चैप्टर 10 रूठी रानी मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

Chapter 10 Ruthi Rani Novel By Munshi Premchand

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रूठी रानी का सती होना

रानियां सती होने की तैयारियां करने लगीं। झाला रानी को उसके बेटे चन्द्रसेन ने सती होने से रोक लिया और कहा कि दो-चार दिन में सब सरदार आ जाएंगे, उनसे मेरी मदद का वादा कराके तब सती होना। झाला रानी ने चन्द्रसेन को, बावजूद उदयसिंह से छोटा होने के राव जी से कह-सुनकर उत्तराधिकारी बनवा दिया था। रानी हीरादेई ने भी समझाया कि चन्द्रसेन को इस तरह छोड़कर सती होने में बहुत नुकसान होगा। आखिर रानी सरूपदेई ठहर गईं, उस वक़्त सती न हुईं। दूसरी रानियां, खवासें, रखेलियां जो गिनती में इक्कीस थीं, राव जी की लाश के साथ जल मरीं।

राव जी के मरने की खबर बहुत जल्द सारे शहर में फैल गई। उनके बड़े-बड़े सरदार अपने सर मुंडवाकर जोधपुर में आने लगे। रानी सरूपदेई ने मृत्यु के पांचवें दिन सब सरदारों को इकट्ठा किया और उनसे कहा कि राव जी ने मेरे बेटे चन्द्रसेन को अपने हाथ से उत्तराधिकारी बनाया था। अब मैं आपके हाथों में यह फैसला छोड़कर सती होती हूं। सरदारों ने एक स्वर से कहा कि चन्द्रसेन हमारे राव हैं और हम उनके चाकर।

इस झमेले में और कई दिन की देर हो गई। रानी रोज सती होने की तैयारी करती मगर एक न एक ऐसा कारण पैदा हो जाता जिससे रुकना पड़ता। आखिर उसे गुस्सा आ गया, बेटे से झल्लाकर बोली– ‘‘तूने अपने राज के लिए मुझे राव जी के साथ जाने से रोक लिया और अभी तक तू अपने स्वार्थ की धुन में मेरे पीछे पड़ा हुआ है। मगर जिस राज के लिए तूने मेरा धर्म तोड़ा उस राज से तू या तेरी औलाद कोई फायदा न उठा सकेगी। यह शाप देकर रानी सरूपदेह ने चिता बनवाई और राव जी की पगड़ी के साथ सती हो गई।’’

दूसरी पगड़ी मृत्यु के तीसरे ही दिन कलेवा में पहुंची जहां कछवाही रानी और उमादेई कुमार राम के साथ रहती थीं। उस पगड़ी को देखते ही रूठीरानी ने उसी वक्त टेक छोड़ दी। उसका सारा घमण्ड दूर हो गया। रोकर कहने लगी– ‘‘अब किससे रूठूंगी, जिससे रूठती थी, वह तो अब न रहा तो जीकर क्या करूंगी। उसने मेरा मान रख लिया। उसने मेरा घमण्ड निबाह दिया। अब मैं किसके लिए जिऊं। मेरी चिता भी बनवाओ। मैं भी राव जी का साथ न छोड़ूंगी।’’ (१. जब कोई राजा मर जाता था तो नाजिर उसकी पगड़ी लेकर रनिवास में जाता था। सती होनेवाली उस पगड़ी को ले लेती थी। दूसरी रानियां भी उसी के साथ सती हो जाती थीं। जो रानी कहीं दूर होती थी, उसके पास एक पगड़ी रवाना कर दी जाती थी।)

इधर लाछलदेई भी सती होने की तैयारी करने लगी। मगर उसका बेटा राम अपने बाप के उत्तराधिकारी बनने की धुन में मां के सती होने तक न ठहरा। उदयपुर चल दिया। उसकी यह जल्दबाजी और बेअदबी मां को बहुत बुरी लगी। अफसोस के साथ हाथ मलकर बोली– ‘‘राम, तेरे लिए हमें जोधपुर छोड़कर यहां दिन काटने पड़े और तू हमें इस तरह छोड़कर भागा जाता है। जा, अगर तेरी जुबान में कुछ असर है तो मुझे कभी मारवाड़ में रहना नसीब न होगा। तू या तेरी औलाद भी मारवाड़ का राज न करेगी, हमेशा दूसरे मुल्क की खाक छानती फिरेगी।’’

चिता तैयार होते ही यह खबर दूर-दूर तक फैल गई कि रूठी रानी भी राव जी पगड़ी के साथ सती होती हैं। चार-चार, पांच-पांच कोस के लोग इस सती के दर्शन करने के लिए दौड़े। सब हाथ जोड़कर कहते थे– ‘‘सती माता ! तू धन्य है। सच्ची सती इस कलयुग में तू ही है। धन्य है तुझको और तेरे मां-बाप को, इस देश मारवाड़ को, जिसे तू सती होकर पवित्र कर रही है। लाछलदेई, तुझे भी धन्य है। तुम दोनों सतीत्व की देवियां हो, तुम्हें हमारा प्रणाम है।’’

चिता तैयार हो गई, बाजे बजने लगे, दोनों रानियां या दोनों देवियां घोड़ों पर सवार होकर बजारों से निकलीं। ठट के ठट लोग देखने को फटे पड़ते थे। रुपया, जेवर और जवाहरात लुटाए जा रहे थे। चिता पर पहुंच कर दोनों आमने-सामने बैठीं और पति की पगड़ी बीच में रख ली। आग देने वाला कोई न था। सब लोग खड़े देख रहे थे। मारे अदब के किसी के मुंह से आवाज भी नहीं निकली। रूठी रानी का चेहरा चांद-सा चमक रहा था। यकायक कुमार राम बेइज्जती का ख्याल आते ही सुर्ख हो गया। उसके धधकते हुए दिल से नाजुक जबान को झुलसाते हुए यह शब्द निकले– ‘‘मैं तो अपने पति से रूठकर आयी सो आयी पर कोई दूसरी स्त्री इस तरह सौत के बेटे का साथ कभी न दे।’’ लाछलदेई उसका यह तेज देखकर डरी कि कहीं मेरे बेटे को कोई कड़ा शाप न दे दे। खुद बीच में बोल उठीं ताकि रूठी रानी खामोश हो जाए– बाई जी, इस कपूत ने सगी मां का तो कुछ ख्याल ही न किया और क्या करता। वह जरा देर ठहर जाता तो हमें राव जी के साथ जाने में इतनी देर न होती। उसको रोकता कौन था, आग दे देता तो चला जाता।

पति का प्यारा नाम सुनकर उमादेई को जोश आ गया। पति की सच्ची मुहब्बत, सच्चा प्रेम उस पर छा गया। उस वक्त उसकी निगाह जिस पर पड़ती थी वह मतवाला हो जाता था। किसी ने खूब कहा है– 

नैन छके बैना छके छके अधर मुसकाय

छकी दृष्टि जा पर पड़े रोम रोम छक जाय।

यानी आंखें, बातें और मुस्कुराने वाले होंठ सब नशे में मस्त हैं और मस्त निगाहें जिस पर पड़ती हैं उसका रोआं-रोआं मस्त हो जाता है।

फिर रूठी रानी ने जरा सम्भल कर कहा– ‘‘देखो यहां कोई राठौर तो नहीं है?’’ संयोग से जीत मालवत नाम का एक कंगाल राठौर मिला। वह डरता-डरता आया और हाथ जोड़कर बोला– ‘‘सती माता, मुझ पर दया कीजिए, मैं तो भूख से तंग होकर मारवाड़ छोड़ आया हूं और मेवाड़ में मेहनत-मजदूरी करके पेट पालता हूं। मैं चिता को आग देने के काबिल नहीं हूं।’’

उमा देई ने कहा– ‘‘ठाकुर, डरो मत, स्नान करके चिता में आग दे दो। तुम राठौर वंश के हो इसलिए तुम्हें बुलाया है।’’

उसने फिर अर्ज की– ‘‘सती माता, आग तो मैं दूंगा पर मातमी फर्श बिछाकर बारह दिन कहां बैठूंगा। मेरा तो घर भी इतना बड़ा नहीं कि जोधपुर की रानी का दाह करके उसमें मातम कर सकूं। मैं पेड़ों के तले तारों की छांव में रात काटा करता हूं।’’

उमा देई ने यह सुनकर मुंशी को इशारा किया। उसने उसी दम राणा जी के नाम सतियों की तरफ से खत लिखा कि राम हमको बगैर सती किए चला गया है, अब यह कलेवा गांव उससे छीनकर जीत मालवत राठौर को दे दें। इस तरह सती ने दस हजार का गांव उस राठौर गरीब को दिला दिया।

जीत मालवत ने चिट्ठी हाथ में ली और फौरन नहा-धोकर चिता में आग दे दी। दम के दम में वहां राथ की एक ढेरी के सिवा कोई निशान बाकी न रहा। घड़ी-दो-घड़ी में हवा ने जर्रों को इधर-उधर बिखेरकर और भी किस्सा तमाम कर दिया।

ता सहर वह भी छोड़ी तूने ओ बादे सबा

यादगारे रौनके महफिल थी परवाने की खाक

मगर खाक न रही तो क्या, रूठी रानी का नाम अभी तक चला आता है। लोग अभी तक उसके नाम का अदब करते हैं। इस तरह शादी के सत्ताईस बरस बाद उमा देई का मान टूटा और मान के साथ जिन्दगी का प्याला भी टूट गया। उमा देई भट्टानी तुझे धन्य है ! जब तक तू जिन्दा रही, तूने अपनी आन निबाही और मरी तो भी आन के साथ मरी। तू विमान पर चढ़ जा फरिश्ते हाथों में फूल लिए तेरे इन्तजार में खड़े हैं कि तुझे देखें और फूलों की बरखा करें। ऐ पवित्र देवी, जा सतीत्व तुझ पर न्यौछावर होने को तैयार है और तेरा प्यारा पति जिसके नाम पर तूने जान दी, आंखें बिछाए तेरी प्रतीक्षा कर रहा है।

उमा देई भट्टानी के सती होने की खबर जब जोधपुर पहुंची तो लोग धन्य-धन्य करने लगे। कायम रहे वह भाटी वंश जिसमें ऐसी-ऐसी राजकुमारियां पैदा होती है, पति के रूठने पर भी जिनके सतीत्व की चादर पर कभी कोई धब्बा नहीं लगता, जिससे रूठती हैं, उसी के क़दमों पर अपना सिर निछावर कर देती हैं ! ऐसा रूठना कहीं किसी ने देखा है।

राव जी के देहान्त के बारहवें दिन जीत मालवत के लिए जोधपुर पगड़ी आयी। उसने सब क्रियाकर्म करके पगड़ी बांधी, फिर उदयपुर जाकर वह चिट्ठी राजा उदयसिंह को दी। उन्होंने चिट्ठी पढ़कर आदरपूर्वक उसे सिर पर रख लिया और कलेवा का पट्टा उसके नाम लिख दिया। उसने लौटकर उस गांव पर अपना कब्जा कर लिया। जहां रूठी रानी सती हुई थी, वहां एक पक्की छतरी बनवां दी थी, जिसका निशान आज तक मौजूद है। रूठी रानी की सिफारिश से जिस तरह जीत मालवत को कलेवा मिल गया उसी तरह उसकी बद्दुआ भी बेअसर न हुई। कुमार राम को जोधपुर की गद्दी पर बैठना नसीब न हुआ। उदयसिंह और अकबर के सम्मिलित प्रयत्न भी उसे वहां का राज दिलाने में नाकाम रहे। इसी नाकामी से वह कुछ दिनों देश निकालें की मुसीबतें झेलकर आखिरकार मर गया और अपने अरमान अपने साथ लेता गया। उसके पोते केशवदास को, जो अकबर और जहांगीर के तजकिरों में केशव मारू के नाम से मशहूर है, मालवा में एक छोटी-सी जागीर मिली थी जिसका नाम अमझेरा था। मगर सन् १८५७ ई. के गदर में वह भी जब्त हो गई।

झाली रानी सरूपदेई की बद्दुआ भी आखिरकार रंग लाई। उस वक्त तो चन्द्रसेन जोधपुर का राव हो गया मगर बाद को जब अकबर ने मालदेव के मरने की खबर पाकर मारवाड़ पर फौज़ें भेजीं तो कुमार राम, रायमल और उदयसिंह तीनों शाही फौज से आ मिले जिसका नतीजा यह हुआ कि संवत् १६२२ विक्रमी में चन्द्रसेन ने जोधपुर खाली कर दिया। अकबर ने उस मुल्क को सोलह बरस अपने हाथ में रखकर संवत् १६४० में उदयसिंह के हवाले कर दिया। उसकी सन्तानें अब तक जोधपुर पर राज करती हैं। चन्द्रसेन के पोते कर्मसेन को जहांगीर ने अजमेर के इलाके में भनाए का परगना दिया था। उसकी औलाद अब तक वहां है। इस तरह रूठी रानी की कहानी पूरी हुई। वह नहीं है मगर उसका नाम आज साढ़े तीन सौ साल गुजर जाने पर भी ज्यों का त्यों बना हुआ है।

मारवाड़ के कवीश्वरों ने उमा देई की तारीफ में जो कुछ लिखा है, वह इतना पुरअसर और पुरदर्द है कि उसे पढ़कर आज भी रोना आता है और दिल उमड़ आता है। अगर इस वक्त सती होने की रस्म नहीं है मगर उन कविताओं और गीतों को पढ़कर उस समय का करुण दृश्य आंखों के सामने आ जाता है। आसा जी चारण, जिसने एक दोहा पढ़कर उमा देई को हमेशा के लिए पति से अलग कर दिया था, उस वक्त एक मौजे में भारीली और बाघा के साथ रहता था। जब उसने रूठी रानी के सती होने की खबर पायी तो बोला-ऐ उमा देई, तुझे धन्य है। तूने कहा था आखिरी दम तक मेरा मान रह जाए तब तारीफ करना। जैसा तूने कहा था, कर दिखाया। तेरे साहस और तेरे स्वाभिमान को बार-बार धन्य है।

आसाजी ने उसी वक्त चौदह बंदों की एक कविता लिखी और इसकी नकलें सारे राजपूताने में भिजवायी क्योंकि उसने वादा किया था कि अगर मैं तुम्हारे बाद तक जिन्दा रहा तो तुम्हारे नाम को अमर बना जाऊंगा। बात के पक्के ने अपने वायदे को पूरा किया।

वह पद आज तक मारवाड़ के बच्चे-बच्चे की जुबान पर हैं और जब तक इन पदों को पढ़ने वाली बाकी रहेंगे, रूठी रानी का नाम रौशन रहेगा।

***समाप्त***

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