझसे रूठ ही क्यों न जाओ, पर मैं इतना ज़रूर कहूंगी कि तुम विनोद के योग्य नहीं हो। शायद तुमने अंग्रेज़ी किताबों मे पढ़ा होगा कि स्त्रियाँ छैले रसिकों पर ही जान देती हैं और यह पढ़कर तुम्हारा सिर फिर गया है। तुम्हें नित्य कोई सनसनी चाहिए, अन्यथा तुम्हारा जीवन शुष्क हो जायेगा। तुम भारत की पतिपरायणा रमणी नहीं, यूरोप की आमोदप्रिय युवती हो। मुझे तुम्हारे ऊपर दया आती है। तुमने अब तक रूप को ही आकर्षण का मूल समझ रखा है। रूप में आर्कषण है, मानती हूँ। लेकिन उस आकर्षण का नाम मोह है, वह स्थायी नहीं, केवल धोखे की टट्टी है। प्रेम का एक ही मूल मंत्र है, और वह है सेवा। यह मत समझो कि जो पुरुष तुम्हारे ऊपर भ्रमर की भांति मंडराया करता है, वह तुमसे प्रेम करता है। उसकी यह रूपासक्ति बहुत दिनों तक नहीं रहेगी। प्रेम का अंकुर रूप में है, पर उसको पल्लवित और पुष्पित करना सेवा ही का काम है। मुझे विश्वास नहीं आता कि विनोद को बाहर से थके-मांदे, पसीने मे तर देखकर तुमने कभी पंखा झला होगा। शायद टेबल-फैन लगाने की बात भी न सूझी होगी। सच कहना, मेरा अनुमान ठीक या नहीं? बतलाओ, तुमने कभी उनके पैरों में चंपी की है? कभी उनके सिर में तेल डाला है? तुम कहोगी, यह खिदमतगारों का काम है, लेडियाँ यह मरज नहीं पालतीं। तुमने उस आनंद का अनुभव ही नहीं किया। तुम विनोद को अपने अधिकार में रखना चाहती हो, मगर उसका साधन नहीं करतीं। विलासनी मनोरंजन कर सकती है, चिरसंगिनी नहीं बन सकती। पुरुष के गले से लिपटी हुई भी वह उससे कोसों दूर रहती है। मानती हूँ, रूपमोह मनुष्य का स्वभाव है, लेकिन रूप से हृदय की प्यास नहीं बुझती, आत्मा की तृप्ति नहीं होती। सेवाभाव रखने वाली रूप-विहीन स्त्री का पति किसी स्त्री के रूप-जाल में फंस जाए, तो बहुत जल्द निकल भागता है, सेवा का चस्का पाया हुआ मन केवल नखरों और चोचलों पर लट्टू नहीं होता। मगर मैं तो तुम्हें उपदेश करने बैठ गयी, हालांकि तुम मुझसे दो-चार महीने बड़ी होगी। क्षमा करो बहन, यह उपदेश नहीं है। ये बातें हम-तुम सभी जानते हैं, केवल कभी-कभी भूल जाते हैं। मैंने केवल तुम्हें याद दिला दिया हैं। उपदेश मे हृदय नहीं होता, लेकिन मेरा उपदेश मेरे मन की वह व्यथा है, जो तुम्हारी इस नयी विपत्ति से जागृत हुई है।
अच्छा, अब मेरी रामकहानी सुनो। इस एक महीने में यहां बड़ी-बड़ी घटनाएं हो गयीं। यह तो मैं पहले ही लिख चुकी हूँ कि आनंद बाबू और अम्माजी में कुछ मनमुटाव रहने लगा। वह आग भीतर-ही-भीतर सुलगती रहती थी। दिन में दो-एक बार मां – बेटे में चोंचें हो जाती थी। एक दिन मेरी छोटी ननदजी मेरे कमरे से एक पुस्तक उठा ले गयीं। उन्हें पढ़ने का रोग है। मैंने कमरे में किताब न देखी, तो उनसे पूछा। इस जरा-सी बात पर वह भले-मानस बिगड़ गयी और कहने लगी—”तुम तो मुझे चोरी लगाती हो।” अम्मा ने उन्हीं का पक्ष लिया और मुझे खूब सुनायी। संयोग की बात, अम्माजी मुझे कोसने ही दे रही थीं कि आनंद बाबू घर में आ गये। अम्माजी उन्हें देखते ही और ज़ोर से बकने लगीं। बहू की इतनी मजाल! वह तो तूने सिर पर चढ़ा रखा है और कोई बात नहीं। पुस्तक क्या उसके बाप की थी? लड़की लायी, तो उसने कौन गुनाह किया? जरा भी सब्र न हुआ, दौड़ी हुई उसके सिर पर जा पहुँची और उसके हाथों से किताब छीनने लगी।
बहन, मैं यह स्वीकार करती हूँ कि मुझे पुस्तक के लिए इतनी उतावली न करनी चाहिए थी। ननदजी पढ़ चुकने पर आप ही दे जातीं। न भी देतीं, तो उस एक पुस्तक के न पढ़ने से मेरा क्या बिगड़ा जाता था। मगर मेरी शामत कि उनके हाथों से किताब छीनने लगी थी। अगर इस बात पर आनंद बाबू मुझे डांट बताते, तो मुझे जरा भी दु:ख न होता, मगर उन्होंने उल्टे मेरा पक्ष लिया और त्योरियाँ चढ़ाकर बोले—”किसी की चीज़ कोई बिना पूछे लाये ही क्यों? यह तो मामूली शिष्टाचार है।”
इतना सुनना था कि अम्मा के सिर पर भूत-सा सवार हो गया। आनंद बाबू भी बीच-बीच मे फुलझड़ियाँ छोड़ते रहे और मैं अपने कमरे में बैठी रोती रही कि कहां-से-कहां मैंने किताब मांगी। न अम्माजी ही ने भोजन किया, न आनंद बाबू ने ही। और मेरा तो बार-बार यही जी चाहता था कि ज़हर खा लूं। रात को जब अम्माजी लेटी, तो मैंने अपने नियम के अनुसार उनके पांव पकड़ लिये। मैं पैंताने की ओर तो थी ही। अम्माजी ने जो पैर से मुझे ढकेला तो मैं चारपाई के नीचे गिर पड़ी। ज़मीन पर कई कटोरियाँ पड़ी हुई थीं। मैं उन कटोरियों पर गिरी, तो पीठ और कमर में बड़ी चोट आयी। मैं चिल्लाना न चाहती थी, मगर न जाने कैसे मेरे मुँह से चीख निकल गयी। आनंद बाबू अपने कमरे में आ गये थे, मेरी चीख सुनकर दौड़े पड़े और अम्माजी के द्वार पर आकर बोले—”क्या उसे मारे डालती हो अम्मा? अपराधी तो मैं हूँ; उसकी जान क्यों ले रही हो?”
यह कहते हुए वह कमरे में घुस गये और मेरा हाथ पकड़ कर जबरदस्ती खींच ले गये। मैंने बहुत चाहा कि अपना हाथ छुड़ा लूं, पर आनंद ने न छोड़ा! वास्तव में इस समय उनका हम लोगों के बीच में कूद पड़ना मुझे अच्छा नहीं लगता था। वह न आ जाते, तो मैंने रो-धोकर अम्माजी को मना लिया होता। मेरे गिर पड़ने से उनका क्रोध कुछ शांत हो चला था। आनंद का आ जाना गजब हो गया। अम्माजी कमरे के बाहर निकल आयीं और मुँह चिढ़ाकर बोली—”हां, देखो, मरहम-पट्टी कर दो, कहीं कुछ टूट-फूट न गया हो।”
आनंद 4 ऑंगन में रूककर कहा—”क्या तुम चाहती हो कि तुम किसी को मार डालो और मैं न बोलूं?”
“हां, मैं तो डायन हूँ, आदमियों को मार डालना ही तो मेरा काम है। ताज्जुब है कि मैंने तुम्हें क्यों न मार डाला।’l”
“तो पछतावा क्यों हो रहा है, धेले की संखिया में तो काम चलता है।”
“अगर तुम्हें इस तरह औरत को सिर चढ़ाकर रखना है, तो कहीं और ले जाकर रखो। इस घर में उसका निर्वाह अब न होगा।”
“मैं खुद इसी फ्रिक में हूँ, तुम्हारे कहने की ज़रूरत नहीं।”
“मैं भी समझ लूँगी कि मैंने लड़का ही नहीं जना।”
“मैं भी समझ लूंगा कि मेरी माता मर गयी।”
मैं आनंद का हाथ पकड़कर ज़ोर से खींच रही थी कि उन्हें वहां से हटा ले जाऊं, मगर वह बार-बार मेरा हाथ झटक देते थे। आखिर जब अम्माजी अपने कमरे में चली गयीं, तो वह अपने कमरे में आये और सिर थामकर बैठ गये।
मैंने कहा—”यह तुम्हें क्या सूझी?”
आनंद ने भूमि की ओर ताकते हुए कहा—”अम्मा ने आज नोटिस दे दिया।”
“तुम खुद ही उलझ पड़े, वह बेचारी तो कुछ बोली नहीं।”
“मैं ही उलझ पड़ा?”
“और क्या। मैंने तो तुमसे फरियाद न की थी।”
“पकड़ न लाता, तो अम्मा ने तुम्हें अधमरा कर दिया होता। तुम उनका क्रोध नहीं जानती।”
“यह तुम्हारा भ्रम है। उन्होंने मुझे मारा नहीं, अपना पैर छुड़ा रही थीं। मैं पट्टी पर बैठी थी, जरा-सा धक्का खाकर गिर पड़ीं। अम्मा मुझे उठाने ही जा रही थीं कि तुम पहुँच गये।”
“नानी के आगे ननिहाल का बखान न करो, मैं अम्मा को खूब जानता हूँ। मैं कल ही दूसरा घर ले लूंगा,, यह मेरा निश्चय है। कहीं-न-कहीं नौकरी मिल ही जायेगी। ये लोग समझते हैं कि मैं इनकी रोटियों पर पड़ा हुआ हूँ। इसी से यह मिज़ाज है।”
मैं जितना ही उनको समझती थी, उतना वह और बिफरते थे। आखिर मैंने झुंझलाकर कहा— “तो तुम अकेले जाकर दूसरे घर में रहो। मैं न जाऊंगी। मुझे यहीं पड़ी रहने दो।”
आनंद ने मेरी ओर कठोर नेत्रों से देखकर कहा—”यहीं लातें खाना अच्छा लगता है?”
“हाँ, मुझे यही अच्छा लगता है।”
“तो तुम खाओ, मैं नहीं खाना चाहता। यही फ़ायदा क्या थोड़ा है कि तुम्हारी दुर्दशा ऑंखों से न देखूंगा, न पीड़ा होगी।”
“अलग रहने लगोगे, तो दुनिया क्या कहेगी।”
“इसकी परवाह नहीं। दुनिया अंधी है।”
“लोग यही कहेंगे कि स्त्री ने यह माया फैलायी है।”
“इसकी भी परवाह नहीं, इस भय से अपना जीवन संकट में नहीं डालना चाहता।”
मैंने रोकर कहा—”तुम मुझे छोड़ दोगे, तुम्हें मेरी जरा भी मुहब्बत नहीं है।”
बहन, और किसी समय इस प्रेम-आग्रह से भरे हुए शब्दों ने न जाने क्या कर दिया होता। ऐसे ही आग्रहों पर रियासतें मिटती हैं, नाते टूटते हैं, रमणी के पास इससे बढ़कर दूसरा अस्त्र नहीं। मैंने आनंद के गले में बाहें डाल दी थीं और उनके कंधे पर सिर रखकर रो रही थी। मगर इस समय आनंद बाबू इतने कठोर हो गये थे कि यह आग्रह भी उन पर कुछ असर न कर सका। जिस माता ने जन्म दिया, उसके प्रति इतना रोष! हम अपनी माता की एक कड़ी बात नहीं सह सकते, इस आत्माभिमान का कोई ठिकाना है। यही वे आशाएं हैं, जिन पर माता ने अपने जीवन के सारे सुख-विलास अर्पण कर दिये थे, दिन का चैन और रात की नींद अपने ऊपर हराम कर ली थी। पुत्र पर माता का इतना भी अधिकार नहीं।
आनंद ने उसी अविचलित कठोरता से कहा—”अगर मुहब्बत का यही अर्थ है कि मैं इस घर में तुम्हारी दुर्गति कराऊं, तो मुझे वह मुहब्बत नहीं है।”
प्रात:काल वह उठकर बाहर जाते हुए मुझसे बोले—”मैं जाकर घर ठीक किये आता हूँ। तांगा भी लेता आऊंगा, तैयार रहना।”
मैंने दरवाज़ा रोककर कहा—”क्या अभी तक क्रोध शांत नहीं हुआ?”
“क्रोध की बात नहीं, केवल दूसरों के सिर से अपना बोझ हटा लेने की बात है।”
जेडयह अच्छा काम नहीं कर रहे हो। सोचो, माता जी को कितना दु:ख होगा। ससुरजी से भी तुमने कुछ पूछा ?”
“उनसे पूछने की कोई ज़रूरत नहीं। कर्ता-धर्ता जो कुछ हैं, वह अम्मा हैं। दादाजी मिट्टी के लोंदे हैं।”
“घर के स्वामी तो हैं!”
“तुम्हें चलना है या नहीं, साफ़ कहो।”
“मैं तो अभी न जाऊंगी5।”
“अच्छी बात है, लात खाओ।”
मैं कुछ नहीं बोली। आनंद ने एक क्षण के बाद फिर कहा—”तुम्हारे पास कुछ रुपये हों, तो मुझे दो।”
मेरे पास रुपये थे, मगर मैंने इंकार कर दिया। मैंने समझा, शायद इसी असमंजस में पड़कर वह रूक जाएं। मगर उन्होंने बात मन में ठान ली थी। खिन्न होकर बोले—”अच्छी बात है, तुम्हारे रुपयों के बगैर भी मेरा काम चल जाएगा। तुम्हें यह विशाल भवन, यह सुख-भोग, ये नौकर-चाकर, ये ठाट-बाट मुबारक हो। मेरे साथ क्यों भूखों मरोगी। वहां यह सुख कहां? मेरे प्रेम का मूल्य ही क्या?”
यह कहते हुए वह चले गये। बहन, क्या कहूं, उस समय अपनी बेबसी पर कितना दु:ख हो रहा था। बस, यही जी में आता था कि यमराज आकर मुझे उठा ले जायें। मुझे कल-कलंकिनी के कारण माता और पुत्र में यह वैमनस्य हो रहा था। जाकर अम्माजी के पैरों पर गिर पड़ी और रो-रोकर आनंद बाबू के चले जाने का समाचार कहा। मगर माताजी का हृदय जरा भी न पसीजा। मुझे आज मालूम हुआ कि माता भी इतनी वज्र-हृदया हो सकती है। फिर आनंद बाबू का हृदय क्यों न कठोर हो? अपनी माता ही के पुत्र तो हैं।
माताजी ने निर्दयता से कहा—”तुम उसके साथ क्यों न चली गयी? जब वह कहता था, तब चला जाना चाहिए था। कौन जाने, यहां मैं किसी दिन तुम्हें विष दे दूं।”
मैंने गिड़गिड़ाकर कहा—”अम्माजी, उन्हें बुला भेजिए, आपके पैरों पड़ती हूँ। नहीं तो कहीं चले जायेंगे।”
अम्मा उसी निर्दयता से बोली —”जाय चाहे रहे, वह मेरा कौन है। अब तो जो कुछ हो, तुम हो, मुझे कौन गिनता है। आज जरा-सी बात पर यह इतना झल्ला रहा है। और मेरी अम्माजी ने मुझे सैकड़ों ही बार पीटा होगा। मैं भी छोकरी न थी, तुम्हारी ही उम्र की थी, पर मजाल न थी कि तुम्हारे दादाजी से किसी के सामने बोल सकूं। कच्चा ही खा जातीं। मार खाकर रात-भर रोती रहती थी, पर इस तरह घर छोड़कर कोई न भागता था। आजकल के लौंडे ही प्रेम करना नहीं जानते, हम भी प्रेम करते थे, पर इस तरह नहीं कि मां – बाप, छोटे-बड़े किसी को कुछ न समझें।”
यह कहती हुई माताजी पूजा करने चली गयी। मैं अपने कमरे में आकर नसीबों को रोने लगी। यही शंका होती थी कि आनंद किसी तरफ की राह न लें। बार-बार जी मसोसता था कि रुपये क्यों न दे दिये। बेचारे इधर-उधर मारे-मारे फिरते होंगे। अभी हाथ-मुँह भी नहीं धोया, जलपान भी नहीं किया। वक्त पर जलपान न करेंगे, तो जुकाम हो जायेगा, और उन्हें जुकाम होता है, तो हरारत भी हो जाती है। महरी से कहा—”जरा जाकर देख तो बाबूजी कमरे में हैं?” उसने आकर कहा—”कमरे में तो कोई नहीं, खूंटी पर कपड़े भी नहीं है।”
मैंने पूछा—”क्या और भी कभी इस तरह अम्माजी से रूठे हैं?” महरी बोली—”कभी नहीं बहू। ऐसा सीधा तो मैंने लड़का ही नहीं देखा। मालकिन के सामने कभी सिर नहीं उठाते थे। आज न-जाने क्यों चले गए।”
मुझे आशा थी कि दोपहर को भोजन के समय वह आ जायेंगे। लेकिन दोपहर कौन कहे; शाम भी हो गयी और उनका पति नहीं। सारी रात जागती रही। द्वार की ओर कान लगे हुए थे। मगर रात भी उसी तरह गुजर गयी। बहन, इस प्रकार पूरे तीन बीत गये। उस वक्त तुम मुझे देखतीं, तो पहचान न सकतीं। रोते-रोते आँखें लाल हो गयी थीं। इन तीन दिनों में एक पल भी नहीं सोयी और भूख का तो ज़िक्र ही क्या, पानी तक न पिया। प्यास ही न लगती थी। मालूम होता था, देह में प्राण ही नहीं हैं। सारे घर में मातम-सा छाया हुआ था। अम्मा जी भोजन करने दोनों वक्त जाती थीं, पर मुँह जूठा करके चली आती थी। दोनों ननदों की हँसी और चुहल भी गायब हो गयी थी। छोटी ननदजी तो मुझसे अपना अपराध क्षमा कराने आयी।
चौथे दिन सबेरे रसोइये ने आकर मुझसे कहा—”बाबूजी तो अभी मुझे दशाश्वमेध घाट पर मिले थे। मैं उन्हें देखते ही लपककर उनके पास आ पहुँचा और बोला—भैया, घर क्यों नहीं चलते? सब लोग घबड़ाये हुए हैं। बहूजी ने तीन दिन से पानी तक पिया। उनका हाल बहुत बुरा है। यह सुनकर वह कुछ सोच में पड़ गये, फिर बोले—बहूजी ने क्यों दाना-पानी छोड़ रखा है? जाकर कह देना, जिस आराम के लिए उस घर को न छोड़ सकी, उससे क्या इतनी जल्द जी-भर गया।”
अम्माजी उसी समय आँगन में आ गयी। महाराज की बातों की भनक कानों में पड़ गयी, बोली—”क्या है अलगू, क्या आनंद मिला था ?”
महाराज—जेडहाँ, बड़ी बहू, अभी दशाश्वमेध घाट पर मिले थे। मैंने कहा—घर क्यों नहीं चलते, तो बोले—उस घर में मेरा कौन बैठा हुआ है?”
अम्मा—”कहा नहीं और कोई अपना नहीं है, तो स्त्री तो अपनी है, उसकी जान क्यों लेते हो?”
महाराज—”मैंने बहुत समझाया बड़ी बहू, पर वह टस-से-मस न हुए।”
अम्मा—”करता क्या है?”
महाराज—”यह तो मैंने नहीं पूछा, पर चेहरा बहुत उतरा हुआ था।”
अम्मा—”ज्यों-ज्यों तुम बूढ़े होते हो, शायद सठियाते जाते हो। इतना तो पूछा होता, कहां रहते हो, कहां खाते-पीते हो। तुम्हें चाहिए था, उसका हाथ पकड़ लेते और खींचकर ले आते। मगर तुम नकमहरामों को अपने हलवे-मांडे से मतलब, चाहे कोई मरे या जिये। दोनों वक्त बढ़-बढ़कर हाथ मारते हो और मूँछों पर ताव देते हो। तुम्हें इसकी क्या परवाह है कि घर में दूसरा कोई खाता है या नहीं। मैं तो परवाह न करती, वह आये या न आये। मेरा धर्म पालना-पोसना था, पाल पोस दिया। अब जहां चाहे रहे। पर इस बहू का क्या करूं, जो रो-रोकर प्राण दिये डालती है। तुम्हें ईश्वर ने आँखे दी हैं, उसकी हालत देख रहे हो। क्या मुँह से इतना भी न फूटा कि बहू अन्न जल त्याग किये पड़ी हुई।”
महाराज—”बहूजी, नारायण जानते हैं, मैंने बहुत तरह समझाया, मगर वह तो जैसे भागे जाते थे। फिर मैं क्या करता।”
अम्मा—”समझाया नहीं, अपना सिर। तुम समझाते और वह योंही चला जाता। क्या सारी लच्छेदार बातें मुझी से करने को है? इस बहू को मैं क्या कहूं? मेरे पति ने मुझसे इतनी बेरूखी की होती, तो मैं उसकी सूरत न देखती। पर, इस पर उसने न-जाने कौन-सा जादू कर दिया है। ऐसे उदासियों को तो कुलटा चाहिए, जो उन्हें तिगनी का नाच नचाये।”
कोई आधे घंटे बाद कहार ने आकर कहा—”बाबूजी आकर कमरे में बैठे हुए हैं।”
मेरा कलेजा धक-धक करने लगा। जी चाहता था कि जाकर पकड़ लाऊं, पर अम्माजी का हृदय सचमुच वज्र है। बोली—,xजाकर कह दे, यहां उनका कौन बैठा हुआ है, जो आकर बैठे हैं।”
मैंने हाथ जोड़कर कहा—”अम्माजी, उन्हें अंदर बुला लीजिए, कहीं फिर न चले जाएं।”
अम्मा – “यहां उनका कौन बैठा हुआ है, जो आयेगा। मैं तो अंदर क़दम न रखने दूंगी।”
अम्माजी तो बिगड़ रही थी, उधर छोटी ननदजी जाकर आनंद बाबू को लायी। सचमुच उनका चेहरा उतरा हुआ था, जैसे महीनों का मरीज़ हो। ननदजी उन्हें इस तरह खीचें लाती थी, जैसे कोई लड़की ससुराल जा रही हो। अम्माजी ने मुस्काराकर कहा—”इसे यहां क्यों लायीं? यहां इसका कौन बैठा हुआ है?”
आनंद सिर झुकाये अपराधियों की भांति खड़े थे। जबान न खुलती थी। अम्माजी ने फिर पूछा—”चार दिन से कहां थे?”
“कहीं नहीं, यहीं तो था।”
“खूब चैन से रहे होगे।”
“जी हां! कोई तकलीफ न थी।”
“वह तो सूरत ही से मालूम हो रहा है।”
ननदजी जलपान के लिए मिठाई लायीं। आनंद मिठाई खाते इस तरह झेंप रहे थे, मानो ससुराल आये हों। फिर माताजी उन्हें लिए अपने कमरे में चली गयीं। वहां आधे घंटे तक माता और पुत्र में बातें होती रही। मैं कान लगाये हुए थी, पर साफ़ कुछ न सुनायी देता था। हां, ऐसा मालूम होता था कि कभी माताजी रोती हैं और कभी आनंद। माताजी जब पूजा करने निकलीं, तो उनकी आँखें लाल थीं। आनंद वहां से निकले, तो सीधे मेरे कमरे में आये। मैं उन्हें आते देख चटपट मुँह ढांप कर चारपाई पर पड़ रही, मानो बेखबर सो रही हूँ। वह कमरे में आये, मुझे चरपाई पर पड़े देखा, मेरे समीप आकर एक बार धीरे पुकारा और लौट पड़े। मुझे जगाने की हिम्मत न पड़ी। मुझे जो कष्ट हो रहा था, इसका एकमात्र कारण अपने को समझकर वह मन-ही-मन दु:खी हो रहे थे। मैंने अनुमान किया था, वह मुझे उठायेंगे, मैं मान करूंगी, वह मनायेंगे, मगर सारे मंसूबे खाक में मिल गए। उन्हें लौटते देखकर मुझसे न रहा गया। मैं हकबकाकर उठ बैठी और चारपाई से नीचे उतरने लगी, मगर न-जाने क्यों, मेरे पैर लड़खड़ाये और ऐसा जान पड़ा मैं गिरी जाती हूँ। सहसा आनंद ने पीछे फिर कर मुझे संभाल लिया और बोले—”लेट जाओ, लेट जाओ, मैं कुर्सी पर बैठा जाता हूँ। यह तुमने अपनी क्या गति बना रखी है?”
मैंने अपने को संभाल कर कहा—”मैं तो बहुत अच्छी तरह हूँ। आपने कैसे कष्ट किया?”
“पहले तुम कुछ भोजन कर लो, तो पीछे मैं कुछ बात करूंगा।”
“मेरे भोजन की आपको क्या फ़िक्र पड़ी है। आप तो सैर सपाटे कर रहे हैं।”
“जैसे सैर-सपाटे मैंने किये हैं, मेरा दिल जानता है। मगर बातें पीछे करूंगा, अभी मुँह-हाथ धोकर खा लो। चार दिन से पानी तक मुँह में नहीं डाला। राम ! राम!”
“यह आपसे किसने कहा कि मैंने चार दिन से पानी तक मुँह में नहीं डाला। जब आपको मेरी परवाह न थी, तो मैं क्यों दाना-पानी छोड़ती?”
“वह तो सूरत ही कहे देती हैं। फूल से… मुरझा गये।”
“जरा अपनी सूरत जाकर आइने में देखिए।”
“मैं पहले ही कौन बड़ा सुंदर था। ठूंठ को पानी मिले तो क्या और न मिले तो क्या। मैं न जानता था कि तुम यह अनशन-व्रत ले लोगी, नहीं तो ईश्वर जानता है, अम्मा मार-मारकर भगातीं, तो भी न जाता।”
मैंने तिरस्कार की दृष्टि से देखकर कहा—”तो क्या सचमुच तुम समझे थे कि मैं यहाँ केवल आराम के विचार से रह गयी?”
आनंद ने जल्दी से अपनी भूल सुधरी—”नहीं, नहीं प्रिये, मैं इतना गधा नहीं हूँ, पर यह मैं कदापि न समझता था कि तुम बिल्कुल दाना-पानी छोड़ दोगी। बड़ी कुशल हुई कि मुझे महाराज मिल गया, नहीं तो तुम प्राण ही दे देती। अब ऐसी भूल कभी न होगी। कान पकड़ता हूँ। अम्माजी तुम्हारा बखान कर-करके रोती रहीं।”
मैंने प्रसन्न होकर कहा—”तब तो मेरी तपस्या सफल हो गयी।”
“थोड़ा-सा दूध पी लो, तो बातें हों। जाने कितनी बातें करनी है।”
“पी लूंगी,, ऐसी क्या जल्दी है।”
“जब तक तुम कुछ खा न लोगी, मैं यही समझूंगा कि तुमने मेरा अपराध क्षमा नहीं किया।”
“मैं भोजन जभी करूंगी, जब तुम यह प्रतिज्ञा करो कि फिर कभी इस तरह रूठकर न जाओगे।”
“मैं सच्चे दिल से यह प्रतिज्ञा करता हूँ।”
बहन, तीन दिन कष्ट तो हुआ, पर मुझे उसके लिए जरा भी पछतावा नहीं है। इन तीन दिनों के अनशन ने दिलों मे जो सफाई कर दी, वह किसी दूसरी विधि से कदापि न होती। अब मुझे विश्वास है कि हमारा जीवन शांति से व्यतीत होगा। अपने समाचार शीघ्र, अति शीघ्र लिखना।
तुम्हारी
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अदल बदल उपन्यास आचार्य चतुरसेन शास्त्री