चैप्टर 11 हृदयहारिणी किशोरी लाल गोस्वामी का उपन्यास | Chapter 11 Hridayaharini Kishorilal Goswami Ka Upanyas

चैप्टर 11 हृदयहारिणी किशोरी लाल गोस्वामी का उपन्यास | Chapter 11 Hridayaharini Kishorilal Goswami Ka Upanyas

Chapter 11 Hridayaharini Kishorilal Goswami Ka Upanyas

Chapter 11 Hridayaharini Kishorilal Goswami Ka Upanyas

ग्यारहवां परिच्छेद : नखसिख

“दृष्ट्या खञ्जनचातुरी मुखरुचा सौधाधरी माधुरी,

वाचा किञ्च सुधासमुद्रलहरीलावण्यमातन्यते।”

अपूर्व और विशुद्ध प्रेम स्वर्गीय सम्पत्ति है और वही इस जड़ जगत का एकमात्र जीवन या आधार है। इसकी महिमा का पार नहीं है, इसके रूप असंख्य हैं, इसके नाम अनन्त हैं और इसके गुण का भी अन्त नहीं है। इसी प्रेम के चित्र उतारने में आदि कवि वाल्मीकि ने रामायण बनाई, कविकुलगुरु कालिदास ने रघुवंश, कुमारसम्भव, मेघदूत और शकुन्तला की रचना की, भवभूति ने मालतीमाधव और भारवि ने किरातार्जुनीय को लिखडाला, किन्तु उस प्रणय का सर्वाङ्ग-सुन्दर चित्र किसीने क्या उतार डाला!!! यदि हां, तब तो अब दूसरे चित्र के उतारने के लिये परिश्रम करना झख मारना है; और यदि नहीं, तो फिर उस चित्र के उतारने की इच्छा करना भी मूढ़ता से खाली नहीं है। सोचिए तो पाठक! जब कि सरस्वती-वरगर्वित कविगण प्रेस के सर्वाङ्गसुन्दर चित्र अंकित करने में अपारग रहे, तो फिर हम जैसे मतिहीन जड़भरत इस विषय में कितना साहस कर सकते हैं! और भी देखिए,-कि जब प्रेम ही के चित्र उतारने में इतनी वाधा है तो फिर उस वस्तु का चित्र क्योंकर उतारा जा सकता है, जो प्रेमाधार या प्रेम का निदान है!!!

प्रयोजन यह कि उपन्यासों में नायक-नायिका के रूप का वर्णन करना भी एक आवश्यक बात मानी गई है, इसीके जंजाल में फंसकर आज हम अपनी सारी चौकड़ी भूल गए हैं और हैरान हैं कि इस आपदा से क्योंकर अपने तईं बचावें!!!

बात यह है कि आज षोड़शी देवी कुसुमकुमारी की रूपराशि का वर्णन हम किया चाहते हैं, और यही हमारे लिये घोर संकट का मानो सामना करना है!!! अब यदि पाठक! आप कवि हैं, तो बतलाइए कि हम किस भांति अद्वितीय सुन्दरी कुसुमकुमारी का चित्र उतारें? इसका उत्तर कदाचित आप यह देंगे कि,—”अजी! तो इस तुच्छ बात के लिये तुम कवि होकर इतना क्यों घबरा उठे! देखो, कुसुम की वर्णना क्या यों नहीं हो सकती कि,—

“चंद कैसो भाग-भाल, भृकुटी कमान कैसी,

मैन कैसे पैने सर, नैननि बिलास है।

नासिका सरोज, गंधबाह से सुगंधबाह,

दार्यों से दसन, कैसो बिजुरी सो हास है॥

संख कैसी ग्रीवा, भुज पान से उदर अस,

पंकज से पांय, गति हंस कैसी जास है।

देखी बर बाम, काम-बाम सी सरूपमान,

सोने सो सरीर, सब सोंधे की सी बास है॥”

और भी—

“कंज से चरन, देवगढ़ी से गुलुफ सुभ,

कदली से जंघकटि सिंह पहुंचत है।

नाभी है गंभीर, ब्याल रोमावली, कुच कुंभ,

भुज ग्रीव भाप कैसी ठोढ़ी बिलसत है॥

मुखचंद बिम्बाधर चौंका चारु सुकनास,

खंज मीन नैनन बंकाई अधिकत है।

भाल आधो बिधु भाग करन अमृत कूप,

बेनी पिकबैनी की सुभूमि परसत है॥”

किन्तु, पाठक! आपको धन्यवाद है! आपके इस उपदेश और दृष्टान्त के लिये आपको कोटि कोटि धन्यवाद है!!! आप हमको ‘कवि’ कहकर ताना न मारिए! क्योंकि यदि हम कवि होते तो फिर इतना रोना ही काहे का था! सो, हम न तो कवि हैं और न काव्यविशारद! तो क्या हैं? एक महानीरस, अल्हड़!!! इसलिये आपके नखसिख की क्या मजाल, जो कुसुम की परछाईं की भी परछाईं छू सके! इसीसे झींखते हैं कि आज कुसुम के रूप का बखान करने का हठ करके हमने अपने तई आप उल्झन में डाला!!!

तो अब हम क्या करैं! कुसुम की रूपराशि के चित्रित करने के लिये जब जब हम दुमुही लेखनी को पड़कते हैं, तब तब वह नागिन की तरह थिरककर हाथ से छूट कोसों दूर भागती और अपना मुंह चुराती है, तथा सारे उपमान भी अपनी जड़ता का आप ही आप अनुभव कर लजित हो, इधर उधर दुम दबाकर खसक जाते हैं; तो ऐसी अवस्था में अब हम करें तो क्या करें! हाय! क्यों ऐसी उल्झन में भी कभी मनुष्य उलझता है!!!

खैर, तो हार मानकर इस जंजाल से अपने तईं अब दर क्यों न करें! क्योंकि कुसुम की रूपराशि का बखान करना हमारी शक्ति से बाहर है। और क्यों न ऐसा हो, जब कि षोड़शी कुसुम की किशोर अवस्था में भी ऐसी स्थिरता और कोमलता है कि जो उसके सहज लावण्य की उपमा को कवि की प्रतिभा द्वारा क्या कभी उत्पन्न होने दे सकती है! अहा! जिस मनोहारिणी लावण्यमयी मूर्ति के एक बार दर्शन करने से,’आबालवृद्धवनिताः, सर्वेऽङ्ग पशुवृत्तयः,’ होजाते हैं, उस अनुपम मनोमोहिनी की असीमसुन्दरता के बखान करने का बीड़ा उठाकर हमने खूब ही अपयश लूटा!!!

यदि कोई चतुर चित्रकार उस चित्त के चंचल कर देनेवाली कुसुमकुमारी की अनुपम रूपराशि के चित्र उतारने के लिये हाथ उठाता तो निश्चय है कि उसे पहिले मूर्छा धर दबाती और उसका सारा सयानपन भूल जाता; फिर अन्त को उसे अपनी उस ढिठाई के लिये बहुत ही पछताना पड़ता और हार मान यों कहकर हाथ से कूची रखदेनी पड़ती कि,-‘देवी! तुझ सी तुही है!’

सोचने की बात है कि चंपा, चमेली, गुलाब और जपाकुसुम के रंग के समान पीले, सफ़ेद, गुलाबी, और लाल रंग के मेल से बना हुआ कुसुम के सुकुमार शरीर का सा अलौकिक रंग वह बापुरा चितेरा कहांसे लाता! फिर उस भाग्यवती के बिशाल भाल के लिखने के समय यदि उस (चितेरे) को कुसुमायुध की रंगस्थली का ध्यान आजाता तो वह अनाड़ी अनमना सा हो, रेखागणित के साध्यों की भांति न जाने क्या का क्या लिख मारता!!!

भला, लाख चतुराई ख़र्च करने पर भी क्या किसी चतुर चित्रकार का मजा हुआ हाथ, उस समय कांप कर बेहाथ न हो जाता, जब कि वह उस आदशेरमणी की अलकावली के दोनों हिस्सों को आगे से अर्धचंद्राकार धुमाकर कानों के ऊपर से बराबर लेजा कर के जूड़े के बांधने का मनसूबा बांधता!!!

भला, यह भी कभी संभव था कि चतुराई का दम भरनेवाला चतुरानन का चेला चितेरा प्रलयपर्यन्त सिर पटकते रहने पर भी कभी अमल मंदाकिनी की पीयूषधारा के उत्पत्तिस्थान से कुछ दूर हटकर भ्र शैवालरेखा के नीचे पलक पीजरे के भीतर मनोल्लास से खेलती हुई मतवाली मीन की जोड़ी का चित्र अंकित कर सकता!!!

और यह भी उससे कब बन सकता कि वह चितेरे का अचार, लड़ती हुई दो मछलियों के नीचे सुआ का चित्र लिखता, जो बिम्बफल के ऊपर बैठा हुआ कबूतर की पीठ पर केलि कर रहा हो, जिसके दोनों ओर दो मतवाली नागिनें मचल-मचल कर बार-बार चन्द्र-बिम्ब से अमृत चूस-चूस, विष का उद्गार उगल-उगल कर देखनेवालों के हिये में डस-डस लेती हों!!!

फिर यह कब होसकता था कि वह खिलाड़ी का दावा करनेवाला निरा अनाड़ी चितेरा, वहीं सुधासरोवर के तीर, सिंहासन पर पधराई हुई दो सालिग्राम की बटिया बना सकता, जिनकी काली प्रभा से लाल डोरे निकल रहे हों और वे किसी महाभावुक कवि-हदय के इस उद्गार के आदर्श हों कि,-

“अमी हलाहल मदभरे, सेत, स्याम, रतनार।

जियत, मरत, झुकि झुकि परत,जेहि चितवत इक बार।

कहने का तात्पर्य यह कि जिसे बिधाता ने आप ही आप रच-पच कर हाथ पैर धो, प्रणायाम करके अलौकिक उपादानों के मेल से अनुपम बनाया हो, कवि बापुरा उसके लिये क्योंकर अलौकिक उपमानों को पैदा कर सकता है!!!

निदान, कुसुमकुमारी, कुसुमकुमारी ही थी, वह वही थी, और यह अपनी उपमा आप ही थी।

लीजिए,पाठक! कविवर कालिदास के “मन्दः कवियशःप्रार्थी गमिष्याम्युपहास्यताम्”-इस कथनानुसार हमने अपनी हंसी आप ही कराई या नहीं!!! इसीसे कहते हैं कि बाबा! इस नखसिख के झमेले में पड़कर हमने भरपूर दुर्गति की पहुंनाई खाई!!! अस्तु, अलमतिविस्तरेण!!!

हेराम! डाल से छूटे तो पात में अंटके!!! अब उपाय! लीजिए, अब यह उपसर्ग लगा कि,-‘कुसुम के भ्रमर (नरेन्द्र) का तो नखसिख कहा ही नहीं, और कान कटाकर निकल भागने की पड़ गई!!!’ हरे! हरे!!! मनुष्य क्या कभी ऐसी आपत्ति के पाले भी पड़ता है!!! अच्छा, ठहरिए, पाठक! हमने अपने भागने के लिये काव्यवाटिका की खिड़की तो खोल ही रक्खी है, तो अब इतना ही कहकर हम नौ दो ग्यारह क्यों न हों कि,-

“अलौकिक कुसुम के लिये जैसे लोकातीत भ्रमर की आवश्यकता होती है, हमारे आख्यानरूपी उद्यान की शोभासंपत्ति कुसुम के अनुरूप ही विधाता ने उसके रसलम्पट भ्रमर को भी बनाया था, कि जिस जुगलजोड़ी की रूपमाधुरी पर मन ही मन मदन इतना जला कि वह सदा के लिये अंग खोकर अनङ्ग बन गया और अर्धाङ्ग गंवाकर रति की भी मानो सारी रत्ती उतर गई!!!”

बस,अब तो छुट्ठी मिलेगी न! ओ हो, राम राम करके इस जंजाल से छुटकारा मिला!!!

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