चैप्टर 118 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 118 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

चैप्टर 118 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 118 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Chapter 118 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Chapter 118 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Ka Upanyas

विलय : वैशाली की नगरवधू

कृतपुण्य सेट्ठि ने पुत्र के विवाह का आयोजन किया । आयोजन असाधारण था । वैशाली ही के सेट्ठि जेट्ठक धनञ्जय की सुकुमारी कुमारी से कृतपुण्य सेट्ठि के पुत्र का विवाह नियत हुआ था । कृतपुण्य सेट्ठि के धन – वैभव का अन्त नहीं था । उधर सेट्ठि जेट्ठक धनञ्जय भी उस समय जम्बूद्वीप भर में विख्यात धन – कुबेर था । उसकी किशोरी कन्या मृणाल केले के नवीन पत्ते की भांति उज्ज्वल , कोमल और सुशोभनीय किशोरी थी । सेट्ठि जेट्ठक के रत्न -भंडार में सहस्र कोटि – भार -स्वर्ण था , ऐसा सारा ही वैशाली का जनपद कहता था । इस विवाह की वैशाली में बड़ी धूम थी । बड़ी चर्चा थी । दूर – दूर के कलानिपुण पुरुष , नृत्य संगीत में विलक्षण वेश्याएं और विविध भांति के आमोद -प्रमोद और शोभा के आयोजन एकत्र किए गए थे । इस विवाह की धूमधाम , मनोरंजन और व्यस्तता के कारण एक बार वैशाली की जनता का ध्यान उस छाया – पुरुष से सर्वथा ही हट गया था ।

विवाह सम्पन्न हो गया । कृतपुण्य पुत्रवधू को लेकर मंगल – उपचार करता और वधू पर रत्न लुटाता हुआ घर आ गया । पुत्र और पुत्रवधू की मधु- रात्रि मनाने के लिए उसने सर्वथा नवीन एक कौमुदी-प्रासाद का निर्माण कराया था । उस प्रासाद में उसने समस्त जम्बूद्वीप में प्राप्य सुख – सामग्री संचित की थी । उसी कौमुदी प्रासाद में वधू के गृह-प्रवेश का उत्सव मनाया जा रहा था । नगर के गण्यमान्य सेट्ठि – सामन्त पुत्र और राजपुरुष आ – आकर हंस -हंसकर सेट्टिपुत्र को बधाई देते , भेंट देते और गंध- पान से सत्कृत होते अपने – अपने घर जा रहे थे । पौर जानपद जनों का षडरस व्यंजन परोसकर भोज हो रहा था । ब्राह्मणों को कौशेय , शाल , दुधारू गाय , स्वर्णालंकृता दासियां और स्वर्णदान बांटा जा रहा था । कृतपुण्य सेट्ठी के वैभव और चमत्कार एवं दानशीलता को देख – देखकर लोग शत – सहस्त्र मुखों से प्रशंसा करते नहीं अघाते थे। अन्त : पुर में सेट्टिनी नागरिक महिलाओं से घिरी पुत्रवधू का परछन कर रही थी । स्त्रियां वधू पर रत्नाभरण न्योछावर कर रही थीं । मंगलगान की मधुर ध्वनि अन्त : पुर की रत्नखचित भीतों को आन्दोलित करती – सी प्रतीत हो रही थी । सेट्टिपुत्र समवयस्कों के बीच विविध हास्यों और व्यंग्यों का घात -प्रतिघात मुस्कराकर सह रहा था । गुणीजन, बांदी और वर -वधुएं अपनी – अपनी कलाओं का विस्तार कर रहे थे।

एक दण्ड रात्रि व्यतीत हो गई । आगत – समागत जन अपने – अपने घर विदा होने लगे। जानेवाले वाहनों का तांता बंध गया । धीरे- धीरे भीड़ कम होते- होते कौमुदी -प्रासाद में केवल परिजन, परिचारक और घनिष्ठ मित्र ही रह गए। मधरात्रि के उपचार होने लगे । कौमुदी- प्रासाद के शयनगृह और मधुशय्या पर श्वेत पुष्पों का मनोरम शृंगार किया गया था । मित्रों से विदा होकर सेट्टिपुत्र सुवासित ताम्बूल चबाता हुआ शयनकक्ष में प्रविष्ट हुआ । अनंगदेव का प्रथम प्रहार उसके प्राणों को विह्वल कर रहा था । उसके स्वस्थ सुन्दर -स्वर्ण अंग पर धवल कौशेय और धवल ही पुष्पमाला सुशोभित थी । उसके नेत्र औत्सुक्य , आनन्द और काम – मद से विह्वल हो रहे थे। नववधू को समवयस्का सखियों ने लाकर शयनकक्ष में एक प्रकार से धकेल दिया , वे कपाट – सन्धि से झांककर एक – दूसरों को नोचने लगीं । पुष्पभार से नमिति धनंजय सेट्ठि – जेट्ठक की सुकुमार कुमारी द्वितीया के चन्द्र की शोभा धारण करती हुई – सी शयन- कक्ष में बीड़ा से जड़- सी खड़ी रह गई । आंख उघारकर प्रियदर्शन पति को देखने का उसका साहस ही न हुआ ।

इसी समय कौमुदी -प्रासाद में एक भीति का आभास हुआ । गान -वाद्य एकबारगी ही रुक गए, लोगों का जनरव भी स्तब्ध हो गया । जो जहां था , वहीं जड़ हो गया । किसी के मुंह से हल्की चीत्कार – सी निकली। ऐसा प्रतीत होने लगा, जैसे कौमुदी-प्रासाद में कोई जीवित सत्त्व उपस्थित ही नहीं है। सबने भय और आतंक से देखा , छायापुरुष ने कौमुदी प्रासाद में प्रवेश किया है। छाया को देखकर बहुत लोग मूर्छित होकर गिर पड़े, बहुत पत्थर की मूर्ति की भांति जड़ हो गए। लोगों की जीभ तालु से सट गई । छाया – मूर्ति धीरे धीरे स्थिर चरणों से पृथ्वी से कुछ ऊपर ही वायु में तैरती हुई – सी एक के बाद दूसरा कक्ष और अलिंद पार करती हुई सेट्टिपुत्र के शयनकक्ष के द्वार पर आ पहुंची। उसे देखते ही सखी , दासी और कन्या जो जहां थीं , भयभीत एवं मूर्छित हो , भूमि पर गिर गईं।

नवदम्पती ने भी , प्रासाद में कोई अशुभ बात हुई है, इसका आभास अनुभव किया । सेट्टिपुत्र ने आगे बढ़कर द्वार खोला , द्वार खोलते ही छाया पुरुष शयनकक्ष में आ प्रविष्ट हुआ । उसे देखते ही सेट्टिपुत्र भय से आंखें फाड़े निर्जीव की भांति पीछे हटकर भीत में चिपक गया । वधू चीत्कार करके मूर्छित हो गिर पड़ी । छायापुरुष ने उसी भांति पृथ्वी से अधर , स्थिर गति से जाकर सेट्टिपुत्र को छुआ। उसके छूते ही सेट्टिपुत्र मूर्छित होकर नीचे गिर गया । छायापुरुष ने उसे अनायास ही दोनों हाथों में उठाकर पुष्प – शय्या पर लिटा दिया । इसके बाद उसने द्रुत गति से शयन – कक्ष में चारों ओर चक्कर लगाना प्रारम्भ किया । चक्कर लगाते – लगाते वह शय्या की परिक्रमा- सी करने लगा । प्रत्येक बार उसकी परिक्रमा परिधि छोटी होने लगी । अन्तत: वह शैय्यातल्प को चारों ओर से छूता हुआ नथुने फुला फुलाकर कुछ सूंघता हुआ – सा घूमता रहा। इस समय नेत्रों से विद्युत् -प्रवाह के समान एक सचेत धारा प्रवाहित हो -होकर सेट्ठिपुत्र के शरीर में प्रविष्ट होने लगी; बीच -बीच में वह रुक – रुककर , सेट्ठिपुत्र के बिलकुल ऊपर झुककर देखता और फिर द्रुत वेग से शय्या के ऊपर नीचे चारों ओर घूम जाता । प्रासाद में ऐसा सन्नाटा था जैसे यहां एक भी जीवित पुरुष न हो । अब उसने मुंह से एक प्रकार हुंकृति -ध्वनि प्रारम्भ की । फिर वह कन्दुक की भांति एक बार ऊपर को उछला । उसने धुएं के बादल के समान सिकुड़कर मूर्छित सेट्ठिपुत्र के ऊपर अधर में लटककर अपना मुंह उसके मुंह के एकदम निकट लाकर , मुंह से मुंह मिलाकर , उसके मुंह में फूंक मारना प्रारम्भ किया । फूंक मारने से सेट्टिपुत्र का मुंह खुल गया ; वह अधिकाधिक खुलता चला गया । तब अद्भुत चमत्कारिक रूप से वह छायापुरुष एक द्रव सत्व की भांति समूचा ही सेट्ठिपुत्र के मुंह में धंस गया । सेट्ठिपुत्र अति गहन नींद में सो गया । धीरे- धीरे उसके सफेद मृतक के समान मुंह पर लाली दौड़ने लगी । लकड़ी के समान अकड़े हुए अंग हिलने – डुलने और सिकुड़ने लगे। उसके मुंह की विकृति भी दूर हो गई। उसने सुख से करवट ली और सो गया । मूर्च्छित वधू भूमि पर पड़ी रही । छायापुरुष का कोई चिह्न कक्ष में न रह गया । इस अद्भुत – अतयं घटना का कोई साक्षी भी न था ।

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