चैप्टर 11 प्रभावती सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 11 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

चैप्टर 11 प्रभावती सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 11 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

Chapter 11 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi

Chapter 11 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi

 

सन्ध्या हो गई। एकान्त में आवश्यक बातें करने की यमुना की प्रार्थना स्वामीजी ने मंजूर कर ली। महाराज शिवस्वरूप, किसी आध्यात्मिक विषय पर परामर्श होगा, सोचकर गम्भीर हो गए। प्रभा ने यमुना के एकान्त आलाप को अपने अभीष्ट का कारण समझा।

अन्धकार ने दिशाओं को ढँक लिया। यह वैसा ही अँधेरा है जिसमें यमुना देवी और वीरसिंह जनता की दृष्टि से छिपे हुए हैं, जिसमें सच्चे वीरों का इतिहास-सैनिकों की कीर्ति सेनापति और राजा के अधिकार में चली जाती है- इर्द-गिर्द की जनता कुछ दिन नाम जपकर भूल जाती है।

इसी अँधेरे में हृष्ट-पुष्ट, सचेत, विजयी युवा वीरसिंह और यमुना साथ-साथ दूर एकान्त के लिए चले जा रहे हैं। इसी तरह दूर एकान्त में चले आए हैं, और कार्य-बन्धनों में पड़े दूर एकान्त में रहते हैं। फिर भी किसी को एकान्त का दुःख नहीं। प्राणों में मिलकर एक हैं! हाय रे देश! कितने फूल इस प्रकार सामयिक प्रवाह में चढ़कर दृष्टि से दूर अँधेरे में बहते हुए अदृश्य हो गए, पर किसी ने तत्त्व-रूप को न देखा, सब बाहरी चहल-पहल में भूले रहे, इतिहासवेत्ताओं के सत्य के भुलावे में आश्वस्त।

यह अंधेरा चिरन्तन है। दोनों इसका मर्म समझते हैं। दोनों ने इसे प्यार किया है; इसलिए दोनों असाधारण होकर साधारण हैं। देश अँधेरे में है, प्रकाश देख नहीं पाता, वे स्व-प्रकाश दोनों इसीलिए अँधेरे में रहकर देश को प्रकाशित करना चाहते हैं जहाँ तक सम्भाव्यता उनके द्वारा पहुँचे।

ऐसे ही अँधेरे में वीरसिंह नियत समय पर दलमऊ जाकर यमुना से मिलते रहे। ऐसे ही अँधेरे में दोनों ने सूर्य से भी प्रखर आलोक में एक-दूसरे को देखा, आज ऐसे ही अँधेरे में दोनों फिर एक दूसरे के साथी हैं। अँधेरे का मित्र कितना दुर्लभ है-अँधेरे का मित्र कितना महान!

दोनों दूर निकल आए। दोनों मौन हैं। सामने खेतों के बीच पेड़ों की छाया में संन्यासी-रूप महावीर वीरसिंह खड़े हो गए। उसी छाया में प्रलम्ब, पुष्ट, शोभना, श्याम, यमुना ने भुजों में भरकर, केवल एक सम्बोधन किया। वीरसिंह नीरव, स्वर के अविनश्वर आवेश में बँधे, वैसे ही बाँधकर खड़े हो गए। देह की शिरा-शिरा श्लथ हो चली। आप ही आप दोनों एक ही इच्छा से जैसे बैठ गए। यमुना के हाथ को आप ही आप वीरसिंह के हाथ ने ले लिया। भाषा इस भाव के प्रकाशन में अक्षम, तिरोहित हो गई। कुछ काल ऐसा ही बीता।

“यह दूसरी कौन है? – बल्कि हाल मालूम हो चुका है।” सँभलकर वीरसिंह ने पूछा, हाथ में हाथ लिए रहे।

“देवी प्रभावती, दलमऊ की राजकन्या, कुमार देव की परिणीता धर्मपत्नी, क्या हाल मालूम हुआ?”

“वह रामसिंह अपना आदमी है। दो पत्र अभी उसने हरकारे से छीने हैं। बलवन्तसिंह और महेश्वरसिंह के नामाक्षर हैं। देव पर दोषारोप है कि गान्धर्व विवाह प्रभावती को बलात् किया-महेश्वर और बलवन्त को पिछली शत्रुता के कारण नीचा दिखाने के अभिप्राय से। प्रभावती विवाहिता हो जाने की वजह पति के विरोध में साक्ष्य देगी। महेश्वरसिंह कन्या का बलवन्त से विवाह करना चाहते थे, यह सूचना प्रसिद्ध हो चुकी थी। बलवन्त ने देव को नाव पर बन्दी किया। अब अपने साथ ले जा रहे हैं। उधर के सरदारों से कर लेकर जल्द राजराजेश्वर की सेवा में उपस्थित होंगे।”

“हूँ!” यमुना कुछ देर सोचती रही, फिर बोली, “हम लोग गंगा तैरकर बचे। घोड़ा महाराज के यहाँ था-वे महाराज, शिवस्वरूप गंगा-पुत्र हैं, दासियों से साक्ष्य मिल चुका था। दूसरे दिन पूछताछ की गई। अवसर पा महाराज घोड़े पर चढ़कर भागे। प्रयाग में सम्बन्धी थे-वहाँ गए; हम लोग वहीं था। वहीं से आवश्यक पूर्ति करके चलना सोचा था; उनसे मुलाकात हुई, साथ ले लिया। कुमार को बचाना है।

“तुम्हारे द्वारा असम्भव, मुझसे सम्भव होगा?”

“नहीं, सहायता के लिए कहा?”

“युद्ध करने का विचार है?”

“युद्ध उचित नहीं अगर सीधे काम हो जाए।”

“तो समय के लिए शक्ति-संचय करना है?”

“हाँ।’

“अच्छा, जैसी आज्ञा होगी।”

अँधेरे में मुस्कुराकर यमुना ने प्रिय का हाथ खींचा, “समय की स्थिति कैसी है?”

“अत्यन्त चिन्ताजनक।”

“गुरुदेव ने बहुत पहले कहा था, ये विचार बदल नहीं सकते और पूरा परिवर्तन मन-सम्भूत, जाति का ही पूरा परिवर्तन है। इसलिए समय-सापेक्ष।”

वीरसिंह मौन सुनते रहे।

“क्या कुछ आशा भी है?” यमुना ने पूछा।

“देखा, केवल प्राण-पण पर विश्वास है और कुछ नहीं। विरोध की वायु से देश समाच्छन्न है। पृथ्वीराज की वीरता पर बड़े राज्य की हर राजकुमारी मुग्ध होती है; जामवन्ती के बाद, ईच्छन कुमारी, शशिवृत्ता, इन्द्रावती, हंसावती आदि का यही भाव रहा। अब कान्यकुब्ज राजकुमारी संयोगिता ने भी उन्हीं की कामना की है। तुम जानती हो, इन विवाहों के कारण किस प्रकार विरोध बढ़ा। इस बार दोनों शक्तियों के नष्ट होने की सम्भावना है।”

“वीर-पूजा में भी बड़प्पन का अभिमान भर गया है। मुझे पद्मावती का चरित्र महाभारत-भर में इसलिए अच्छा लगता है कि उन्होंने कर्ण को केवल वीर समझकर वरा। कितनी विशालता उनके हृदय में थी! आज वीरत्व के कमल पर पड़ती हुई चन्द्रकला-रूपी कुमारियाँ उसे विकसित नहीं और संकुचित करती जा रही हैं, कीर्ति-लोलुपता के कारण वे समझ नहीं पातीं। आज वीरत्व की पहचान नहीं, दम्भ का परिचय है-केवल राजसत्ता का अभिमान, इसलिए प्रेम का मूल स्रोत खो गया है, ये वरे हुए वीर को वरकर कीर्ति को बरती हैं, जो स्त्री है।”

यमुना का मर्म समझकर वीरसिंह नत-मस्तक, अँधेरे में बैठे रहे। फिर स्थान आदि के सम्बन्ध में यमुना ने राय ली, वीरसिंह बतलाते रहे। यह भी कहा कि लालगढ़-नरेश कान्यकुब्ज में थे। कुछ अपर अलाप हुए। आवेश को सँभालकर यमुना ने मिलते रहने की प्रार्थना की। स्थिर होकर वीरसिंह प्रिया का हाथ लेकर खड़े हो गए। यमुना भी खड़ी हो गई। उसी तरह चलते-चलते वीरसिंह ने कहा, “तुम्हारे प्रिय ऋण को!”

“ऋण क्या है?”

“क्या कहूँ!”

“तुम दुःखी होते हो?”

“मैं दुःखी तो था ही, पर तुम…?”

“इससे बड़ा सुख मैं नहीं चाहती। पति के पास भारत की किसी भी बड़ी राजकुमारी का मुझसे ऊँचा आसन नहीं।”

फिर धीरे-धीरे, बँधी चलती हुई बोली, “संयोगिता की बड़ी प्रशंसा सुनी है, इच्छा है-देखें, वीरा हैं।”

स्थल कुछ दूर रह गया। दोनों अलग हो गए। जब पहुँचे तब रामसिंह न आया था। आने पर जल-पान करा, अपनी ही जगह पर छोड़ आने के लिए स्वामीजी ने आज्ञा दी। प्रभावती को अच्छी तरह देख लिया।

क्रमश: 

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