चैप्टर 10 अंतिम आकांक्षा सियारामशरण गुप्त का उपन्यास | Chapter 10 Antim Akanksha Siyaramsharan Gupt Ka Upanyas
Chapter 10 Antim Akanksha Siyaramsharan Gupt Ka Upanyas
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सन्ध्या समय भोज था । गाँव के निमन्त्रित इष्टमित्र और फालतू खाते के दूसरे आदमी यथा समय आकर उपस्थित हो गये। परन्तु बार-बार बुलावे भेजे जाने पर भी बरातियों के आने के कोई लक्षण न दिखाई दिये । कुछ लोग गाँव के बाहर एकान्त कुएँ – बावड़ी पर भंग-ठंडाई छाननें चले गये थे और कुछ इधर-उधर किसी से मिलने-जुलने । समय की निष्ठा और बरातियों से क्या सम्बन्ध ? कचहरी की पुकार एवं अन्य ऐसे ही बहुत-से अवसरों पर हममें से बहुतों को दस की जगह आठ बजे ही प्रायः निरन्तर जाना पड़ता है। फिर सुयोग पाकर एक दिन के लिए भी समय की यह बेड़ी पैर फटकार कर दूर न फेंक दी जा सके, तो गुलामी का यह बोझ स्वच्छन्दता से ढोते रहने में मजा ही क्या? परन्तु घर के सब लोग बहुत परेशान थे। हमें जान पड़ रहा था कि हमारे भोज की सारी शोभा नष्ट कर देने पर ही बराती तुले हुए हैं। वे नहीं चाहते कि यथा समय उनका यथोचित सत्कार करके, उनके सामने ही हम किसी तरह भी अपना गौरव बढ़ा लें ।
बड़ी देर बाद बुलाने वाले सूखा मुँह लिए अकेले लौट आये। मालूम हुआ मामला बेढब है। वकील – मुख्तारों से काम नहीं चल सकता; वहाँ हम सबको असालतन हाजिर होना चाहिए।
उस समय जनवासे में गिने-चुने ही बराती थे। आपस में सबका हुक्का चल रहा था। दादा ने हाथ जोड़कर कहा – भोजन के लिए चलने की कृपा हो ।
बरात की युद्ध-समिति के सब सदस्यों की उपस्थिति पूरी करने के लिये, ‘इन्हें बुलाओ, उन्हें बुलाओ’ की धूम पड़ गई। जो उपस्थित थे, उनके रंग-ढंग से ऐसा जान पड़ा कि मामले का फैसला लिखा रक्खा है; सुनाने भर की देर है । हम लोग मुँह लटकाये हुए चुपचाप अभियुक्त की भाँति एक ओर बैठ गये ।
कुछ लोग आ पहुँचे। उनमें से एक ने कहा – लाला लालता सहाय नहीं आना चाहते; सिरे के रिश्तेदार हैं, उन्हें फिर से बुलवा लो।
तब तक लाल साहब स्वयं आ पहुँचे । खड़े-खड़े ही उन्होंने कहा – किसलिए यह तलवी हुई है? लो हम आ गये; सुना दिया जाय हुकुम ।
मैं समझता था, बरात में मुन्नी के ससुर ही हम सबसे बड़े हैं। अब मालूम हुआ कि मैं भूल पर था; उनके ऊपर भी कोई है। एक के ऊपर दूसरा, दूसरे के ऊपर तीसरा, यह क्रम लगातार बहुत दूर तक चला गया है। अब मुझे सन्तोष करना चाहिए कि वस्तुतः छोटा हममें कोई भी नहीं।
यह कैसी बात है कि जो हुक्म सुना सकता है, वही हुक्म सुना देने की प्रार्थना करे। ऐसे कलियुगी विपर्यव को आमने-सामने प्रत्यक्ष देखकर हमारे मालिक साहब घबरा उठे। उठकर उन्होंने लाला साहब को अपने स्थान पर बिठाया और स्वयं नीचे की ओर खिसक आये ।
लाला साहब ने कहा- तो सुन लो, भोजन के लिए हम न जायँगे । हमें तो साफ बात पसन्द है। हम चाहें तो हमारी मरजी के खिलाफ एक कुत्ता भी नहीं जा सकता। फिर भी हम किसी को रोकते नहीं; जिसे जाना हो खुशी से चला जाय, हम न जायँगे ।
कुसूर की बात पूछे जाने पर भड़क कर कहने लगे – अब कसूर मनाने आ गये, घर पर राजा साहब बन जाते हैं! पान-पत्ते और भले आदमियों की-सी दो बातें पूछना तो दरकिनार, खुद हमें अपने हाथों पैर धोते देख, हरिनाथ ने अपना मुँह दूसरी ओर फेर लिया। अपने हाथों हमारे पैर पखार देते तो इनकी नाक कट जाती !
मेरे ऊपर यह जो अभियोग लगाया गया था, उसके सम्बन्ध में मुझे कुछ भी स्मरण न था । लाला साहब कहते गये – ऐसे घमंडियों के यहाँ धूकने जाना भी पाप है। तुम्हें रुपये की गरमी है तो हमें भी कम नहीं। थानेदार साहब हों या तहसीलदार साहब, सबको हम खरी-खरी चुका देते हैं। गाँस-गुड़ी की बात हमें पसन्द नहीं। कोई नाराज हो जाय, बला से ।
पास ही बैठे हुए एक सज्जन ने उनकी बात सकारते हुए कहा- हाँ, लाला साहब में यह बात तो है; किसी से डरते बिलकुल नहीं। उस दिन गाँव में जब कलट्टर साहब आये, तब गाँव वाले एक कुएँ की मरम्मत करा देने की अर्जी दे रहे थे। बड़ा मनहूस हाकिम है, हमेशा हंटर लिये फिरता है। किसी की हिम्मत न पड़ी कि उससे दो बातें तो करे। आखिर लाला साहब ने उसके पैर पकड़ कर उसका रास्ता रोक ही तो लिया और जब तक अपनी दरखास्त मनवा न ली, तब तक उसे वहाँ से डिगने तक न दिया। ऐसा है इनका हठ !
लाल साहब के चेहरे पर मुसकान दिखाई दी । कहने लगे – उस दिन माते, मुखिया और पटवारी सबकी बोलती बन्द थी, अब सभी खुश हैं। खुश होने की बात ही है। पहले सबकी घरवालियों को कोख्स भर जाकर नदी से पानी लाना पड़ता था और अब घर में गंगाजी आ गई। परन्तु उस दिन का साथी कोई न था । बिगड़ कर कहीं कलट्टर साहब पैर फटकार देते तो मुँह हमारा टूटता, खुश होने के लिए सब हैं !
उस दिन की अपनी विजय गाथा से लाला सहब प्रसन्न हो उठे । दादा ने भी मेरी ओर से उनके पैर पकड़ कर उचित अवसर पर ही क्षमा याचना की । अतएव उनके दयालु होने में बहुत झंझट न हुई। फिर भी भोजन के लिए जब कोई उठता न दिखाई दिया, तब मालूम हुआ, मामला तय होने में अभी बहुत कसर है।
सब बराती एक दूसरे का मुँह ताकने लगे। जान पड़ा, मानों सबके सब दौरा जज हैं। उनका काम अभियुक्त के जीवन-मरण का निर्णय कर देने का है, सो वह पहले ही पूरा किया जा चुका। अब उस निर्णय को सुनाकर कार्य रूप देने की हत्या का काम किसी पेशेदार का है। उसी की खोज होने लगी।
अन्त में लाला लालता सहाय ने हमारी सहायता की। क्षमा दे चुकने के बाद वे हम लोगों के प्रति बहुत कुछ उदार हो गये थे। उन्होंने कहा – यह घिच – पिच ठीक नहीं। हम तो साफ बात पसन्द करते हैं। बेचारों के काम में हर्ज हो रहा है। जो कहना है, खुल कर क्यों नहीं कह देते? हाँ, सुन्दर, तुम कहो ।
सुन्दर ने उत्तर दिया- आप ही हम सबमें बड़े हैं। आपके सामने भला हम मुँह खोल सकते हैं?
“तो सुनो लाला, आपके यहाँ कोई रामलाल है? रमला, – हाँ वही, नौकर । उसी के बारे में एतराज है।”
“क्या एतराज है?”
“एतराज कुछ नहीं, धर्म की बात है। कुछ भी हो हमें धर्म का पालन करना चाहिए। देखो, ईसाई और मुसलमान नित्य नियम से अपने- अपने मन्दिर में जाकर भगवान् का नाम लेते हैं। इसी से जवन होकर भी वे हमारे मालिक हैं। यह झूठ है कि उस दिन रामलाल ने डाकू भगा दिये । यह सब लाला जानकीराम [मेरे दादा] के भजन का प्रताप है । अगर डाकू घर के भीतर घुस जाते तो वहीं के वहीं भसम हो जाते। रामलाल को हमने देखा है, एक मामूली छोकड़ा है। उसके पीछे हम अपना धर्म छोड़ दें, यह नहीं हो सकता । – घबराओ मत, हम अभी सब कहे देते हैं। वेद में लिखी बात के विरुद्ध हमें नहीं जाना चाहिए। वेद तो आर्या तक मानते हैं। जर्मन वाले भी वेद को ही लेकर चलते हैं। वह तो उनसे वेद-पाठ में कुछ गलती हो गई, इसी से वे लड़ाई हार गये; नहीं तो क्या कोई उनका सामना कर सकता था? तो हाँ रामलाल के लिए हम वेद की बात नहीं उलट सकते। हम जानते हैं, रामलाल की नियत बुरी न थी । आदमी की हत्या उससे अनजान में ही हो गई। फिर भी-
एक दूसरे सज्जन बीच में ही बोल उठे – ताजीरात की १४४ वीं दफा में लिखा है कि हर मामले में मुलजिम की नियत देख कर फैसला करना चाहिये।
लाला सहाय ने क्रुद्ध होकर कहा-ताजीरात की पोथी हमारे यहाँ भी रक्खी है। उसकी बात तो हम कर ही रहे थे। नहीं मानते तो हम चुप हुए जाते हैं, तुम बोलो।
उन सज्जन के चुप हो जाने और फिर से अनुरोध किये जाने पर लालता सहाय कहने लगे- तो सुनो, रामलाल से जो आदमी मर गया, उसके गले में जनेऊ था। अब ब्रह्म हत्या का पाप उसे लगा या नहीं? उसे गंगाजी जाकर प्रायश्चित करना चाहिये। इसलिए घर जाकर सबसे पहले उसे हटा दो, तभी हम भोजन में शामिल हो सकेंगे। बस, इतनी ही बात है।
हमारी ओर से बरात वालों की वचन देना ही पड़ा कि आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। इस बात के लिए अड़ पकड़ने का कोई कारण भी न था। रामलाल न हमारी जाति का, न कोई सगा सम्बन्धी । एक मामूली नौकर को लेकर इतनी खींचतान करने की क्या आवश्यकता थी? बरात वालों की इस बेवकूफी को लेकर गाँव वालों को अपना जी ठंडा करने का एक अच्छा मौका मिल गया। सिरे के सम्बन्धी हैं, इसीलिए झुकना पड़ता है; नहीं तो हैं सबके सब पूरे गँवार !
क्रोध से मेरा माथा फटने लगा। जी में आया, रामलाल को बुलाकर कह दूँ – बागी होकर बन्दूक उठा ले; फिर देखें, तुझे यहाँ से कौन हटाता है।
परन्तु रामलाल शान्त था । उसने मेरे पास आकर कहा- भैया, मेरे लिए अपना जी क्यों खराब करते हो? मैं तो चाकर हूँ, कहीं दूसरी जगह काम पर भेज देते तो यह खटपट न होती। श्याम काका कहते हैं, ‘यहाँ बने रहो, बस बरातियों को मालूम न हो कि तुम हटाये नहीं गये । खुले में होने से ही किसी बात में दोष माना जाता है; वैसे परदे के भीतर तो न जानें क्या क्या होता है।’ परन्तु मेरे लिए यह जालसाजी करने की क्या जरूरत । मैं जा रहा हूँ। हाँ, बिन्नी को यहीं बुला दो; उसके पैर छूता जाऊँ । अब घर के भीतर मेरा जाना ठीक नहीं।
उसकी सहनशीलता देखकर मेरी आँखों में आँसू आ गये। मैंने कहा— हम नालायकों के बीच में तू न आता तो तुझे यह अपमान न सहना पड़ता ।
फीकी हँसी हँसकर संकोच के साथ उसने कहा- आप लोग मालिक हैं; आपके यहाँ किसी बात में हमारा क्या अपमान ?
विवाह के वस्त्रालंकारों से झुकी हुई मुन्नी आकर खड़ी हो गई। रामलाल के इस अपमान की वेदना उसके मुँह पर स्पष्ट अंकित थी । वह रो नहीं रही थी, यही बहुत था। दो रुपये अपनी जेब से निकाल कर रामलाल आगे बढ़ा। मुन्नी के पैर छूकर उसने कहा- बिन्नी, छुटपन से मैंने तुझे गोद में खिलाया है। सोचा था, तुझे अपने घर के लिए बिदा करते समय तेरे पैर पखारने का पुण्य भी मुझे मिलेगा। परन्तु मेरा सुकृत इतना नहीं। कई महीनों में बचा बचाकर मैंने ये रुपये जोड़े हैं। ले ले बिन्नी इनकार न कर।
मुन्नी जोर से रो पड़ी। मुझसे बोली- रामलाल भैया को रोक लो । इनका यह अपमान मुझसे देखा नहीं जाता।
मैंने कहा- जाने दे बहिन, इसे जाने दे । इस जगह बने रहने में ही इसका अपमान है। रुपये ले ले। इन रुपयों से बड़ी भेंट हममें से कोई तुझे नहीं दे सकता।
फिर से मुन्नी के पैर छूकर ऊपर की ओर हाथ करके मन-ही-मन उसने कुछ प्रार्थना-सी की और झट से मुँह फेर कर वह वहाँ से निकल गया।
क्रमश:
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