चैप्टर 117 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 117 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

चैप्टर 117 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 117 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Chapter 117 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Chapter 117 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

छाया – पुरुष : वैशाली की नगरवधू

इन्हीं दिनों वैशाली में एक और नई विभीषिका फैल गई । लोग भयविस्फारित नेत्रों से एक – दूसरे को देखते हुए परस्पर कहने लगे – “ एक भयानक और अद्भुत काली छाया उन्होंने कभी -कभी नगर के बाहर प्रान्त – भाग में सन्ध्या के धूमिल अन्धकार में घूमती -फिरती देखी है। ”ज्यों – ज्यों दिन बीतते गए, लोग इसका समर्थन करते गए । बहुत जन भय से दबे हुए स्वर में कहने लगे कि उस छाया में केवल गति है, किन्तु वह अशरीरी है। किसी ने कहा- वह छाया बोलती भी सुनी गई है। वह मनुष्याकार तो है, किन्तु मनुष्य कदापि नहीं है। इतना लम्बा मनुष्य होता ही नहीं । अशरीरी होने पर भी वह छाया वायु वेग से अधर में उड़ती है , पृथ्वी को छूती नहीं , उसकी गति अबाध है; पर्वत , नद, गह्वर कुछ भी उसकी गति में बाधक नहीं हो सकता । अनेक ने देखा है, कि स्वच्छ चांदनी रात में वह छाया सुदूर पर्वत – श्रृंगों के ऊपर से होती हुई , वायु में तैरती – सी वैशाली के निकट आती और कभी धीरे- धीरे और कभी अति वेग से नगर के चारों ओर चक्कर काटती हुई लोप हो जाती है । बहुत लोग बहुत भांति की अटकलें उसके सम्बन्ध में लगाने लगे । जिन्होंने देखा नहीं था वे अविश्वास करते ; और जिन्होंने देखा वे प्रतीति कराने लगे । फिर भी विश्वास हो चाहे न हो , यह सूचना कहने वालों और सुनने वालों सभी के लिए भय का कारण बन गई थी । स्त्रियों में से भी कुछ ने देखा और वे भय से चीत्कार करके मूर्छित हो गईं। बच्चे उस छाया की बात सुनते ही सकते की हालत में हो गए। एक बात अवश्य थी , इस छाया ने किसी का अनिष्ट नहीं किया था । नगर – अन्तरायण में भी वह नहीं घुसी थी । उसका दर्शन अधिकतर मर्कट – ह्रद, पलाशवन और वैघंटिक -यक्षनिकेतन के निकट ही बहुधा होता था । किसी -किसी ने उसे यक्षनिकेतन में प्रविष्ट होते भी देखा था । इससे लोग उसे यक्ष भी कहने लगे थे। युद्ध की विभीषिकाएं दिन -दिन बढ़ती जाती थीं , इससे वैशाली में घर – बाहर सर्वत्र एक घबराहट- सी फैल जाती थी ; और यह लोकचर्चा होने लगी थी कि कोई- न – कोई अप्रिय अशुभ घटना होनेवाली है।

एक बात इस सम्बन्ध में और विचारणीय थी , प्रतिदिन चंपा के सेट्ठि कृतपुण्य का पुत्र भद्रगुप्त सान्ध्य भ्रमण के लिए जिस ओर वड़वाश्व पर घूमने जाया करता था , उसी ओर वह छाया बहुधा देखी जाती थी । सबसे प्रथम सेट्टिपुत्र के साथियों ही ने उसे देखा भी था । सेट्टिपुत्र उसे देख अति भयभीत हो गया था । एक बार तो वह छाया सेट्टिपुत्र के निकट आकर उसे छू भी गई थी । उस स्पर्श ही से सेट्ठिपुत्र भय से मूर्छित हो गया था । कृतपुण्य ने बहुत उपचार कराया , तब वह स्वस्थ हुआ था । तब से सेट्ठिपुत्र ने बाहर भ्रमणार्थ जाना ही बन्द कर दिया था । इससे वह छाया – पुरुष जैसे अति उद्विग्न हो वेग से बहुधा वैशाली के चारों ओर घूमा करता था । हाल ही में चाण्डाल मुनि और यक्षकन्या के प्रादुर्भाव और कृत्य प्रभाव से भयभीत वैशाली की जनता इस छाया – पुरुष से अत्यधिक भयभीत , शंकित और उद्विग्न हो गई थी ।

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