Chapter 1 Rebecca Novel In Hindi
अतीत की स्मृतियाँ आज मेरी आँखों के सामने एक-एक करके नाच रहे हैं और समय की दूरी को एक पुल की भांति पाटे दे रही है। अपना उस समय का रूप मैं साफ-साफ देख रही हूँ। कटे हुए सीधे बाल, बिना पाउडर लगे मुख पर यौवन की झलक, ढीले-ढाले कोट के नीचे घाघरा और अपने हाथ का बना हुआ जंपर – इस वेशभूषा में मैं घबराई बछेरी जैसे श्रीमती वॉन हॉपर के पीछे-पीछे फिरती थी। दोपहर के खाने के समय वह मेरे आगे आगे चलती थीं – ऊँची एड़ी के जूते पर डगमगाता हुआ नाटा शरीर, भारी भरकम वक्ष स्थल और खिलते हुए फूलों से मेल खाती हुई घूमवाली झालरदार ब्लाउज और सिर पर एक बहुत बड़े पर से विभूषित नया टोप, जिसे वह इतना तिरछा करके रखती थी कि उनके सिर के एक ओर का हिस्सा वैसा ही नंगा दिखाई देता था, जैसे स्कूल जाने वाले लड़कों के घुटने दिखाई देते हैं। उनके एक हाथ में बहुत बड़ा बैग लटकता रहता था, जिसने पासपोर्ट, डायरी, ब्रिज के गणना पत्र आदि रहते थे और दूसरे हाथ में वह अपनी दूरबीनी ऐनक के साथ खिलवाड़ करती रहती थी।
श्रीमती हॉपर रेस्त्रां के कोने में खिड़की के पास वाली मेज़ पर बैठा करती थीं। अपनी ऐनक को अपनी छोटी-छोटी आँखों के पास ले जाकर वह बड़े ध्यान से दायें-बायें देखती थी और अंत में उसे ऐनक को काले रिबन में लटकता छोड़कर वह एक निराशा की आह भर कर कहती थी – ‘हुंह, एक भी तो बड़ा आदमी नज़र नहीं आता। मैं मैनेजर से कहकर अपने बिल में कमी कराये बिना न रहूंगी। आखिर मैं यहाँ आती किसलिए हूँ! क्या इन बैरों को देखने के लिये? और तब अपनी तेज आवाज से, जो तेज हवा को चीरती हुई चली जाती, वह बैरे को अपने पास बुलाती।
आज मुझे याद आ रहा है मौंटो कार्लो के कोत-द-अजूर होटल का वह खाने का सजा हुआ बड़ा कमरा और याद आ रही हैं, उसमें बैठी श्रीमती वॉन हॉपर, जो जड़ाऊ छल्लों से अलंकृत अपनी मोटी-मोटी अंगुलियों से ऊपर तक भरी हुई पुलाव की रकाबी को कुरेदती जाती थी और बीच-बीच में अपनी तीखी दृष्टि मेरी प्लेट पर डाल देती थी कि कहीं मैंने कोई उनसे बढ़िया चीज को खाने को नहीं मंगा ली है। लेकिन उन्हें परेशान होने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी, क्योंकि बैरे आदमियों को भांपने में बड़े चतुर होते हैं और वहाँ के बैरे को भी यह समझने में देर नहीं लगी थी कि मैं श्रीमती हॉपर की कोई सहकारी हूँ और इसलिए वह मेरे सामने ठंडे गोश्त की वह प्लेट रख रहा था, जिसे ठीक से तैयार न होने के कारण किसी आदमी ने आधा घंटा पहले वापस कर दिया था। मुझे याद है कि एक बार ऐसी ही उपेक्षा का सामना मुझे तब करना पड़ा था, जब श्रीमती हार्पर के साथ मैं एक गाँव में गई थी और वहाँ की नौकरानी घंटी बजाने पर न तो मेरे पास आती थी, न मेरे जूते ही लाती थी।
हाँ, तो उस ठंडे गोश्त की प्लेट की याद भी ताजा है। गोश्त बिल्कुल सूखा और बेस्वाद था, लेकिन मुझ में इतना साहस कहाँ था, जो उसे लौटा देती। हम चुपचाप खाते रहे, क्योंकि श्रीमती हॉपर को एकाग्र चित्त होकर भोजन करना पसंद था। उनकी ठोड़ी पर से टपकती चटनी को देखकर मैंने यह भी अनुमान लगा लिया था कि उन्हें पुलाव बहुत स्वाद लग रहा है। इतने पर भी उस ठंडे भोजन के लिए मुझमें कोई रुचि नहीं जागी और जब मैंने श्रीमती हॉपर की ओर से दृष्टि हटाई, तो देखा कि हमारे पास वाली मेज़ जो पिछले तीन दिन से खाली पड़ी थी, फिर भरने वाली है और होटल का मैनेजर लंबा सलाम झुकाकर एक नये आगंतुक का स्वागत कर रहा है। ऐसे सलाम वह बड़े-बड़े खास व्यक्तियों को ही झुकाता था।
श्रीमती हॉपर ने कांटा नीचे रख दिया और अपनी ऐनक उठाकर आगंतुक को इस तरह घूरने लगी कि लज्जा से मेरा सिर झुक गया। लेकिन आने वाले को इस बात का पता भी नहीं था कि कोई उसे इतनी दिलचस्पी के साथ देख रहा है। वह भोजन की सूची पर नज़र दौड़ाता रहा।
तब श्रीमती हॉपर ने अपनी ऐनक को एक खटके के साथ बंद कर दिया। उनकी छोटी-छोटी आँखें उत्तेजना के मारे चमक रही थी। मेज़ के उस पार से मेरी तरफ झुकते हुए उन्होंने कुछ ऊँचे स्वर में कहा – “वह मैक्स द विंतर, मैंदरले के स्वामी। वह बीमार से दिखाई देते हैं। सुनते हैं कि अपनी मृत पत्नी को भुला नहीं पाते।”
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