चैप्टर 10 प्रभावती सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 10 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

चैप्टर 10 प्रभावती सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 10 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

Chapter 10 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

Chapter 10 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

कुछ रत्न वहीं गंगा के किनारे एक पेड़ के नीचे यमुना ने गाड़ दिए थे। लुट जाने पर फिर सम्पन्न होने के विचार से। कुछ साथ लेकर चली थी। प्रयाग पहुँचकर सन्ध्या समय फिर ऐसा ही किया। कुछ ही रत्न खर्च के लिए ले लिए। एक पंडा के यहाँ ठहरी।

प्रभा के हृदय में तीव्र व्याकुलता थी। दिन-रात राजकुमार पर मन रखा रहता था। एकान्त में यमुना समझाकर शान्त कर देती थी।

प्रभा को पंडाजी के यहाँ छोड़कर यमुना राज-परिच्छेद, अस्त्र-शस्त्र तथा दो घोड़े खरीदने के लिए बाजार गई। एक नौकर प्रयाग में कर लिया था, वह साथ था। घूम-घूमकर घोड़ों का बाजार देखने लगी। इसी समय एक अनजाने आदमी को कुमार देव के जैसे घोड़े को लिए खड़ा देखा। चकित होकर इधर-उधर देखने लगी। कुछ दूर, राजकुमार की शिकार वाली पोशाक पहने महाराज शिवस्वरूप को खड़ा देखा। आश्चर्य बिलकुल नहीं, हर्ष अत्यधिक हुआ। कारण समझने में उसे देर न हुई। महाराज के बच जाने और दूसरी जगह विदेश में काम निकालने की बात सोचकर बड़ी खुश हुई। पहले महाराज को अपना नौकर भेजकर डरवाना चाहा, पर बात फैल जाने की शंका कर खुद चली। महाराज कभी अपनी पोशाक देखते थे, कभी गर्व के साथ आकाश। इसी आकाशदर्शन के समय यमुना ने खोदकर कहा, “क्या देखते हो?”

चौंककर महाराज एक चौक उछल गए। ऐसे घबराए, जैसे पकड़ लिए गए हों। उसी निगाह से देखा। फिर यमुना को पहचानकर वैसे ही खुश भी हुए। उँगली के इशारे बोलने को मना कर यमुना उन्हें एकान्त में ले गई। आने का कारण पूछा। महाराज ने भगने का किस्सा बयान कर प्रयाग में रिश्तेदार के यहाँ बचने के इरादे से आए हुए हैं, कहा। यमुना ने सोचा, इसी रूप में प्रभा के सामने पिछौड़ा खड़ा कर दूँ। सोचकर मुस्कुराई। फिर समय को देखकर अनुचित होगा, सोचकर आवाज में झिड़की देती हुई बोली, “तुम यहाँ शिकार की पोशाक बाजार में पहनकर आए हो। लोगों को समझते हुए देर भी न होगी कि तुम चोर हो?”

महाराज घबरा गए। “अरे भाई,” कहा, “हम तो रुआब में बचने के लिए आए थे।”

“लेकिन बच भी गए, तो कहाँ जाओगे?”

“अब तो तेरा ही सहारा है,” कहकर देखने लगे।

“अच्छा, तो घबराओ मत। राजकुमारी यहाँ हैं। हमारे साथ रहो, भोजन पकाया करना।”

महाराज खुश हो गए। यमुना ने घोड़ा बेचने को मना कर दिया। फिर उन्हें साथ लेकर दो अच्छे घोड़े और शस्त्र-परिच्छेद आदि, साधारण तथा राजसी, प्रभा के लिए कुछ तरह के, खरीद लिए। फिर उन्हें प्रभा के पास ले गई।

उनका हाल मालूम कर, उन्हें रखकर प्रभा मुस्कुरा दी।

पूछने पर, जैसा सिखलाया गया था, महाराज ने यमुना के पंडाजी को अपने पूरे परिचय के साथ अपने यजमान का अधूरा परिचय बतलाया और अपने रिश्तेदार को वैसा ही समझाकर, प्रभा के पास आ गए।

शाम को यमुना गाड़ी रकम उखाड़कर नौकर तथा पंडाजी को पारिश्रमिक, दान, पुरस्कार आदि देकर, तैयार हो गई। राजकुमार का घोड़ा और परिच्छदवर्म आदि प्रभा के लिए महाराज से खरीद लिया प्रभा ने वही पोशाक पहनी और उसी घोड़े पर सवार हुई। खरीदे हुए अनुरूप परिच्छद महाराज और यमुना ने पहने और अपने-अपने घोड़े पर सवार हुए। सुबह होते-होते एक साथ प्रस्थान किया।

एक जगह रात को स्वल्पमात्र आराम कर तेज घोड़े बढ़ाते हुए यमुना के इच्छित मार्ग से जा रहे थे। सबसे पीछे होकर, धीरे-धीरे घोड़ा बढ़ाते हुए बाई कलाई के पेंचदार पोल कंकण का मुँह खोलकर यमुना ने एक चिट्ठी निकाली और पढ़कर, उसी तरह रखकर फिर घोड़ा बढ़ाया। इधर-उधर देखती, कुछ समझने की कोशिश करती जा रही थी। दूर से कुआँ, पेड़ और परिस्थिति देखकर सवारों को वहीं रुकने के लिए आवाज दी। पास पहुँचकर प्रभा तथा महाराज से बोली, “ठिकाने पर पहुँचने से पहले महात्मा के दर्शन हुए, यह शुभ लच्छन हैं। हमें कुछ देर यहाँ ठहरकर चलना चाहिए।”

भाषा पर प्रभा मुस्कुराकर घोड़े की चाल धीमी करने लगी। महाराज गम्भीर होकर बोले, “तू ठीक कहती है। अब सब सिद्ध है।”

स्वामी धीरानन्द की धूनी करीब आ गई। सवारों ने घोड़ों को रोक दिया। उतर पड़े। यमुना ने अपने घोड़े की लगाम डाल से बाँधकर थामे खड़ी प्रभा के घोड़े की भी लगभग बाँध दी। महाराज भी निवृत्त होकर यमुना की बगल में हाथ जोड़कर खड़े भक्तिभाव से स्वामीजी को देखने लगे। स्वामीजी एकाएक यमुना को देख रहे थे। आवेश में जैसे उठकर खड़े हो गए। यमुना भी आवेश में थी। प्रणाम की याद न रही। प्रभा यमुना का अनुगमन करने के विचार से मौन, पक्ष्मल आँखें झुकाए खड़ी रही।

होश में आ यमुना बोली, “सखी, स्वामी को माथा टेककर परनाम करो और मन चाहे हुए वर की कामना करो।” उसी वक्त महाराज से कहा, “महाराज, इस भेष की महिमा है। आओ, हम लोग भी स्वामीजी को दंडवत करें-दुखिया हैं, महात्माजी की किरपा का सहारा है।” यमुना ने सिर टेककर प्रणाम किया। सिर में धूल लगी रह गई। महाराज दोनों हाथ फैलाकर पेट के बल लम्बे हो दंडवत् करने लगे।

फिर उठकर धूल झाड़ने लगे, देख-देखकर स्वामी मुस्कुराते रहे। तीनों धूनी के सामने बैठ गए।

रामसिंह कुछ दूर आगे बढ़कर आते हुए सवारों के निकल जाने की प्रतीक्षा करने लगा। पर बड़ी देर हो गई, वे न निकले। कई थे। स्वामी जी अकेले। शंका की कोई खास बात न होने पर भी, क्योंकि विरोधी शक्ति को प्रबल देखने पर स्वामीजी, स्वामीजी बने रहेंगे और उधर से उपद्रव की सम्भावना भी नहीं सोचकर रामसिंह से लौटे बिना रहा न गया। वे पत्र भी स्वामीजी को दिखाने थे यद्यपि उनमें अपने काम की कोई बात न थी।

प्रभा, यमुना और महाराज से कुछ परिचय पूछे बिना स्वामीजी लगातार भगवद्धर्म और भागवत का व्याख्यान करते जा रहे थे। महाराज मुँह फुलाए स्वयं अवांगमनसोगोचरम् हो रहे थे; यमुना स्वामीजी की भगवद्धर्म व्याख्या की खाली जगह रहस्यमयी ‘हाँ’ द्वारा भर देती थी, प्रभा प्रसन्नचित्त पद्मासन से शान्त बैठी हुई सुन रही थी। इसी समय रामसिंह भी आ गया और एक तरफ घोड़ा बाँधकर, स्वामीजी को देखकर मुस्कुराते हुए-समझकर दंडवत् करके एक बगल में बैठ गया।

स्वामीजी की व्याख्या समाप्त हुई तब मौका देखकर बोला, “स्वामीजी मुझ पर बड़ी विपत्ति है। घर से ये चिट्ठियाँ आई हैं। आपके आशीर्वाद से मेरा दुःख दूर हो जाएगा। देखिए, मुझ पर बिना मेघ के ही वज्रपात हो गया है,” कहकर छीनी हुई चिट्ठियाँ बढ़ा दीं। मुहरें उसने तोड़ डाली थीं। लिखावट एक ही तरफ थी। सामने बैठे हुए न देख सकते थे। स्वामीजी चिट्ठी लेकर पढ़ने लगे। यमुना गौर से आगन्तुक को देखती रही। पढ़कर स्वामीजी ने समझ की दृष्टि से यमुना को देखा, फिर रामसिंह को चिट्ठियाँ देते हुए कहा, “हाँ, विपत्ति तुम पर बहुत है, फिर धैर्य रखो। वज्र नहीं गिरा सिर्फ बादल घिरे हैं, हवा से कट-छँट जाएँगे। हवा ईश्वर की कृपा से बहनेवाली है। मैं दिव्य दृष्टि से देख रहा हूँ।”

चिट्ठियों को फेंटे में रखकर रामसिंह ने प्रणाम किया। कहा, “महाराज, आज्ञा हो तो अब चलूँ।”

“अभी रुको,” संन्यासी बोले, “ये आगन्तुक जान पड़ते हैं। क्यों?”यमुना की ओर देखा।

“हाँ स्वामीजी, हम इस रास्ते से कभी नहीं आए,” उसी वक्त यमुना ने जवाब दिया।

“इन्हें पहले अच्छी जगह छोड़ दो। यह उपकार तुम्हारे लिए भी उपकार होगा।”

रामसिंह मतलब अच्छी तरह समझ न सका। बैठ गया। इसी बीच और इससे पहले और भी इक्के-दुक्के, पथिक, ग्रामीण, व्यापारी तथा सिपाही आए और दंडवत् करके चले गए थे।

प्रभा ने यमुना की तरफ देखा। यमुना ने बैठी रहने का संकेत किया। शाम हो रही थी। गो-धूलि को कुछ ही समय रह गया था। यमुना ने नेत्रपल्लवी द्वारा स्वामीजी से पूछा कि वह दूसरा मनुष्य यदि परिचित है तो नेत्रपल्लवी जानता है या नहीं। उसी तरह स्वामीजी ने उत्तर दिया कि नहीं जानता। यमुना ने फिर पूछा कि एकान्त में बातें करने की फुर्सत होगी या नहीं? उत्तर मिला, कुछ और ठहरो, चिन्ता न करो।

फिर स्वामीजी ने रामसिंह से कहा, “कष्ट तो होगा, पर सज्जन ही सज्जनों का उपकार करते हैं। साधु का दिया भोजन-पानी इनके लिए उचित नहीं जब तक इन्हीं के धन का प्रसाद न हो। इनसे दाम लेकर इस ओर तीन कोस पर बाजार है, मिष्ठान्न ले आओ।”

भोजन कुछ बँधा था। पर यमुना ने टोंका नहीं। दाम निकालकर दे दिया। रामसिंह घोड़े पर चढ़कर तरह-तरह के विचार लड़ाता हुआ चला गया।

क्रमश: 

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