चैप्टर 12 अंतिम आकांक्षा सियारामशरण गुप्त का उपन्यास | Chapter 12 Antim Akanksha Siyaramsharan Gupt Ka Upanyas
Chapter 12 Antim Akanksha Siyaramsharan Gupt Ka Upanyas
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इधर रामलाल में कुछ दिन से नया परिवर्तन दिखाई दिया। वह एकाएक विशेष रूप से प्रसन्न रहने लगा । हमसे बचकर दूसरे नौकरों के साथ गुपचुप न जानें क्या गप लड़ाया करता । काम-काज में भी उसका मन न लगता । काम पर सबेरे देर करके आता और रात को भी जल्दी ही घर चला जाता।
एक दिन उसके बाप ने आकर दादा से कहा- भैया, रमला का विवाह है; पैसे की मदद करनी पड़ेगी। सौ रुपये के बिना काम न चलेगा।
दादा ने सहायता करना स्वीकार करके पूछा-लड़की तो अच्छी है ?
उसने उत्तर दिया- बहुत अच्छी, लच्छमी जैसी सयानी है। तुम्हारी दया से अब रोटी-पानी का सुभीता हो जायगा ! रमला की माँ के मर जाने के बाद से बड़ी तकलीफ थी। इसी दिन के सुख की बात सोच कर मैंने फिर से अपना घर नहीं बसाया था।
कह कर वृद्ध ने एक साँस ली।
एकान्त में पाकर मैंने रामलाल से कहा- क्यों रे रामलाल, यह बदमाशी ?
वह समझ गया कि मैं क्या कहना चाहता हूँ । हँसकर बोला- मैंने क्या किया भैया?
“किया क्यों नहीं; सगाई, बातचीत सब पक्की कर ली – और कानों कान मुझे ख़बर भी न हुई ।”
“ऐसी बहुत बड़ी बात तो थी जो तुमसे कहता-फिरता । हम लोगों की सगाई भी क्या, रुपये आठ आने का खर्च है। कोई धूम-धाम का काम होता तो तुम्हें भी मालूम होता । अब विवाह के समय थैली की थैली खोलना पड़ेगी।
“दुलहिन तो देख-परख ली? ऐसा न हो कि दुलहिन के बदले कोयले का एक ढेर घर में आ जाय ।”
“नहीं भैया, बहुत अच्छी- ” कहते-कहते संकुचित होकर वह बीच में ही रुक गया।
इस संकोच के बीच भी विवाह की चर्चा में उसे आनन्द आ रहा. था। अधिक देर तक बातचीत करने के लोभ से वह मेरे कमरे का फैला – फूटा सामान ठीक से लगाने लगा। मैंने पूछा- तो इस बीच में तू उसे देख भी आया ?
थोड़ा इधर-उधर करके उसने वह बात भी सुना दी। बोला- उस दिन मैंने सोचा, विवाह के पहले एक बार उसे देख आना चाहिए। सब पढ़े-लिखे भी तो ऐसी ही पसन्द करते हैं। भोजपुरा यहाँ से दो कोस है । दो कोस कहाँ, कम ही होगा। उसके खेत का डेरा तो अपने गाँव के ड़े पर ही है। बीसियों वार मैं उसके पास से निकल चुका था ।
“परन्तु इस बार जिस तरह चोरी-चोरी गया, वैसा कभी न गया होगा ।”
“वाह भैया, इसमें चोरी की क्या बात; गया था, अपनी खुशी । किसी का कुछ चुरा तो नहीं लाया?”
“परन्तु उससे बात करते कोई देख लेता तो तुझे शरम न लगती ?”
“सब बातें मैंने पहले ही सोच रक्खी थीं । कह देता, दादा ने आसामियों के पास तगादे के लिए भेजा था, वहीं जा रहा था। ऐसा ही और कुछ, जो उस समय समझ में आता ।”
“तो इन बातों में तू अभी से पक्का हो गया। फिर मिला मौका?”
“मिलता क्यों नहीं, अच्छी शायत में घर से चला था। किसी ढोर को खेत के बाहर खदेड़ देने के लिए वह उसी समय घर से निकली । आस-पास कोई न था । चारों ओर धुंधली सी चाँदनी छिटकी हुई थी । मैंने पूछा, भोजपुरा यहाँ से कितनी दूर है? उसने ध्यान से मेरी ओर देखा और दबे स्वर में उत्तर दिया- ‘मुझे नहीं मालूम; पूछो उधर किसी से, जाओ !! कह कर जाने लगी। मैंने समझ लिया कि यह जान गई है कि मैं कौन हूँ; तभी तो हुकुम लगा कर चले जाने के लिए मुझसे इस तरह कह रही है। मैंने कहा- इस तरह जाती कहाँ हो रानी? गाँव का नाम नहीं मालूम तो पानी ही पिला जाओ; प्यास लगी है ‘यहाँ प्याऊ नहीं रक्खी है, जाओ यहाँ से’ – कह कर अपनी हँसी चाँपती हुई तेजी से भाग गई।
क्रमश:
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