चैप्टर 10 सेवासदन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद

Chapter 10 Sevasadan Novel By Munshi Premchand

Chapter 10 Sevasadan Novel By Munshi Premchand

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दूसरे दिन सुमन नहाने न गई। सबेरे ही से अपनी एक रेशमी साड़ी की मरम्मत करने लगी।

दोपहर को सुभद्रा की एक महरी उसे लेने आई। सुमन ने मन में सोचा था, गाड़ी आवेगी। उसका जी छोटा हो गया। वही हुआ जिसका उसे भय था।

वह महरी के साथ सुभद्रा के घर गई और दो-तीन घंटे तक बैठी रही। उसका वहां से उठने को जी न चाहता था। उसने अपने मैके का रत्ती-रत्ती भर हाल कह सुनाया पर सुभद्रा अपनी ससुराल की ही बातें करती रही।

दोनों स्त्रियों में मेल-मिलाप बढ़ने लगा। सुभद्रा जब गंगा नहाने जाती, तो सुमन को साथ ले लेती। सुमन को भी नित्य एक बार सुभद्रा के घर गए बिना कल न पड़ती थी।

जैसे बालू पर तड़पती हुई मछली जलधारा में पहुंचकर किलोंले करने लगती है, उसी प्रकार सुमन भी सुभद्रा की स्नेहरूपी जलधारा में अपनी विपत्ति को भूलकर आमोद-प्रमोद में मग्न हो गई।

सुभद्रा कोई काम करती होती, तो सुमन स्वयं उसे करने लगती। कभी-कभी पंडित पद्मसिंह के लिए जलपान बना देती, कभी पान लगाकर भेज देती। इन कामों में उसे जरा भी आलस्य न होता था। उसकी दृष्टि में सुभद्रा-सी सुशीला स्त्री और पद्मसिंह सरीखे सज्जन मनुष्य संसार में और न थे।

एक बार सुभद्रा को ज्वर आने लगा। सुमन कभी उसके पास से न टलती। अपने घर एक क्षण के लिए जाती और कच्चा-पका खाना बनाकर फिर भाग आती, पर गजाधर उसकी इन बातों से जलता था। उसे सुमन पर विश्वास न था। वह उसे सुभद्रा के यहां जाने से रोकता था, पर सुमन उसका कहना न मानती थी।

फागुन के दिन थे। सुमन को यह चिंता हो रही थी कि होली के लिए कपड़ों का क्या प्रबन्ध करे? गजाधर को इधर एक महीने से सेठजी ने जवाब दे दिया था। उसे अब केवल पन्द्रह रुपयों का ही आधार था। वह एक तंजेब की साड़ी और रेशमी मलमल की जाकेट के लिए गजाधर से कई बार कह चुकी थी, पर गजाधर हूं-हां करके टाल जाता था। वह सोचती, यह पुराने कपड़े पहनकर सुभद्रा के घर होली खेलने कैसे जाऊंगी?

इसी बीच सुमन को अपनी माता के स्वर्गवास होने का शोक समाचार मिला। सुमन को इसका इतना शोक न हुआ, जितना होना चाहिए था, क्योंकि उसका हृदय अपनी माता की ओर से फट गया था। लेकिन होली के लिए नए और उत्तम वस्त्रों की चिंता से निवृत्त हो गई। उसने सुभद्रा से कहा– बहूजी, अब मैं अनाथ हो गई हूं। अब गहने-कपड़े की तरफ ताकने को जी नहीं चाहता। बहुत पहन चुकी। इस दुःख ने सिंगारपटार की अभिलाषा ही नहीं रहने दी। जी अधम है, शरीर से निकलता नहीं, लेकिन हृदय पर जो कुछ बीत रही है, वह मैं ही जानती हूं, अपनी सहचरियों से भी उसने ऐसी ही शोकपूर्ण बातें कीं। सब-की-सब उसकी मातृभक्ति की प्रशंसा करने लगीं।

एक दिन वह सुभद्रा के पास बैठी रामायण पढ़ रही थी कि पद्मसिंह प्रसन्नचित्त घर में आकर बोले– आज बाजी मार ली।

सुभद्रा ने उत्सुक होकर कहा– सच?

पद्मसिंह– अरे, क्या अब भी संदेह था?

सुभद्रा– अच्छा, तो लाइए मेरे रुपए दिलवाइए। वहां आपकी बाजी थी, यहां मेरी बाजी है।

पद्मसिंह– हां-हां, तुम्हारे रुपए मिलेंगे, जरा सब्र करो। मित्र लोग आग्रह कर रहे हैं कि धूमधाम से आनंदोत्सव किया जाए।

सुभद्रा– हां, कुछ-न-कुछ तो करना ही पड़ेगा और यह उचित भी है।

पद्मसिंह– मैंने प्रीतिभोज का प्रस्ताव किया, किंतु इसे कोई स्वीकार नहीं करता। लोग भोलीबाई का मुजरा कराने के लिए अनुरोध कर रहे हैं।

सुभद्रा– अच्छा, तो उन्हीं की मान लो, कौन हजारों का खर्च है। होली भी आ गई है, बस होली के दिन रखो। ‘एक पंथ दो काज’ हो जाएगा।

पद्मसिंह– खर्च की बात नहीं, सिद्धांत की बात है।

सुभद्रा– भला, अब की बार सिद्धांत के विरुद्ध ही सही।

पद्मसिंह– विट्ठलदास किसी तरह राजी नहीं होते। पीछे पड़ जाएंगे।

सुभद्रा– उन्हें बकने दो। संसार के सभी आदमी उनकी तरह थोड़े ही हो जाएंगे।

पंडित पद्मसिंह आज कई वर्षों के विफल उद्योग के बाद म्युनिसिपैलिटी के मेंबर बनने में सफल हुए थे, इसी के आनंदोत्सव की तैयारियां हो रही थीं। वे प्रतिभोज करना चाहते थे, किंतु मित्र लोग मुजरे पर जोर देते थे। यद्यपि वे स्वयं बड़े आचारवान मनुष्य थे, तथापि अपने सिद्धांतों पर स्थिर रहने का सामर्थ्य उनमें नहीं था। कुछ तो मुरौव्वत से, कुछ अपने सरल स्वभाव से और कुछ मित्रों की व्यंग्योक्ति के भय से वह अपने पक्ष पर अड़ न सकते थे। बाबू विट्ठलदास उनके परम मित्र थे। वह वेश्याओं के नाचगाने के कट्टर शत्रु थे। इस कुप्रथा को मिटाने के लिए उन्होंने एक सुधारक संस्था स्थापित की थी। पंडित पद्मसिंह उनके इने-गिने अनुयायियों में थे। पंडितजी इसीलिए विट्ठलदास से डरते थे। लेकिन सुभद्रा के बढ़ावा देने से उनका संकोच दूर हो गया।

वह अपने वेश्याभक्त मित्रों से सहमत हो गए। भोलीबाई का मुजरा होगा, यह बात निश्चित हो गई।

इसके चार दिन पीछे होली आई। उसी रात को पद्मसिंह की बैठक ने नृत्यशाला का रूप धारण किया। सुंदर रंगीन कालीनों पर मित्रवृंद बैठे हुए थे और भोलीबाई अपने समाजियों के साथ मध्य में बैठी हुई भाव बता-बताकर मधुर स्वर में गा रही थी। कमरा बिजली की दिव्य बत्तियों से ज्योतिर्मय हो रहा था। इत्र और गुलाब की सुगंध उड़ रही थी। हास-परिहास, आमोद-प्रमोद का बाजार गर्म था।

सुमन और सुभद्रा दोनों झरोखों में चिक की आड़ से यह जलसा देख रही थीं। सुभद्रा को भोली का गाना नीरस, फीका मालूम होता था। उसको आश्चर्य मालूम होता था कि लोग इतने एकाग्रचित्त होकर क्यों सुन रहे हैं? बहुत देर के बाद गीत के शब्द उसकी समझ में आए। शब्द अलंकारों से दब गए थे। सुमन अधिक रसज्ञ थी। वह गाने को समझती थी और ताल-स्वर का ज्ञान रखती थी। गीत कान में आते ही उसके स्मरण पट पर अंकित हो जाते थे। भोलीबाई ने गाया–

ऐसी होली में आग लगे,

पिया विदेश, मैं द्वारे ठाढ़ी, धीरज कैसे रहे?

ऐसी होली में आग लगे।

सुमन ने भी इस पद को धीरे-धीरे गुनगुनाकर गाया और अपनी सफलता पर मुग्ध हो गई। केवल गिटकिरी न भर सकी। लेकिन उसका सारा ध्यान गाने पर ही था। वह देखती कि सैकड़ों आंखें भोलीबाई की ओर लगी हुई हैं। उन नेत्रों में कितनी तृष्णा थी! कितनी विनम्रता, कितनी उत्सुकता! उनकी पुतलियां भोली के एक-एक इशारे पर एक-एक भाव पर नाचती थीं, चमकती थीं। जिस पर उसकी दृष्टि पड़ जाती थी, वह आनंद से गद्गद हो जाता और जिससे वह हंसकर दो-एक बातें कर लेती, उसे तो मानो कुबेर का धन मिल जाता था। उस भाग्यशाली पुरुष पर सारी सभा की सम्मान दृष्टि पड़ने लगती। उस सभा में एक-से-एक धनवान, एक-से-एक विद्वान, एक-से-एक रूपवान सज्जन उपस्थित थे, किंतु सब-के-सब इस वेश्या के हाव-भाव पर मिटे जाते थे। प्रत्येक मुख इच्छा और लालसा का चित्र बना हुआ था।

सुमन सोचने लगी, इस स्त्री में कौन-सा जादू है।

सौंदर्य? हां-हां, वह रूपवती है, इसमें संदेह नहीं। मगर मैं भी तो ऐसी बुरी नहीं हूं। वह सांवली है, मैं गोरी हूं। वह मोटी है, मैं दुबली हूं।

पंडितजी के कमरे में एक शीशा था। सुमन इस शीशे के सामने जाकर खड़ी हो गई और उसमें अपना रूप नख से शिख तक देखा। भोलीबाई के हृदयांकित चित्र से अपने एक-एक अंग की तुलना की। तब उसने सुभद्रा से कहा– बहूजी, एक बात पूछूं, बुरा न मानना। यह इंद्र की परी क्या मुझसे बहुत सुंदर है?

सुभद्रा ने उसकी ओर कौतुहल से देखा और मुस्कुराकर पूछा– यह क्यों पूछती हो?

सुमन ने शर्म से सिर झुकाकर कहा– कुछ नहीं, यों ही। बतलाओ?

सुभद्रा ने कहा– उसका सुख का शरीर है, इसलिए कोमल है, लेकिन रंग-रूप में वह तुम्हारे बराबर नहीं।

सुमन ने फिर सोचा, तो क्या उसके बनाव-सिंगार पर, गहने-कपड़े पर लोग इतने रीझे हुए हैं? मैं भी यदि वैसा बनाव-चुनाव करूँ, वैसे गहने-कपड़े पहनूं, तो मेरा रंग-रूप और न निखर जाएगा, मेरा यौवन और न चमक जाएगा? लेकिन कहां मिलेंगे?

क्या लोग उसके स्वर-लालित्य पर इतने मुग्ध हो रहे हैं? उसके गले में लोच नहीं, मेरी आवाज उससे अच्छी है। अगर कोई महीने-भर भी सिखा दे, तो मैं उससे अच्छा गाने लगूं। मैं भी वक्र नेत्रों से देख सकती हूं। मुझे भी लज्जा से आंखें नीची करके मुस्कुराना आता है।

सुमन बहुत देर तक वहाँ बैठी कार्य से कारण का अनुसंधान करती रही। अंत में वह इस परिणाम पर पहुंची कि वह स्वाधीन है, मेरे पैरों में बेड़ियां हैं। उसकी दुकान खुली है, इसलिए ग्राहकों की भीड़ है, मेरी दुकान बंद है, इसलिए कोई खड़ा नहीं होता। वह कुत्तों के भूकने की परवाह नहीं करती, मैं लोक-निंदा से डरती हूं। वह परदे के बाहर है, मैं परदे के अंदर हूं। वह डालियों पर स्वच्छंदता से चहकती है, मैं उसे पकड़े हुए हूं। इसी लज्जा ने, इसी उपहास के भय ने मुझे दूसरे की चेरी बना रखी है।

आधी रात बीत चुकी थी। सभा विसर्जित हुई। लोग अपने-अपने घर गए। सुमन भी अपने घर की ओर चली। चारों तरफ अंधकार छाया हुआ था। सुमन के हृदय में भी नैराश्य का कुछ ऐसा ही अंधकार था। वह घर तो जाती थी, पर बहुत धीरे-धीरे, जैसे घोड़ा (?) बम की तरफ जाता है। अभिमान जिस प्रकार नीचता से दूर भागता है, उसी प्रकार उसका हृदय उस घर से दूर भागता था।

गजाधर नियमानुसार नौ बजे घर आया। किवाड़ बंद थे। चकराया कि इस समय सुमन कहां गई? पड़ोस में एक विधवा दर्जिन रहती थी, जाकर उससे पूछा। मालूम हुआ कि सुभद्रा के घर किसी काम से गई है। कुंजी मिल गई, आकर किवाड़ खोले, खाना तैयार था। वह द्वार पर बैठकर सुमन की राह देखने लगा। जब दस बज गए तो उसने खाना परोसा, लेकिन क्रोध में कुछ खाया न गया। उसने सारी रसोई उठाकर बाहर फेंक दी और भीतर से किवाड़ बंद करके सो रहा। मन में यह निश्चय कर लिया कि आज कितना ही सिर पटके, किवाड़ न खोलूंगा, देखें कहां जाती है। किंतु उसे बहुत देर तक नींद न आई। जरा-सी आहट होती, तो डंडा लिए किवाड़ के पास आ जाता। उस समय यदि सुमन उसे मिल जाती, तो उसकी कुशल न थी। ग्यारह बजने के बाद निद्रा का देव उसे दबा बैठा।

सुमन जब अपने द्वार पर पहुंची, तो उसके कान में एक बजने की आवाज आई। वह आवाज उसकी नस-नस में गूंज उठी। वह अभी तक दस-ग्यारह के धोखे में थी। प्राण सूख गए। उसने किवाड़ की दरारों से झांका, ढिबरी जल रही थी, उसके धुएं से कोठरी भरी हुई थी और गजाधर हाथ में डंडा लिए चित्त पड़ा, जोर से खर्राटे ले रहा था। सुमन का हृदय कांप उठा, किवाड़ खटखटाने का साहस न हुआ।

पर इस समय जाऊं कहां? पद्मसिंह के घर का दरवाजा भी बंद हो गया होगा, कहार सो गए होंगे। बहुत चीखने-चिल्लाने पर किवाड़ तो खुल जाएंगे, लेकिन वकील साहब अपने मन में न जाने क्या समझें? नहीं, वहां जाना उचित नहीं, क्यों न यहीं बैठी रहूं, एक बज ही गया है, तीन-चार घंटे में सबेरा हो जाएगा। यह सोचकर वह बैठ गई, किंतु यह धड़का लगा हुआ था कि कोई मुझे इस तरह यहां बैठे देख ले, तो क्या हो? समझेगा कि चोर है, घात में बैठा है। सुमन वास्तव में अपने ही घर में चोर बनी हुई थी।

फागुन में रात को ठंडी हवा चलती है। सुमन की देह पर एक फटी हुई रेशमी कुरती थी। हवा तीर के समान उसकी हड्डियों में चुभी जाती थी। हाथ-पांव अकड़ रहे थे। उस पर नीचे नाली से ऐसी दुर्गंध उठ रही थी कि सांस लेना कठिन था। चारों ओर तिमिर मेघ छाया हुआ था, केवल भोलीबाई के कोठे पर से प्रकाश की रेखाएं अंधेरी गली की तरफ दया की स्नेहरहित दृष्टि से ताक रही थीं।

सुमन ने सोचा, मैं कैसी हतभागिनी हूं, एक वह स्त्रियां हैं, जो आराम से तकिए लगाए सो रही हैं, लौंडियां पैर दबाती हैं। एक मैं हूं कि यहां बैठी हुई अपने नसीब को रो रही हूं। मैं यह सब दुःख क्यों झेलती हूं? एक झोंपड़ी में टूटी खाट पर सोती हूं, रूखी रोटियां खाती हूं, नित्य घुड़कियां सुनती हूं, क्यों? मर्यादा-पालन के लिए ही न? लेकिन संसार मेरे इस मर्यादा-पालन को क्या समझता है? उसकी दृष्टि में इसका क्या मूल्य है? क्या यह मुझसे छिपा हुआ है? दशहरे के मेले में, मोहर्रम के मेले में, फूल बाग में, मंदिरों में, सभी जगह तो देख रही हूं। आज तक मैं समझती थी कि कुचरित्र लोग ही इन रमणियों पर जान देते हैं, किंतु आज मालूम हुआ कि उनकी पहुंच सुचरित्र और सदाचारशील पुरुषों में भी कम नहीं है। वकील साहब कितने सज्जन आदमी हैं, लेकिन आज वह भोलीबाई पर कैसे लट्टू हो रहे थे।

इस तरह सोचते हुए वह उठी कि किवाड़ खटखटाऊं, जो कुछ होना है, हो जाए। ऐसा कौन-सा सुख भोग रही हूं, जिसके लिए यह आपत्ति सहूं? यह मुझे कौन सोने का कौर खिला देते हैं, कौन फूलों की सेज पर सुला देते हैं? दिन-भर छाती फाड़कर काम करती हूं, तब एक रोटी खाती हूं। उस पर यह धौंस। लेकिन गजाधर के डंडे को देखते ही फिर छाती दहल गई। पशुबल ने मनुष्य को परास्त कर दिया।

अकस्मात् सुमन ने दो कांस्टेबलों को कंधे पर लट्ट रखे आते देखा। अंधकार में वह बहुत भयंकर दिख पड़ते थे। सुमन का रक्त सूख गया, कहीं छिपने की जगह न थी। सोचने लगी कि यदि यही बैठी रहूं, तो यह सब अवश्य ही कुछ पूछेंगे, तो क्या उत्तर दूंगी। वह झपटकर उठी और जोर से किवाड़ खटखटाया। चिल्लाकर बोली– दो घड़ी से चिल्ला रही हूं, सुनते ही नहीं।

गजाधर चौंका। पहली नींद पूरी हो चुकी थी। उठकर किवाड़ खोल दिए। सुमन की आवाज में कुछ भय था, कुछ घबराहट। कृत्रिम क्रोध के स्वर में कहा– वाह रे सोने वाले! घोड़े बेचकर सोए हो क्या? दो घड़ी से चिल्ला रही हूं, मिनकते ही नहीं, ठंड के मारे हाथ-पांव अकड़ गए।

गजाधर निःशंक होकर बोला– मुझसे उड़ो मत। बताओ, सारी रात कहां रहीं?

सुमन निर्भय होकर बोली– कैसी रात, नौ बजे सुभद्रादेवी के घर गईं। दावत थी, बुलावा आया था। दस बजे उनके यहां से लौट आई। दो घंटे से तुम्हारे द्वार पर खड़ी चिल्ला रही हूं। बारह बजे होंगे, तुम्हें अपनी नींद में कुछ सुध भी रहती है।

गजाधर– तुम दस बजे आई थीं?

सुमन ने दृढ़ता से कहा– हां-हां, दस बजे।

गजाधर– बिल्कुल झूठ। बारह का घंटा अपने कानों से सुनकर सोया हूं।

सुमन– सुना होगा, नींद में सिर-पैर की खबर नहीं रहती, ये घंटे गिनने बैठे थे।

गजाधर– अब ये धांधली न चलेगी। साफ-साफ बताओ, तुम अब तक कहां रहीं? मैं तुम्हारा रंग आजकल देख रहा हूं। अंधा नहीं हूं। मैंने भी त्रियाचरित्र पढ़ा है। ठीक-ठीक बता दो, नहीं तो आज जो कुछ होना है, हो जाएगा।

सुमन– एक बार तो कह दिया कि मैं दस-ग्यारह बजे यहां से आ गई। अगर तुम्हें विश्वास नहीं आता, न आवे। जो गहने गढ़ाते हो, मत गढ़ाना। रानी रूठेंगी, अपना सुहाग लेंगी। जब देखो, म्यान से तलवार बाहर ही रहती है, न जाने किस बिरते पर।

यह कहते-कहते सुमन चौंक गई। उसे ज्ञात हुआ कि मैं सीमा से बाहर हुई जाती हूँ। अभी द्वार पर बैठी हुई उसने जो-जो बातें सोची थीं और मन में जो बातें स्थिर की थी, वह सब उसे विस्मृति हो गईं। लोकाचार और हृदय में जमे हुए विचार हमारे जीवन में आकस्मिक परिवर्तन नहीं होने देते।

गजाधर सुमन की यह कठोर बातें सुनकर सन्नाटें में आ गया। यह पहला ही अवसर था कि सुमन यों उसके मुंह आई थी। क्रोधोन्मत्त होकर बोला– क्या तूं चाहती है कि जो कुछ तेरा जी चाहे, किया करे और मैं चूं न करूं? तू सारी रात न जाने कहां रही, अब जो पूछता हूं तो कहती है, मुझे तुम्हारी परवाह नहीं है, तुम मुझे क्या कर देते हो? मुझे मालूम हो गया कि शहर का पानी तुझे भी लगा, तूने भी अपनी सहेलियों का रंग पकड़ा। बस, अब मेरे साथ तेरा निबाह न होगा। कितना समझाता रहा कि इन चुड़ैलों के साथ न बैठ, मेले-ठेले मत जा, लेकिन तूने न सुना– न सुना। मुझे तू जब तक बता न देगी कि तू सारी रात कहां रही, तब तक मैं तुझे घर में बैठने न दूंगा। न बतावेगी, तो समझ ले कि आज से तू मेरी कोई नहीं। तेरा जहां जी चाहे जा, जो मन में आवे कर।

सुमन ने कातर भाव से कहा– वकील साहब के घर को छोड़कर मैं और कहीं नहीं गई; विश्वास न हो तो आप जाकर पूछ लो। वहीं चाहे जितनी देर हो। गाना हो रहा था, सुभद्रादेवी ने आने नहीं दिया।

गजाधर ने लांछनायुक्त शब्दों में कहा– अच्छा, तो अब वकील साहब से मन मिला है, यह कहो! फिर भला, मजूर की परवाह क्यों होने लगी?

इस लांछन ने सुमन के हृदय पर कुठाराघात का काम किया। झूठा इलजाम कभी नहीं सहा जाता। वह सरोष होकर बोली– कैसी बातें मुंह से निकालते हो? हक-नाहक एक भलेमानस को बदनाम करते हो! मुझे आज देर हो गई है। मुझे जो चाहो कहो, मारो, पीटो; वकील साहब को क्यों बीच में घसीटते हो? वह बेचारे तो जब तक मैं घर में रहती हूं, अंदर कदम नहीं रखते।

गजाधर– चल छोकरी, मुझे न चरा। ऐसे-ऐसे कितने भले आदमियों को देख चुका हूं। वह देवता हैं, उन्हीं के पास जा। यह झोंपड़ी तेरे रहने योग्य नहीं है। तेरे हौंसले बढ़ रहे हैं। अब तेरा गुजर यहां न होगा।

सुमन देखती थी कि बात बढ़ती जाती है। यदि उसकी बातें किसी तरह लौट सकतीं तो उन्हें लौटा लेती, किन्तु निकला हुआ तीर कहां लौटता है? सुमन रोने लगी और बोली– मेरी आंखें फूट जाएं, अगर मैंने उनकी तरफ ताका भी हो। मेरी जीभ गिर जाए, अगर मैंने उनसे एक बात की हो। जरा मन बहलाने सुभद्रा के पास चली जाती हूं। अब मना करते हो, न जाऊंगी।

मन में जब एक बार भ्रम प्रवेश हो जाता है, तो उसका निकलना कठिन हो जाता है। गजाधर ने समझा कि सुमन इस समय केवल मेरा क्रोध शांत करने के लिए यह नम्रता दिखा रही है। कटुतापूर्ण स्वर से बोला– नहीं, जाओगी क्यों नहीं? वहां ऊंची अटारी सैर को मिलेगी, पकवान खाने को मिलेंगे, फूलों की सेज पर सोओगी, नित्य राग-रंग की धूम रहेगी।

व्यंग्य और क्रोध में आग और तेल का संबंध है। व्यंग्य हृदय को इस प्रकार विदीर्ण कर देता है, जैसे छेनी बर्फ के टुकड़े को। सुमन क्रोध से विह्वल होकर बोली– अच्छा तो जबान संभालो, बहुत हो चुका। घंटे भर में मुंह में जो अनाप-शनाप आता है, बकते जाते हो। मैं तरह देती जाती हूँ, उसका यह फल है। मुझे कोई कुलटा समझ लिया है?

गजाधर– मैं तो ऐसा ही समझता हूं।

सुमन– तुम मुझे मिथ्या पाप लगाते हो, ईश्वर तुमसे समझेंगे।

गजाधर– चली जा मेरे घर से रांड़, कोसती है।

सुमन– हां, यों कहो कि मुझे रखना नहीं चाहते। मेरे सिर पाप क्यों लगाते हो? क्या तुम्हीं मेरे अन्नदाता हो? जहां मजूरी करूंगी, वहीं पेट पाल लूंगी।

गजाधर– जाती है कि खड़ी गालियां देती है?

सुमन जैसी सगर्वा स्त्री इस अपमान को सह न सकी। घर से निकालने की धमकी भयंकर इरादों को पूरा कर देती है।

सुमन बोली– अच्छा लो, जाती हूं।

यह कहकर उसने दरवाजे की तरफ एक कदम बढ़ाया, किंतु अभी उसने जाने का निश्चय नहीं किया था।

गजाधर एक मिनट तक कुछ सोचता रहा, फिर बोला– अपने गहने-कपड़े लेती जा, यहां कोई काम नहीं है।

इस वाक्य ने टिमटिमाते हुए आशारूपी दीपक को बुझा दिया। सुमन को विश्वास हो गया कि अब यह घर मुझसे छूटा। रोती हुई बोली– मैं लेकर क्या करूंगी?

सुमन ने संदूकची उठा ली और द्वार से निकल आई, अभी तक उसकी आस नहीं टूटी थी। वह समझती थी कि गजाधर अब भी मनाने आवेगा, इसलिए वह दरवाजे के सामने सड़क पर चुपचाप खड़ी रही। रोते-रोते आंचल भीग गया था। एकाएक गजाधर ने दोनों किवाड़ ज़ोर से बंद कर लिए। वह मानों सुमन की आशा का द्वार था, जो सदैव के लिए उसकी ओर बंद हो गया। सोचने लगी, कहां जाऊं? उसे अब ग्लानि और पश्चात्ताप के बदले गजाधर पर क्रोध आ रहा था। उसने अपनी समझ में ऐसा कोई काम नहीं किया था, जिसका ऐसा कठोर दंड मिलना चाहिए था। उसे घर आने में देर हो गई थी, इसके लिए दो-चार घुड़कियां बहुत थीं। यह निर्वासन उसे घोर अन्याय प्रतीत होता था।

उसने गजाधर को मनाने के लिए क्या नहीं किया? विनती की, खुशामद की, रोई, किंतु उसने सुमन का अपमान ही नहीं किया, उस पर मिथ्या दोषारोपण भी किया। इस समय यदि गजाधर मनाने भी आता, तो सुमन राजी न होती। उसने चलते-चलते कहा था, जाओ अब मुंह मत दिखाना। यह शब्द उसके कलेजे में चुभ गए थे। मैं ऐसी गई-बीती हूं कि अब मेरा मुंह भी देखना नहीं चाहते, तो फिर क्यों उन्हें मुंह दिखाऊं? क्या संसार में सब स्त्रियों के पति होते हैं? क्या अनाथाएं नहीं हैं? मैं भी अब अनाथा हूं।

वसंत के समीर और ग्रीष्म की लू में कितना अंतर है। एक सुखद और प्राणपोषक, दूसरी अग्निमय और विनाशिनी। प्रेम-वसंत-समीर है, द्वेष ग्रीष्म की लू। जिस पुष्प को वसंत-समीर महीनों खिलाती है, उसे लू का एक झोंका जलाकर राख कर देता है। सुमन के घर से थोड़ी दूर पर एक खाली बरामदा था। वहां जाकर उसने संदूकची सिरहाने रखी और लेट गई। तीन बज चुके थे। दो घंटे उसने यह सोचने में काटे कि कहां जाऊं। उसकी सहचरियों में हिरिया नाम की एक दुष्ट स्त्री थी, वहां आश्रय मिल सकता था, किंतु सुमन उधर नहीं गई।

आत्मसम्मान का कुछ अंश अभी बाकी था। अब वह एक प्रकार से स्वच्छंद थी और उन दुष्कामनाओं को पूर्ण कर सकती थी, जिनके लिए उसका मन बरसों से लालायित हो रहा था। अब उस सुखमय जीवन के मार्ग में बाधा न थी। लेकिन जिस प्रकार बालक किसी गाय या बकरी को दूर से देखकर प्रसन्न होता है, पर उसके निकट आते ही भय से मुंह छिपा लेता है, उसी प्रकार सुमन अभिलाषाओं के द्वार पर पहुंचकर भी प्रवेश न कर सकी। लज्जा, खेद, घृणा, अपमान ने मिलकर उसके पैरों में बेड़ी-सी डाल दी। उसने निश्चय किया कि सुभद्रा के घर चलूं, वही खाना पका दिया करूंगी, सेवा-टहल करूंगी और पड़ी रहूंगी। आगे ईश्वर मालिक है।

उसने संदूकची आंचल में छिपा ली और पंडित पद्मसिंह के घर आ पहुंची। मुवक्किल हाथ-मुंह धो रहे थे। कोई आसन बिछाए ध्यान करता था और सोचता था, कहीं मेरे गवाह न बिगड़ जाएं। कोई माला फेरता था, मगर उसके दानों से उन रुपयों का हिसाब लगा रहा था, जो आज उसे व्यंय करने पड़ेंगे। मेहतर रात की पूड़िया समेट रहा था। सुमन को भीतर जाते हुए कुछ संकोच हुआ, लेकिन जीतन कहार को आते देखकर वह शीघ्रता से अंदर चली गई। सुभद्रा ने आश्चर्य से पूछा– घर से इतने सबेरे कैसे चलीं?

सुमन ने कुंठित स्वर से कहा– घर से निकाल दी गई हूं।

सुभद्रा– अरे। यह किस बात पर।

सुमन– यही कि रात मुझे यहां से जाने में देर हो गई।

सुभद्रा– इस जरा-सी बात का इतना बतंगड़। देखो, मैं उन्हें बुलवाती हूं। विचित्र मनुष्य हैं।

सुमन– नहीं, नहीं, उन्हें न बुलाना, मैं रो धोकर हार गई। लेकिन उस निर्दयी को तनिक भी दया न आई। मेरा हाथ पकड़कर घर से निकाल दिया। उसे घमंड है कि मैं ही इसे पालता हूं। मैं उसका यह घमंड तोड़ दूंगी।

सुभद्रा– चलो, ऐसी बातें न करो। मैं उन्हें बुलवाती हूं।

सुमन– मैं अब उसका मुंह नहीं देखना चाहती।

सुभद्रा– तो क्या ऐसा बिगाड़ हो गया है?

सुमन– हां, अब ऐसा ही है। अब उससे मेरा कोई नाता नहीं।

सुभद्रा ने सोचा, अभी क्रोध में कुछ न सूझेगा, दो-एक रोज में शांत हो जाएगी। बोली– अच्छा मुंह-हाथ धो डालो, आँखें चढ़ी हुई हैं। मालूम होता है, रात-भर सोई नहीं हो। कुछ देर सो लो, फिर बातें होंगी।

सुमन– आराम से सोना ही लिखा होता, तो क्या ऐसे कुपात्र से पाला पड़ता। अब तो तुम्हारी शरण में आई हूं। शरण दोगी तो रहूंगी, नहीं कहीं मुंह में कालिख लगाकर डूब मरूंगी। मुझे एक कोने में थोड़ी-सी जगह दे दो, वहीं पड़ी रहूंगी, अपने से जो कुछ हो सकेगा, तुम्हारी सेवा-टहल कर दिया करूंगी।

जब पंडितजी भीतर आए, तो सुभद्रा ने सारी कथा उनसे कही। पंडितजी बड़ी चिंता में पड़े। अपरिचित स्त्री को उसके पति से पूछे बिना अपने घर में रखना अनुचित मालूम हुआ। निश्चित किया कि चलकर गजाधर को बुलवाऊं और समझाकर उसका क्रोध शांत कर दूं। इस स्त्री का यहां से चला जाना ही अच्छा है।

उन्होंने बाहर आकर तुरंत गजाधर के बुलाने को आदमी भेजा, लेकिन वह घर पर न मिला। कचहरी से आकर पंडितजी ने फिर गजाधर को बुलवाया, लेकिन फिर वही हाल हुआ।

उधर गजाधर को ज्योंही मालूम हुआ कि सुमन पद्मसिंह के घर गई है, उसका संदेह पूरा हो गया है। वह घूम-घूमकर शर्माजी को बदनाम करने लगा। पहले विट्ठलदास के पास गया। उन्होंने उसकी कथा को वेद-वाक्य समझा। यह देश का सेवक और सामाजिक अत्याचारों का शत्रु– उदारता और अनुदारता का विलक्षण संयोग था। उसके विश्वासी हृदय में सारे जगत के प्रति सहानुभूति थी, किंतु अपने वादी के प्रति लेशमात्र भी सहानुभूति न थी। वैमनस्य में अंधविश्वास की चेष्टा होती है। जब से पद्मसिंह ने मुजरे का प्रस्ताव किया था, विट्ठलदास को उनसे द्वेष हो गया था। वे यह समाचार सुनते ही फूले न समाए। शर्माजी के मित्र और सहयोगियों के पास जा-जाकर इसकी सूचना दे आए। लोगों को कहते, देखा आपने। मैं कहता न था कि यह जलसा अवश्य रंग लाएगा। एक ब्राह्मणी को उसके घर से निकालकर अपने घर में रख लिया। बेचारा पति चारों ओर से रोता फिरता है। यह है उच्च शिक्षा का आदर्श। मैं तो ब्राह्मणी को उनके यहां देखते ही भांप गया था कि दाल में कुछ काला है। लेकिन यह न समझता था कि अंदर-ही-अंदर यह खिचड़ी पक रही है।

आश्चर्य तो यह था कि जो लोग शर्माजी के स्वभाव से भली-भांति परिचित थे, उन्होंने भी इस पर विश्वास कर लिया।

दूसरे दिन प्रातःकाल जीतन किसी काम से बाहर गया। चारों तरफ यही चर्चा सुनी। दुकानदार पूछते थे, क्यों जीतन, नई मालकिन के क्या रंग-ढंग हैं? जीतन यह आलोचनापूर्ण बातें सुनकर घबराया हुआ घर आया और बोला– भैया, बहूजी ने जो गजाधर की दुलहिन को घर में ठहरा लिया है, इस पर बाजार में बड़ी बदनामी हो रही है। ऐसा मालूम होता है कि यह गजाधर से लड़कर आई है।

वकील साहब ने यह सुना तो सन्नाटे में आ गए। कचहरी जाने के लिए अचकन पहन रहे थे, एक हाथ आस्तीन में था, दूसरा बाहर। कपड़े पहनने की सुधि न रही। उन्हें जिस बात का भय था, वह हो ही गई। अब उन्हें गजाधर की लापरवाही का मर्म ज्ञात हुआ। मूर्तिवत खड़े सोचते रहे कि क्या करूं? इसके सिवा और कौन-सा उपाय है कि उसे घर से निकाल दूं। उस पर जो बीतनी हो बीते, मेरा क्या वश है? किसी तरह बदनामी से तो बचूं। सुभद्रा पर जी में झुंझलाए इसे क्या पड़ी थी कि उसे अपने घर में ठहराया? मुझसे पूछा तक नहीं। उसे तो घर में बैठे रहना है, दूसरों के सामने आंखें तो मेरी नीची होंगी। मगर यहां से निकाल दूंगा तो बेचारी जाएगी कहां? यहां तो उसका कोई ठिकाना नहीं मालूम होता। गजाधर अब उसे शायद अपने घर में न रखेगा। आज दूसरा दिन है, उसने खबर तक नहीं ली। इससे तो यह विदित होता है कि उसने उसे छोड़ने का निश्चय कर लिया है। दिल में मुझे दयाहीन और क्रूर समझेगी। लेकिन बदनामी से बचने का यही एकमात्र उपाय है। इसके सिवा और कुछ नहीं हो सकता। यह विवेचना करके वह जीतन से बोले– तुमने अब तक मुझसे क्यों न कहा?

जीतन– सरकार, मुझे आज ही तो मालूम हुआ है, नहीं तो जान लो भैया, मैं बिना कहे नहीं रहता।

शर्माजी– अच्छा, तो घर में जाओ और सुमन से कहो कि तुम्हारे यहां रहने से उनकी बदनामी हो रही है। जिस तरह बन पड़े, आज ही यहां से चली जाए। जरा आदमी की तरह बोलना, लाठी मत मारना। खूब समझाकर कहना कि उनका कोई वश नहीं है।

जीतन बहुत प्रसन्न हुआ। उसे सुमन से बड़ी चिढ़ थी, जो नौकरों को उन छोटे मनुष्यों से होती है, जो उनके स्वामी के मुंहलगे होते हैं। सुमन की चाल उसे अच्छी नहीं लगती थी। बुड्ढे लोग साधारण बनाव-श्रृंगार को भी संदेह की दृष्टि से देखते हैं। वह गंवार था। काले को काला कहता था, उजले को उजला; काले को उजला करने का ढंग उसे न आता था। यद्यपि शर्माजी ने समझा दिया था कि सावधानी से बातचीत करना, किंतु उसने जाते-ही-जाते सुमन का नाम लेकर जोर से पुकारा। सुमन शर्माजी के लिए पान लगा रही थी। जीतन की आवाज सुनकर चौंक पड़ी और कातर नेत्रों से उसकी ओर ताकने लगी।

जीतन ने कहा– ताकती क्या हो, वकील साहब का हुक्म है कि आज ही यहां से चली जाओ। सारे देश-भर में बदनाम कर दिया। तुमको लाज नहीं है, उनको तो नाम की लाज है। बांड़ा आप गए, चार हाथ की पगहिया भी लेते गए।

सुभद्रा के कान में भनक पड़ी, आकर बोली– क्या है जीतन, क्या कह रहे हो?

जीतन– कुछ नहीं, सरकार का हुक्म है कि यह अभी यहां से चली जाएं। देशभर में बदनामी हो रही है।

सुभद्रा– तुम जाकर जरा उन्हीं को यहां भेज दो।

सुमन की आँखों में आंसू भरे थे। खड़ी होकर बोली– नहीं बहूजी, उन्हें क्यों बुलाती हो? कोई किसी के घर में जबरदस्ती थोड़े ही रहता है। मैं अभी चली जाती हूं। अब इस चौखट के भीतर फिर पांव न रखूंगी।

विपत्ति में हमारी मनोवृत्तियां बड़ी प्रबल हो जाती हैं। उस समय बेमुरौवती घोर अन्याय प्रतीत होती है और सहानुभूति असीम कृपा। सुमन को शर्माजी से ऐसी आशा न थी। उस स्वाधीनता के साथ जो आपत्तिकाल में हृदय पर अधिकार पा जाती है, उसने शर्माजी को दुरात्मा, भीरु, दयाशून्य तथा नीच ठहराया। तुम आज अपनी बदनामी को डरते हो, तुमको इज्जत बड़ी प्यारी है। अभी कल तक एक वेश्या के साथ बैठे हुए फूले न समाते थे, उसके पैरों तले आंख बिछाते थे, तब इज्जत न जाती थी। आज तुम्हारी इज्जत में बट्टा लग गया है।

उसने सावधानी से संदूकची उठा ली और सुभद्रा को प्रणाम करके घर से चली गई।

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