चैप्टर 111 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 111 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

चैप्टर 111 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 111 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Chapter 111 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Chapter 111 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel In Hindi 

110. दक्षिणा -ब्राह्मणा- कुण्डपुर – सन्निवश : वैशाली की नगरवधू

वैशाली नगर का बड़ा भारी विस्तार था । उसके अन्तरायण में तीन सन्निवेश थे, जो अनुक्रम से उत्तम , मध्यम और कनिष्ठ के नाम से विख्यात थे। उत्तम सन्निवेश में स्वर्ण कलशवाले सात सहस्र हर्म्य थे। यहां केवल सेट्ठि गृह- पति और निगमों का निवास था । मध्यम सन्निवेश में चौदह सहस्र चांदी के कलशवाली पक्की अट्टालिकाएं थीं । इनमें विविध व्यापार करनेवाले महाजन और मध्यम वित्त के श्रेणिक जन रहते थे। तीसरे कनिष्ठ सन्निवेश में तांबे के कलश -कंगूरवाले इक्कीस सहस्र घर थे। जहां वैशाली के अन्य पौर नागरिक उपजीवी जन रहते थे।

इस अन्तरायण के सिवा वैशाली के उत्तर -पूर्व में दो उपनगर और थे। एक तो उत्तर -ब्राह्मण – क्षत्रिय – सन्निवेश कहा जाता था । यह ज्ञातृवंशीय क्षत्रियों का सन्निवेश था । इसके निकट उनका कोल्लाग – सन्निवेश था , जिसे छूता हुआ ज्ञातृ- क्षत्रियों का प्रसिद्ध द्युतिपलाश नामक उद्यान एवं चैत्य था । दूसरे उपनिवेश का दूसरा भाग दक्षिण -ब्राह्मण कुण्डपुर – सन्निवेश कहलाता था । इसमें केवल श्रोत्रिय ब्राह्मणों के घर थे, जो परम्परा से वहीं पीढ़ी – दर – पीढ़ी रहते चले आए थे। वैशाली की पश्चिम दिशा में वाणिज्य – ग्राम था । इसमें विश जन और कम्मकर रहते थे जो अधिकतर कृषि और पशुपालन का धन्धा करते थे। इस सम्पूर्ण बस्ती को वैशाली नगरी कहा जाता था ।

दक्षिण -ब्राह्माण – कुण्डपुर – सन्निवेश में सोमिल ब्राह्मण रहता था । वह ब्राह्मण धनिक, सम्पन्न और पण्डित था । ऋगादि चारों वेदों का सांगोपांग ज्ञाता और ब्राह्मण -कार्य में निपुण था । बहुत – से सेट्ठिजन और राजा उसके शिष्य थे। बहुत – से बटुक देश- देशान्तरों से आकर उसके निकट विद्यार्जन करते थे। वह विख्यात काम्पिल्य शाखा का यजुर्वेदी ब्राह्मण था । वेदाध्यायियों से उसका घर भरा रहता था । उसके घर की शुक – सारिकाएं ऋग्वेद की ऋचाएं उच्चरित करती थीं । वे पद- पद पर विद्यार्थियों के अशुद्ध पाठ का सुधार करती थीं । उसका घर यज्ञ – धूम से निरन्तर धूमायित रहता था । सम्पूर्ण दक्षिण -ब्राह्मण- कुण्डपुर सन्निवेश में यह बात प्रसिद्ध थी कि श्रोत्रिय सोमिल के ऋषिकल्प पिता ऋषिभद्र के होमकालीन श्रमसीकर साक्षात् वीणाधारिणी सरस्वती अपने हाथों से पोंछती थीं । श्रोत्रिय सोमिल उषाकाल ही में हवन करने बैठ जाते ; दो दण्ड दिन चढ़े तक वे यज्ञ करते , बलि देते , फिर धुएं से लाल हुई आंखों और पसीने से भरा शरीर लिए, अध्यापन के लिए कुशासन पर बैठ जाते । वेदपाठी होने के साथ ही वे अपने युग के दिग्गज तार्किक भी थे। उनकी विद्वत्ता और ब्राह्मण्य का वैशाली के गणप्रतिनिधियों पर बड़ा प्रभाव था । राजवर्गी तथा जानपदीय सभी उनका मान करते थे।

इन्हीं सोमिल ब्राह्मण के यहां मगध के निर्वासित और पदच्युत महामात्य कूटनीति के आगार आर्य वर्षकार ने आतिथ्य ग्रहण कर निवास किया था । विज्ञापन के अनुसार लिच्छवि – राजकीय -विभाग से उनके लिए नित्य एक सहस्र सुवर्ण और आहार्य सामग्री आती। नगर के अन्य गण्यमान्य सेट्ठि -सामन्त भी इस ब्राह्मण के सत्कार के लिए वस्त्र , फल, स्वर्ण, पात्र निरन्तर भेजते रहते । पर यह तेजस्वी ब्राह्मण इस सब उपानय – सामग्री को छूता भी न था । वह उस सम्पूर्ण सामग्री को उसी समय ब्राह्मणों और याचकों में बांट देता था । इससे सूर्योदय के पूर्व ही से सोमिल ब्राह्मण के द्वार पर याचकों, ब्राह्मणों और बटुकों का मेला लग जाता था ।

देखते- ही – देखते इस तेजपुञ्ज ब्राह्मण के प्रतिदिन सहस्रसुवर्ण- दान – माहात्म्य और वैशिष्ट्य की चर्चा वैशाली ही में नहीं , आसपास और दूर – दूर तक फैल चली । याचक लोग याचना करने और भद्र संभ्रान्त जन इस ब्राह्मण का दर्शन करने दूर – दूर से आने लगे। ब्राह्मण स्वच्छ जनेऊ धारण कर विशाल ललाट पर श्वेतचन्दन का लेप लगा एक कुशासन पर बहुधा मौन बैठा रहता । एक उत्तरीय मात्र उसके शरीर पर रहता । वह बहुत कम भाषण करता तथा सोमिल की यज्ञशाला के एक प्रान्त में एक काष्ठफलक पर रात्रि को सोता था । वह केवल एक बार हविष्यान्न आहार करता । वह यज्ञशाला के प्रान्त में बनी घास की कुटीर के बाहर केवल एक बार शौचकर्म के लिए ही निकलता था ।

सहस्र सुवर्ण नित्य दान देने की चर्चा फैलते ही अन्य श्रीमन्त भक्तों ने भी सुवर्ण भेंट देना प्रारम्भ किया – सो कभी – कभी तो प्रतिदिन दस सहस्र सुवर्ण नित्य दान मिलने लगा । ब्राह्मण याचक आर्य वर्षकार का जय – जयकार करने लगे और अनेक सत्य – असत्य , कल्पित – अकल्पित अद्भुत कथाएं लोग उसके सम्बन्ध में कहने लगे । बहुमूल्य उपानय के समान ही यह ब्राह्मण भक्तों की तथा राजदत्त सेवा भी नहीं स्वीकार करता था । वज्जीगण के वैदेशिक खाते से जो दास – दासी और कर्णिक सेवा में भेजे गए थे, बैठे – बैठे आनन्द करते । ब्राह्मण उससे वार्ता तक नहीं करते, पास तक नहीं आने देते । केवल ब्राह्मण सोमिल ही आर्य वर्षकार के निकट जा पाता, वार्तालाप कर पाता । वही उन्हें अपने हाथ से मध्याह्नोत्तर हविष्यान्न भोजन कराता – जो सूद -पाचकों द्वारा नहीं, स्वयं गृहिणी , सोमिल की ब्राह्मणी, रसोड़े से पृथक् अत्यन्त सावधानी से तैयार करती थी , और जिसे सोमिल – दम्पती को छोड़ कोई दूसरा छु या देख भी नहीं सकता था । ऐसी ही अद्भुत दिनचर्या इस पदच्युत अमात्य ब्राह्मण की वैशाली में चल रही थी ।

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