चैप्टर 11 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री की उपन्यास | Chapter 11 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

चैप्टर 11 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री की उपन्यास | Chapter 11 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Chapter 11 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Chapter 11 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

वैशाली का स्वर्ग : वैशाली की नगरवधू

वैशाली का सप्तभूमि प्रासाद उस युग के नन्दन वन से होड़ लगाता था। वहां की सम्पदा, सम्पन्नता विभूति और सजावट देखकर सम्राटों को ईर्ष्या होती थी। यह समूचा महल श्वेतमर्मर का बना था, जिसमें सात खण्ड और सात ही प्रांगण थे। उसकी सबसे ऊंची अट्टालिका पर लगे स्वर्णकंगूर प्रभात की सुनहली धूप में चमकते हुए दूर तक बड़ा भारी शोभा-विस्तार करते थे। यह प्रासाद बहुत विशाल था। उसके सभी द्वार-तोरणों पर प्रत्येक सायंकाल को जूही, चम्पा, चम्पक, मालती और शतदल की मालाएं मोहक ढंग से टांगी जाती थीं। ये मालाएं दूर-दूर के देशों के अधिपतियों और सेट्ठिकुबेरों की ओर से भेंटस्वरूप भेजी जाती थीं। अलिन्दों और प्रकोष्ठों में शुक, सारिका, मयूर, हंस, करण्ड, सारस, लाव, तित्तिर के निवास थे। प्रथम प्रांगण में विशाल मैदान था जहां सन्ध्या होने से पूर्व सुगन्धित जल छिड़क दिया जाता था, जो सन्ध्या होते ही नागरिकों, सेट्ठिपुत्रों और सामन्तपुत्रों के विविध वाहन-रथ, हाथी, शिविका, पालकी, सुखपाल आदि से खचाखच भर जाता था। दूसरे प्रकोष्ठ में अम्बपाली की सेना, गज, अश्व, रथ, मेष, गौ, पशु आदि का स्थान था। यहां भिन्न-भिन्न देशों के अद्भुत और लोकोत्तर पशुओं का संग्रह था, जिन्हें अम्बपाली की कृपादृष्टि पाने के लिए अंग, बंग, कलिंग, चम्पा, ताम्रलिप्ति और राजगृह के सम्राट, महाराज एवं सेट्ठिजन उपहार रूप भेजते रहते थे। तीसरे प्रांगण में सुनार, जड़िए, जौहरी, मूर्तिकार और अन्य कलाकार अपना-अपना कार्य करते थे। उनकी प्रचुर कला और मनोहर कारीगरी से देवी अम्बपाली का वह अप्रतिम आवास और उसका दिव्य रूप शत-सहस्र गुण देदीप्यमान हो जाता था। चौथे प्रांगण में अन्न, वस्त्र, खाद्य, मेवा, फल और मिष्ठान्न का भंडार था। देश-देश के फलों, पक्वान्नों का वहां पाक होता था। बड़े-बड़े विद्वान् अनुभवी वैद्यराज अनेक प्रकार के अर्क, आसव, मद्य और पौष्टिक पदार्थ बनाते रहते थे और उसकी सुगंध से यह प्रकोष्ठ सुगंधित रहता था। यहां भांति-भांति के इत्र, गंध, सार और अंगराग भी तैयार कराए जाते थे। पांचवें कोष्ठ में अम्बपाली का धन, रत्नकोष, बहीवट और प्रबंध व्यवस्था का खाता था, जहां बूढ़े कर्णिक, दण्डधर, कंचुकी और वाहक तत्परता से इधर-उधर घूमते, हिसाब लिखते, लेन-देन करते और स्वर्ण-गणना करते थे। छठे प्रांगण के विशाल सुसज्जित प्रकोष्ठ में देवी अम्बपाली अपनी चेटिकाओं और दासियों को लेकर नागरिकों की अभ्यर्थना करती, उनका मनोरंजन करती थी और वहीं द्यूत, पान, नृत्य और गान होता था। अर्धरात्रि तक वह गंधर्व नगरी जैसी भूतल पर सर्वापेक्षा जाग्रत् रहती थी। सातवें अलिन्द में देवी अम्बपाली स्वयं निवास करती थी, वहां किसी भी आगन्तुक को प्रवेश का अधिकार न था। इस अलिन्द की दीवारों और स्फटिक-स्तम्भों पर रत्न खचित किए गए थे तथा छत पर स्वर्ण का बारीक रंगीन काम किया गया था। बड़े-बड़े सम्राट् इस अलिन्द की शोभा एक बार देखने को लालायित रहते थे, पर वहां किसी का पहुंचना संभव नहीं था।

दीये जल चुके थे। सप्तभूमि प्रासाद का सिंहद्वार उन्मुक्त था। भीतर, बाहर, सर्वत्र सुगन्धित सहस्र दीपगुच्छ जल रहे थे। दासी, बांदी, चेटी और दण्डधर प्रबंध व्यवस्था में व्यस्त बाहर-भीतर आ-जा रहे थे। सेट्ठिपुत्र और सामन्तपुत्र अपने-अपने वाहनों पर आ रहे थे। भृत्यगण दौड़-दौड़कर उनके वाहनों की व्यवस्था कर रहे थे, वे आगन्तुक मित्रों के साथ गप्पें उड़ाते आ-जा रहे थे। छठे अलिन्द के द्वार पर प्रतिहार उनका स्वागत करके उन्हें प्रमोद भवन के द्वार पर पहुंचा रहे थे, जहां मदलेखा अपने सहायक साथियों के साथ आगन्तुकों को आदरपूर्वक ले जाकर उनकी पदमर्यादा के अनुसार भिन्न-भिन्न पीठिकाओं पर बैठाती थी। पीठिकाओं पर धवल दुग्धफेन सम कोमल गद्दे और तकिये बिछे थे। वहां स्थान स्थान पर करीने से आसंदी, पलंग, चित्रक, पटिक, पर्यंकक, तूलिका, विकतिक, उद्दलोमी, एकांतलोमी, कटिस्स, कौशेय और समूरी मृग की खालों के कोमल कीमती बिछौने बिछे थे, जिन पर आकर सुकुमार सेट्ठिपुत्र और अलस सामन्तपुत्र अपने शरीर लुढ़का देते थे; दासीगण बात की बात में पानपात्र, मद्य, सोने के पांसे और दूसरे विनोद के साधन जुटा रही थीं। धूमधाम बढ़ती ही जा रही थी। बहुत लोग दल बांधकर द्यूत खेलने में लग गए। कुछ चुपचाप आराम से मद्य पीने लगे। कुमारी दासियां पार्श्व में बैठकर मद्य ढाल-ढालकर देने लगीं। कुछ लोग भांति-भांति के वाद्य बजाने लगे। प्रहर रात्रि व्यतीत होने पर नृत्य गान प्रारम्भ हुआ। सुन्दरी कुमारी किशोरियां रत्नावली कण्ठ में धारण कर, लोध्ररेणु से कपोल-संस्कार कर, कमर में स्वर्ण-करधनी और पैरों में जड़ाऊ पैंजनी पहन, आलक्तक पैरों को कुसुम स्तवकवाले उपानहों से सज्जित करके कोमल तन्तुवाद्य और गम्भीर घोष मृदंग की धमक पर शुद्ध-स्वर-ताल पर उठाने-गिराने और भू पर आघात करने लगीं। उनकी नवीन केले के पत्ते के समान कोमल और सुन्दर देहयष्टि पद-पद पर बल खाने लगी। उनके नूपुरों की क्वणन ध्वनि ने प्रकोष्ठ के वातावरण को तरंगित कर दिया, उनके नूतन वक्ष और नितम्बों की शोभा ने मद्य की लाली में मद विस्तार कर दिया। उनके अंशुप्रान्त से निकले हुए नग्न बाहुयुगल विषधर सर्प की भांति लहरा-लहराकर नृत्यकला का विस्तार करने लगे। उनकी पतली पारदर्शी उंगलियों की नखप्रभा मृणालदंड की भांति हवा में तैरने लगी और फिर जब उनके प्रवाल के समान लाल-लाल उत्फुल्ल अधरोष्ठों के भीतर हीरक-मणिखचित दन्त-पंक्ति को भेदकर अनुराग सागर की रसधार बहने लगीं, तब सभी उपस्थित सेट्ठि, सामन्त, राजपुत्र, बंधुल, विट, लम्पट उसी रंगभूमि में जैसे भूलोक, नरलोक सबको भूलकर डूब गए। वे थिरक-थिरककर सावधानी और व्यवस्था से स्वर-ताल पर पदाघात करके कामुक युवकों को मूर्छित-सा करने लगीं। उनके गण्डस्थल की रक्तावदान कान्ति देखकर मदिरा रस से पूर्ण मदणिक्य-शुक्ति के सम्पुट की याद आने लगी। उनकी काली-काली, बड़ी-बड़ी अलसाई आंखें। कमलबद्ध भ्रमर का शोभा-विस्तार करने लगीं। भूलताएं मत्त गजराज की मदराजि की भांति तरंगित होने लगीं। उनके श्वेत-रजत भाल पर मनःशिला का लाल बिन्दु अनुराग-प्रदीप की भांति जलता दीख रहा था। उनके माणिक्य-कुण्डलों में गण्डस्थल पर लगे पाण्डुर लोध्ररेणु उड़-उड़कर लगने लगे। मणि की लाल किरणों से प्रतिबिम्बित हुए उनके केशपाश सान्ध्य मेघाडम्बर की शोभा विस्तीर्ण करने लगे। इस प्रकार एक अतर्कित-अकल्पित मदधारा लोचन-जगत् हठात् विह्वल करने लगी। इसके बाद संगीत-सुधा का वर्णन हुआ तो जैसे सभी उपस्थित पौरगण का पौरुष विगलित होकर उसमें बह गया।

धीरे-धीरे अर्धरात्रि व्यतीत हो चली। अब देवी अम्बपाली ने हंसते हुए प्रमोद प्रकोष्ठ में प्रवेश किया। प्रत्येक कामुक पर उसने लीला-कटाक्षपात करके उन्हें निहाल किया। इस समय उसने वक्षस्थल को मकड़ी के जाले के समान महीन वस्त्र से ढांप रखा था। कण्ठ में महातेजस्वी हीरों का एक हार था। हीरों के ही मकर-कुण्डल कपोलों पर दोलायमान हो रहे थे। वक्ष के ऊपर का श्वेत निर्दोष भाग बिलकुल खुला था। कटिप्रदेश के नीचे का भाग स्वर्ण-मण्डित रत्न-खचित पाटम्बर से ढांपा गया था। परन्तु उसके नीचे गुल्फ और अरुण चरणों की शोभा पृथक् विकीर्ण हो रही थी। उसकी अनिंद्य सुन्दर देहयष्टि, तेजपूर्ण दृष्टि, मोहक-मन्द मुस्कान, मराल की-सी गति, सिंहनी की-सी उठान सब कुछ अलौकिक थी। उस प्रमोद-कानन में मुस्कान बिखेरती हुई, नागरिकों को मन्द मुस्कान से निहाल करती हुई धीरे-धीरे वह एक अति सुसज्जित स्वर्ण-पीठ की ओर बढ़ी। वहां तीन युवक सामन्तपुत्र उपधानों के सहारे पड़े मद्यपान कर रहे थे। मदलेखा स्वयं उन्हें मद्य ढाल-ढालकर पिला रही थी।

मदलेखा एक षोडशी बाला थी। उसकी लाज-भरी बड़ी-बड़ी आंखें उसके उन्मत्त यौवन को जैसे उभरने नहीं देती थीं। वह पद्मराग की गढ़ी हुई पुतली के समान सौन्दर्य की खान थी। व्यासपीठ पर पड़े युवक की ओर उसने लाल मद्य से भरा स्वर्णपात्र बढ़ाया। स्वर्णपात्र को छूती हुई किशोरी मदलेखा की चम्पक कली के समान उंगलियों को अपने हाथ में लेकर मदमत्त युवक सामन्त ने कहा—”मदलेखा, इतनी लाज का भार लेकर जीवन पथ कैसे पार करोगी भला? तनिक और निकट आओ,” उसने किशोरी की उंगली की पोर पकड़कर अपनी ओर खींचा।

किशोरी कण्टकित हो उठी। उसने मूक कटाक्ष से युवक की ओर देखा, फिर मन्दकोमल स्वर से कहा—”देवी आ रही हैं, छोड़ दीजिए।

युवक ने मंद-विह्वल नेत्र फैलाकर देखा-देवी अम्बपाली साक्षात् रतिमूर्ति की भांति खड़ी बंकिम कटाक्ष करके मुस्करा रही हैं। युवक ससंभ्रम उठ खड़ा हुआ। उसने कहा—”अब इतनी देर बाद यह सुधा-वर्षण हुआ!”

“हुआ तो,”—देवी ने कुटिल भ्रूभंग करके कहा—”किन्तु तुम्हारा सौदा पटा नहीं क्या, युवराज?”

“कैसा सौदा?” युवक ने आश्चर्य-मुद्रा से कहा।

अम्बपाली ने मदलेखा को संकेत किया, वह भीतर चली गई।

अम्बपाली ने पीठिका पर बैठते हुए कहा—”मदलेखा से कुछ व्यापार चल रहा था न!”

युवराज ने झेंपते हुए कहा—”देवी को निश्चय ही भ्रम हुआ।”

“भ्रम-विभ्रम कुछ नहीं।” उसने एक मन्द हास्य करके कहा—”मेरे ये दोनों मित्र इस सौदे के साक्षी हैं। मित्र जयराज और सूर्यमल्ल, कह सकते हो, युवराज स्वर्णसेन कुछ सौदा नहीं पटा रहे थे?”

जयराज ने हंसकर कहा—”देवी प्रसन्न हों! जब तक कोई सौदा हो नहीं जाता, तब तक वह सौदा नहीं कहला सकता।” अम्बपाली खिलखिलाकर हंस पड़ी। उसने तीन पात्र मद्य से भरकर अपने हाथ से तीनों मित्रों को अर्पित किए और कहा––”मेरे सर्वश्रेष्ठ तीनों मित्रों की स्वास्थ्य-मंगल-कामना से ये तीनों पात्र परिपूर्ण हैं।”

फिर उसने युवराज स्वर्णसेन के और निकट खिसककर कहा––”युवराज, क्या मैं तुम्हारा कुछ प्रिय कर सकती हूं?”

युवराज ने तृषित नेत्रों से उसे देखते हुए कहा––”केवल इन प्राणों को––इस खण्डित हृदय को अपने निकट ले जाकर।”

अम्बपाली ने मुस्कराकर कहा––”युवराज का यह प्रणय-निवेदन विचारणीय है, मेरे प्रति भी और मदलेखा के प्रति भी।”

वह उठ खड़ी हुई। उसने हंसकर तीनों युवकों का हाथ पकड़कर कहा, युवराज स्वर्णसेन, जयराज और मित्र सूर्यमल्ल, अब जाओ––तुम्हारी रात्रि सुख-निद्रा और सुखस्वप्नों की हो!”

वह आनन्द बिखेरती हुई, किसी को मुस्कराकर, किसी की ओर मृदु दृष्टिपात करती हुई, किसी से एकाध बात करती हुई भीतरी अलिन्द की ओर चली गई। तीनों मित्र अतृप्त से खड़े रह गए। धीरे-धीरे सब लोग कक्ष से बाहर निकलने लगे और कुछ देर में कक्ष शून्य हो गया। खाली मद्यपात्र, अस्त-व्यस्त उपधान, दलित कुसुम-गन्ध और बिखरे हुए पांसे यहां-वहां पड़े रह गए थे, चेटियां व्यवस्था में व्यस्त थीं और दण्डधर सावधानी से दीपगुच्छों को बुझा रहे थे। तीनों मित्र शून्य हृदय में कसक लेकर बाहर आए। दूर तक उच्च सप्तभूमि प्रासाद के सातवें अलिन्द के गवाक्षों में से रंगीन प्रकाश छन-छनकर राजपथ पर यत्र-तत्र आलोक बिखेर रहा था।

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