चैप्टर 11 अंतिम आकांक्षा सियारामशरण गुप्त का उपन्यास | Chapter 11 Antim Akanksha Siyaramsharan Gupt Ka Upanyas

चैप्टर 11 अंतिम आकांक्षा सियारामशरण गुप्त का उपन्यास | Chapter 11 Antim Akanksha Siyaramsharan Gupt Ka Upanyas

Chapter 11 Antim Akanksha Siyaramsharan Gupt Ka Upanyas

Chapter 11 Antim Akanksha Siyaramsharan Gupt Ka Upanyas

मुन्नी अपने घर गई। सुधारकों का कहना है, लड़की को अपने घर जाते समय रोना न चाहिए। इसमें अशुभ है । परन्तु जब मेरे उस आदेश के विरुद्ध मेरी छाती में अपना मुँह छिपा कर वह धीरे-धीरे रोने लगी, तब मैं भी भूल गया कि मैं यह कैसी दुर्बलता प्रकट कर रहा हूँ। वह बोली- रामलाल भैया का ख्याल रखना, मेरा इतना ही कहना है ।

मेरा मन विश्व व्यापी क्रन्दन कर उठा । इच्छा हुई, जोर से चिल्ला हूँ । यदि यह अशुभ है तो संसार में शुभ का अस्तित्व कहीं है ही नहीं ।

मुन्नी के जाते ही घर भर में सन्नाटा छा गया। जूठी पत्तलों पर केवल कौओं की काँव-काँव ही सुनाई देने लगी। अब जान पड़ा, इस सूनेपन के सामने बरातियों का वह कुत्सित संसर्ग भी कितना मधुर और भरा- पूरा था !

बीच-बीच में उस सूनेपन में अनुभव होने लगा कि बहुत दूर न जाने कहाँ से मुन्नी के रोने की ध्वनि आ रही है। रोते-रोते उसका गला बैठ गया है और वायु भी मानों उस विराट वेदना को वहन करने में असमर्थ है। इसी से वह उसका बहुत सूक्ष्म ही हम तक पहुँचा रही है। परन्तु यह सूक्ष्म जितना सूक्ष्म है, उतना ही बेधक भी है।

उसका यह क्रन्दन रोका किस तरह जाय? चौदह बरस तक लगातार वह इस घर में रही है। इसके अणु अणु और परमाणु परमाणु में उसने अपनी स्मृति को हिला मिलाकर एक कर दिया है। विधाता ने अपने हृदय की समस्त कोमलता के साथ पहले पहल उसे इसी की गोद में उतारा। और आज वह इसकी कोई नहीं ! इस घर पर अब उसका इतना ही अधिकार है कि दस पाँच बरस में इन पाहुनियों की भाँति कभी-कभी दो-चार दिन के लिए रह जाय। इस अधिकार के होने से न होना अच्छा।

दिन भर मेरी कल्पना लगातार मुन्नी के साथ ही घूमती फिरती रही । अब वह नदी पर पहुँच गई होगी। अब इसके आगे किसी अमराई के पास उसकी पालकी होगी। कुएँ का सुभीता देखकर कहारों ने पालकी उतार कर नीचे रख दी होगी और नाइन या किसी छोटे लड़के के द्वारा मुन्नी से पानी पीने, भोजन करने आदि के लिए पूछवाया जा रहा होगा। आज सब के सब उसके प्रति अत्यन्त मृदु व्यवहार कर रहे होंगे। बाजार से किसी गुलाम को खरीद कर घर ले जाते समय उसके मालिक में भी पहले पहल इसी तरह की कोमलता दिखाई देती होगी।

इस प्रकार जब मैं स्वयं ही व्याकुल हूँ तो माँ और दादा को किस तरह समझाऊँ ? सम्भव है, कोई बात कहकर मैं उनकी पीड़ा और बढ़ा दूँ। आज कोई कुछ खाना-पीना नहीं चाहता तो न खाने दो। एक दिन में ही कोई भूखों नहीं मर जाता।

परन्तु इस रामलाल को तो देखो। कहता है, मालिक के घर में हमारा क्या अपमान ? किन्तु उसी दिन से गाँव छोड़ कर न जानें कहाँ चला गया। बरात बिदा हो जाने के बाद तुरन्त ही क्या उसे यहाँ न आना चाहिए था। इस समय आकर वह माँ के पास घड़ी भर के लिए बैठ जाता तो उसकी बात मारी जाती !

दूसरे-तीसरे दिन वह दिखाई दिया। उस पर मुझे गुस्सा था। मैंने सोच रक्खा था, अब उसे बुलाऊँगा नहीं। देख तो लूँ अपनी लगी हुई रोटी छोड़ कर कब तक अपने आप दौड़ा नहीं आता। उस बात को याद करके अब मैं सोचता हूँ, उसे रोटी देने का कुछ-कुछ अभिमान निश्चय ही मेरे मन में था । यह दूसरी बात है कि मैं उसे कभी मुँह पर ला न सका होऊँ । कदाचित् यह इसीलिए कि रसना को भले-बुरे के स्वाद का ज्ञान है। स्थूल शरीर की भाँति कहीं हमारे मन को भी एक ऐसी ही रसना दे दी गई होती तो अनायास हम कितने ही दुर्विचारों के अखाद्य से बच जाते।

परन्तु उसे देख कर मेरे मन में दूसरा ही भाव उठा। यह कैसा आदमी है, जिसे अपने मान-अपमान का कुछ विचार ही नहीं बुलाये जाने के लिये दो-चार दिन तो प्रतीक्षा करता। मानों हम इसकी जगह कोई दूसरा आदमी तुरन्त ही भरती कर लेते। कम से कम मेरे विषय में तो इसे ऐसी धारणा न करनी चाहिए थी । क्यों न करनी चाहिए थी, इसका युक्ति-संगत कारण मेरे पास न था ।

मुझे ‘राम राम’ करके, बिना कुछ कहे सुने वह माँ के पास चला गया। किसी एक डाक्टर की नकल वह अक्सर किया करता था । उसी के ढंग से खड़ा होकर बोला-ओ, तुमको एक सौ बीस का बुखार है ! कड़ी दवा देना पड़ेगा ।

एक क्षण रुककर उसने दवा सोचने का सा ढंग दिखाया और कहने लगा- जब तक सो न जाओ, तब तक दो-दो घन्टे बाद सवा सेर मोहनभोग, डेढ़ सेर किसमिस और बादाम की ठंडाई-

माँ के मुख पर हँसी की रेखा देख कर वह भी हँस पड़ा। अब अपने सहज स्वर में कहने लगा- क्यों माँ, दवा की एक खुराक क्या कुछ बड़ी हो गई? परन्तु मुझे तो एक सौ तीस का बुखार है; मेरे लिए इससे कम किसी तरह ठीक न होगी ।

“क्यों नहीं, तू ऐसा ही खाने वाला तो है।”

“विश्वास नहीं है तो इसी समय खिला कर देख लो” – कहकर मानों पत्तल की प्रतीक्षा में उसी जगह बैठ गया । मुन्नी की बिदा के बाद आज पहली ही बार मैंने माँ के मुँह पर हँसी देखी।

मुझसे छिपा न था कि माँ की और स्वयं रामलाल की भी यह हँसी बनावटी है। किन्तु कभी-कभी इस बनावट की भी आवश्यकता पड़ती है । पानी में से निकाले गये मनुष्य कृत्रिम श्वास- संचार के उपाय से ही फिर से जीवित होते देखे गये हैं ।

सब काम पहले की ही भाँति चलने लगा ।

क्रमश: 

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