चैप्टर 1 रंगभूमि मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास

Chapter 1 Rangbhoomi Novel By Munshi Premchand

Chapter 1 Rangbhoomi Novel By Munshi Premchand

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शहर अमीरों के रहने और क्रय-विक्रय का स्थान है. उसके बाहर की भूमि उनके मनोरंजन और विनोद की जगह है. उसके मध्य भाग में उनके लड़कों की पाठशालाएं और उनके मुकद़मेबाजी के अखाड़े होते हैं, जहाँ न्याय के बहाने गरीबों का गला घोंटा जाता है. शहर के आस-पास गरीबों की बस्तियाँ होती हैं. बनारस में पाँड़ेपुर ऐसी ही बस्ती है।.वहाँ न शहरी दीपकों की ज्योति पहुँचती है, न शहरी छिड़काव के छींटे, न शहरी जल-खेतों का प्रवाह. सड़क के किनारे छोटे-छोटे बनियों और हलवाइयों की दुकानें हैं, और उनके पीछे कई इक्केवाले, गाड़ीवान, ग्वाले और मजदूर रहते हैं. दो-चार घर बिगड़े सफेदपोशों के भी हैं, जिन्हें उनकी हीनावस्था ने शहर से निर्वासित कर दिया है. इन्हीं में एक गरीब और अंधा चमार रहता है, जिसे लोग ‘सूरदास’ कहते हैं. भारतवर्ष में अंधे आदमियों के लिए न नाम की ज़रूरत होती है, न काम की. ‘सूरदास’ उनका बना-बनाया नाम है, और भीख मांगना बना-बनाया काम है. उनके गुण और स्वभाव भी जगत्-प्रसिध्द हैं-गाने-बजाने में विशेष रुचि, हृदय में विशेष अनुराग, अध्यात्म और भक्ति में विशेष प्रेम, उनके स्वाभाविक लक्षण हैं. बाह्य दृष्टि बंद और अंतर्दृष्टि खुली हु.

सूरदास एक बहुत ही क्षीणकाय, दुर्बल और सरल व्यक्ति था. उसे दैव ने कदाचित् भीख मांगने ही के लिए बनाया था. वह नित्यप्रति लाठी टेकता हुआ पक्की सड़क पर आ बैठता और राहगीरों की जान की खैर मनाता, “दाता! भगवान् तुम्हारा कल्यान करें”  यही उसकी टेक थी, और इसी को वह बार-बार दुहराता था. कदाचित् वह इसे लोगों की दया-प्रेरणा का मंत्र समझता था. पैदल चलने वालों को वह अपनी जगह पर बैठे-बैठे दुआयें देता था. लेकिन जब कोई इक्का आ निकलता, तो वह उसके पीछे दौड़ने लगता, और बग्घियों के साथ तो उसके पैरों में पर लग जाते थे. किंतु हवा-गाड़ियों को वह अपनी शुभेच्छाओं से परे समझता था. अनुभव ने उसे शिक्षा दी थी कि हवागाड़ियाँ किसी की बातें नहीं सुनतीं. प्रात:काल से संध्या तक उसका समय शुभ कामनाओं ही में कटता था. यहाँ तक कि माघ-पूस की बदली और वायु तथा जेठ-वैशाख की लू-लपट में भी उसे नागा न होता था.

कार्तिक का महीना था. वायु में सुखद शीतलता आ गई थी. संध्या हो चुकी थी. सूरदास अपनी जगह पर मूर्तिवत् बैठा हुआ किसी इक्के या बग्घी के आशाप्रद शब्द पर कान लगाए था. सड़क के दोनों ओर पेड़ लगे हुए थे. गाड़ीवानों ने उनके नीचे गाड़ियाँ ढील दीं. उनके पछाईं बैल टाट के टुकड़ों पर खली और भूसा खाने लगे. गाड़ीवानों ने भी उपले जला दिए. कोई चादर पर आटा गूंधता था, कोई गोल-गोल बाटियाँ बनाकर उपलों पर सेंकता था. किसी को बरतनों की ज़रूरत न थी. सालन के लिए घुइयें का भुरता काफ़ी था और इस दरिद्रता पर भी उन्हें कुछ चिंता नहीं थी, बैठे बाटियाँ सेंकते और गाते थे. बैलों के गले में बंधी हुई घंटियाँ मजीरों का काम दे रही थीं. गणेश गाड़ीवान ने सूरदास से पूछा – “क्यों भगत, ब्याह करोगे?”

सूरदास ने गर्दन हिलाकर कहा – “कहीं है डौल?”

गणेश – “हाँ, है क्यों नहीं? एक गाँव में एक सुरिया है, तुम्हारी ही जात-बिरादरी की है, कहो तो बातचीत पक्की करूं? तुम्हारी बरात में दो दिन मजे से बाटियाँ लगें.”

सूरदास – “कोई जगह बताते, जहाँ धन मिले, और इस भिखमंगी से पीछा छूटे. अभी अपने ही पेट की चिंता है, तब एक अंधी की और चिंता हो जाएगी. ऐसी बेड़ी पैर में नहीं डालता. बेड़ी ही है, तो सोने की तो हो.”

गणेश – “लाख रुपये की मेहरिया न पा जाओगे. रात को तुम्हारे पैर दबाएगी, सिर में तेल डालेगी, तो एक बार फिर जवान हो जाओगे. ये हड्डियाँ न दिखाई देंगी.”

सूरदास – “तो रोटियों का सहारा भी जाता रहेगा. ये हड्डियाँ देखकर ही तो लोगों को दया आ जाती है. मोटे आदमियों को भीख कौन देता है? उलटे और ताने मिलते हैं.”

गणेश – “अजी नहीं, वह तुम्हारी सेवा भी करेगी और तुम्हें भोजन भी देगी. बेचन साह के यहाँ तेलहन झाड़ेगी, तो चार आने रोज पाएगी.”

सूरदास – “तब तो और भी दुर्गति होगी. घरवाली की कमाई खाकर किसी को मुँह दिखाने लायक भी न रहूंगा.”

सहसा एक फिटन आती हुई सुनाई दी. सूरदास लाठी टेककर उठ खड़ा हुआ. यही उसकी कमाई का समय था. इसी समय शहर के रईस और महाजन हवा खाने आते थे. फिटन ज्यों ही सामने आई, सूरदास उसके पीछे ‘दाता! भगवान् तुम्हारा कल्याण करें’ कहता हुआ दौड़ा, फिटन में सामने की गद्दी पर मि. जॉन सेवक और उनकी पत्नी मिसेज जॉन सेवक बैठी हुई थीं. दूसरी गद्दी पर उनका जवान लड़का प्रभु सेवक और छोटी बहन सोफ़िया सेवक थी. जॉन सेवक दुहरे बदन के गोरे-चिट्टे आदमी थे. बुढ़ापे में भी चेहरा लाल था. सिर और दाढ़ी के बाल खिचड़ी हो गए थे. पहनावा अंगरेजी था, जो उन पर खूब खिलता था. मुख आकृति से गरूर और आत्मविश्वास झलकता था. मिसेज सेवक को काल-गति ने अधिक सताया था. चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गई थीं, और उससे हृदय की संकीर्णता टपकती थी, जिसे सुनहरी ऐनक भी न छिपा सकती थी. प्रभु सेवक की मसें भीग रही थीं, छरहरा डील, इकहरा बदन, निस्तेज मुख, आँखों पर ऐनक, चेहरे पर गंभीरता और विचार का गाढ़ा रंग नजर आता था. आँखों से करुणा की ज्योति-सी निकली पड़ती थी. वह प्रकृति-सौंदर्य का आनंद उठाता हुआ जान पड़ता था. मिस सोफ़िया बड़ी-बड़ी रसीली आँखों वाली, लज्जाशील युवती थी. देह अति कोमल, मानो पंचभूतों की जगह पुष्पों से उसकी सृष्टि हुई ह. रूप अति सौम्य, मानो लज्जा और विनय मूर्तिमान हो गए हो. सिर से पाँव तक चेतना ही चेतना थी, जड़ का कहीं आभास तक न था.

सूरदास फिटन के पीछे दौड़ता चला आता था. इतनी दूर तक और इतने वेग से कोई मंजा हुआ खिलाड़ी भी न दौड़ सकता था. मिसेज सेवक ने नाक सिकोड़कर कहा – “इस दुष्ट की चीख ने तो कान के परदे फाड़ डाले. क्या यह दौड़ता ही चला जाएगा?”

मि. जॉन सेवक बोले – “इस देश के सिर से यह बला न-जाने कब टलेगी? जिस देश में भीख मांगना लज्जा की बात न हो, यहाँ तक कि सर्वश्रेष्ठ जातियाँ भी जिसे अपनी जीवन-वृत्ति बना लें, जहाँ महात्माओं का एकमात्र यही आधार हो, उसके उध्दार में अभी शताब्दियों की देर है.”

प्रभु सेवक – “यहाँ यह प्रथा प्राचीन काल से चली आती है. वैदिक काल में राजाओं के लड़के भी गुरुकुलों में विद्या-लाभ करते समय भीख मांगकर अपना और अपने गुरु का पालन करते थे. ज्ञानियों और ऋषियों के लिए भी यह कोई अपमान की बात न थी, किंतु वे लोग माया-मोह से मुक्त रहकर ज्ञान-प्राप्ति के लिए दया का आश्रय लेते थे. उस प्रथा का अब अनुचित व्यवहार किया जा रहा है. मैंने यहाँ तक सुना है कि कितने ही ब्राह्मण, जो जमींदार हैं, घर से खाली हाथ मुकदमे लड़ने चलते हैं, दिन-भर कन्या के विवाह के बहाने या किसी संबंधी की मृत्यु का हीला करके भीख मांगते हैं, शाम को नाज बेचकर पैसे खड़े कर लेते हैं, पैसे जल्द रुपये बन जाते हैं, और अंत में कचहरी के कर्मचारियों और वकीलों की जेब में चले जाते हैं.”

मिसेज़ सेवक – “साईस, इस अंधे से कह दो, भाग जाए, पैसे नहीं हैं.”

सोफ़िया – “नहीं मम्मा, पैसे हों, तो दे दीजिए. बेचारा आधे मील से दौड़ा आ रहा है, निराश हो जाएगा. उसकी आत्मा को कितना दु:ख होगा.”

माँ – “तो उससे किसने दौड़ने को कहा था? उसके पैरों में दर्द होता होगा.”

सोफ़िया – “नहीं, अच्छी मम्मा, कुछ दे दीजिए, बेचारा कितना हाँफ रहा है. प्रभु सेवक ने जेब से केस निकाला; किंतु तांबे या निकिल का कोई टुकड़ा न निकला, और चाँदी का कोई सिक्का देने में माँ के नाराज होने का भय था. बहन से बोले – “सोफी, खेद है, पैसे नहीं निकले. साईस, अंधे से कह दो, धीरे-धीरे गोदाम तक चला आए; वहाँ शायद पैसे मिल जायें.”

किंतु सूरदास को इतना संतोष कहाँ? जानता था, गोदाम पर कोई भी मेरे लिए खड़ा न रहेगा; कहीं गाड़ी आगे बढ़ गई, तो इतनी मेहनत बेकार हो जाएगी. गाड़ी का पीछा न छोड़ा, पूरे एक मील तक दौड़ता चला गया. यहाँ तक कि गोदाम आ गया और फिटन रुकी. सब लोग उतर पड़े. सूरदास भी एक किनारे खड़ा हो गया, जैसे वृक्षों के बीच में ठूंठ खड़ा हो. हाँफते-हाँफते बेदम हो रहा था.

मि. जॉन सेवक ने यहाँ चमड़े की आढ़त खोल रखी थी. ताहिर अली नाम का एक व्यक्ति उसका गुमाश्ता था, बरामदे में बैठा हुआ था. साहब को देखते ही उसने उठकर सलाम किया.

जॉन सेवक ने पूछा – “कहिए खाँ साहब, चमड़े की आमदनी कैसी है?”

ताहिर – “हुज़ूर, अभी जैसी होनी चाहिए, वैसी तो नहीं है; मगर उम्मीद है कि आगे अच्छी होगी.”

जॉन सेवक – “कुछ दौड़-धूप कीजिए, एक जगह बैठे रहने से काम न चलेगा. आस-पास के देहातों में चक्कर लगाया कीजिए. मेरा इरादा है कि म्युनिसिपैलिटी के चेयरमैन साहब से मिलकर यहाँ एक शराब और ताड़ी की दूकान खुलवा दूं. तब आस-पास के चमार यहाँ रोज आएंगे और आपको उनसे मेल-जोल करने का मौका मिलेगा. आजकल इन छोटी-छोटी चालों के बगैर काम नहीं चलता. मुझी को देखिए, ऐसा शायद ही कोई दिन जाता होगा, जिस दिन शहर के दो-चार धनी-मानी पुरुषों से मेरी मुलाकात न होती हो. दस हजार की भी एक पॉलिसी मिल गई, तो कई दिनों की दौड़-धूप ठिकाने लग जाती है.”

ताहिर – “हुज़ूर, मुझे ख़ुद फ़िक्र है. क्या जानता नहीं हूँ कि मालिक को चार पैसे का नफ़ा न होगा, तो वह यह काम करेगा ही क्यों? मगर हुज़ूर ने मेरी जो तनख्वाह मुकर्रर की है, उसमें गुज़ारा नहीं होता. बीस रुपये का तो गल्ला भी काफ़ी नहीं होता, और सब ज़रूरतें अलग. अभी आपसे कुछ कहने की हिम्म्त तो नहीं पड़ती; मगर आपसे न कहूं तो किससे कहूं?”

जॉन सेवक – “कुछ दिन काम कीजिए, तरक्की होगी न. कहाँ है आपका हिसाब-किताब लाइए, देखूं.”

यह कहते हुए जॉन सेवक बरामदे में एक टूटे हुए मोढ़े पर बैठ गए. मिसेज सेवक कुर्सी पर बैठीं. ताहिर अली ने हिसाब की बही सामने लाकर रख दी. साहब उसकी जाँच करने लग. दो-चार पन्ने उलट-पलटकर देखने के बाद नाक सिकोड़कर बोले – “अभी आपको हिसाब-किताब लिखने का सलीका नहीं है, उस पर आप कहते हैं, तरक्की कर दीजिए. हिसाब बिल्कुल आईना होना चाहिए; यहाँ तो कुछ पता नहीं चलता कि आपने कितना माल खरीदा, और कितना माल रवाना किया. खरीददार को प्रति खाता एक आना दस्तूरी मिलती है, वह कहीं दर्ज़ ही नहीं है!”

ताहिर – “क्या उसे भी दर्ज़ कर दूं?”

जॉन सेवक – “क्यों, वह मेरी आमदनी नहीं है?”

ताहिर – “मैंने तो समझा कि वह मेरा हक है.”

जॉन सेवक – “हरगिज़ नहीं, मैं आप पर गबन का मामला चला सकता हूँ. (त्योरियाँ बदलकर) मुलाज़िमों का हक है! ख़ूब! आपका हक तनख्वाह, इसके सिवा आपको कोई हक नहीं है.”

ताहिर – “हुज़ूर, अब आइंदा ऐसी ग़लती न होगी.”

जॉन सेवक – “अब तक आपने इस मद में जो रकम वसूल की है, वह आमदनी में दिखाइए. हिसाब-किताब के मामले में मैं ज़रा भी रिआयत नहीं करता.”

ताहिर – “हुज़ूर, बहुत छोटी रकम होगी.”

जॉन सेवक – “कुछ मुज़ायका नहीं, एक ही पाई सही; वह सब आपको भरनी पड़ेगी. अभी वह रकम छोटी है, कुछ दिनों में उसकी तादाद सैकड़ों तक पहुँच जाएगी. उस रकम से मैं यहाँ एक संडे-स्कूल खोलना चाहता हूँ. समझ गए? मेम साहब की यह बड़ी अभिलाषा है. अच्छा चलिए, वह जमीन कहाँ है, जिसका आपने ज़िक्र किया था?”

गोदाम के पीछे की ओर एक विस्तृत मैदान था. यहाँ आस-पास के जानवर चरने आया करते थे. जॉन सेवक यह जमीन लेकर यहाँ सिगरेट बनाने का एक कारखाना खोलना चाहते थे. प्रभु सेवक को इसी व्यवसाय की शिक्षा प्राप्त करने के लिए अमेरिका भेजा था. जॉन सेवक के साथ प्रभु सेवक और उनकी माता भी जमीन देखने चलीं. पिता और पुत्र ने मिलकर जमीन का विस्तार नापा. कहाँ कारखाना होगा, कहाँ गोदाम, कहाँ दफ्तर, कहाँ मैनेजर का बंगला, कहाँ श्रमजीवियों के कमरे, कहाँ कोयला रखने की जगह और कहाँ से पानी आएगा, इन विषयों पर दोनों आदमियों में देर तक बातें होती रहीं. अंत में मिस्टर सेवक ने ताहिर अली से पूछा – “यह किसकी जमीन है?”

ताहिर – “हुज़ूर, यह तो ठीक नहीं मालूम, अभी चलकर यहाँ किसी से पूछ लूंगा, शायद नायकराम पंडा की हो.”

साहब – “आप उससे यह जमीन कितने में दिला सकते हैं?”

ताहिर – “मुझे तो इसमें भी शक है कि वह इसे बेचेगा भी.”

जॉन सेवक – “अजी, बेचेगा उसका बाप, उसकी क्या हस्ती है? रुपये के सत्तारह आने दीजिए, और आसमान के तारे मंगवा लीजिए. आप उसे मेरे पास भेज दीजिए, मैं उससे बातें कर लूंगा.”

प्रभु सेवक – “मुझे तो भय है कि यहाँ कच्चा माल मिलने में कठिनाई होगी. इधर लोग तम्बाकू की खेती कम करते हैं.”

जॉन सेवक – “कच्चा माल पैदा करना तुम्हारा काम होगा. किसान को ऊख या जौ-गेहूँ से कोई प्रेम नहीं होता. वह जिस जिन्स के पैदा करने में अपना लाभ देखेगा वही पैदा करेगा. इसकी कोई चिंता नहीं है. खाँ साहब, आप उस पण्डे को मेरे पास कल जरूर भेज दीजिएगा.”

ताहिर – “बहुत ख़ूब, उसे कहूंगा.”

जान सेवक – “कहूंगा नहीं, उसे भेज दीजिएगा. अगर आपसे इतना भी न हो सका, तो मैं समझूंगा, आपको सौदा पटाने का ज़रा भी ज्ञान नहीं.”

मिसेज सेव (अंगरेजी में) – “तुम्हें इस जगह पर कोई अनुभवी आदमी रखना चाहिए था.”

जान सेवक (अंगरेजी में) – “नहीं, मैं अनुभवी आदमियों से डरता हूँ. वे अपने अनुभव से अपना फ़ायदा सोचते हैं, तुम्हें फ़ायदा नहीं पहुँचाते. मैं ऐसे आदमियों से कोसों दूर रहता हूँ.”

ये बातें करते हुए तीनों आदमी फिटन के पास गए. पीछे-पीछे ताहिर अली भी थे. यहाँ सोफ़िया खड़ी सूरदास से बातें कर रही थी. प्रभु सेवक को देखते ही बोली – “प्रभु, यह अंधा तो कोई ज्ञानी पुरुष जान पड़ता है, पूरा फिलासफ़र है.”

मिसेज़ सेवक – “तू जहाँ जाती है, वहीं तुझे कोई-न-कोई ज्ञानी आदमी मिल जाता है. क्यों रे अंधे, तू भीख क्यों मांगता है? कोई काम क्यों नहीं करता?”

सोफ़िया (अंगरेजी में)  – “मम्मा, यह अंधा निरा गंवार नहीं है.”

सूरदास को सोफ़िया से सम्मान पाने के बाद ये अपमानपूर्ण शब्द बहुत बुरे मालूम हुए. अपना आदर करने वाले के सामने अपना अपमान कई गुना असह्य हो जाता है. सिर उठाकर बोला – “भगवान ने जन्म दिया है, भगवान की चाकरी करता हूँ. किसी दूसरे की ताबेदारी नहीं हो सकती.”

मिसेज़ सेवक – “तेरे भगवान् ने तुझे अंधा क्यों बना दिया? इसलिए कि तू भीख मांगता फिरे? तेरा भगवान् बड़ा अन्यायी है.”

सोफ़िया (अंगरेजी में) – “मम्मा, आप इसका अनादर क्यों कर रही हैं कि मुझे शर्म आती है.”

सूरदास – “भगवान अन्यायी नहीं है, मेरे पूर्व-जन्म की कमाई ही ऐसी थी. जैसे कर्म किए हैं, वैसे फल भोग रहा हूँ. यह सब भगवान की लीला है. वह बड़ा खिलाड़ी है. घरौंदे बनाता-बिगाड़ता रहता है. उसे किसी से बैर नहीं. वह क्यों किसी पर अन्याय करने लगा?”

सोफ़िया – “मैं अगर अंधी होती, तो ख़ुदा को कभी माफ़ न करती.”

सूरदास – “मिस साहब, अपने पाप सबको आप भोगने पड़ते हैं, भगवान का इसमें कोई दोष नहीं.”

सोफ़िया – “मम्मा, यह रहस्य मेरी समझ में नहीं आता. अगर प्रभु यीशु ने अपने रुधिर से हमारे पापों का प्रायश्चित्त कर दिया, तो फिर ईसाई समान दशा में क्यों नहीं हैं? अन्य मतावलम्बियों की भांति हमारी जाति में अमीर-गरीब, अच्छे-बुरे, लंगड़े-लूले, सभी तरह के लोग मौजूद हैं. इसका क्या कारण है?”

मिसेज़ सेवक ने अभी कोई उत्तर न दिया था कि सूरदास बोल उठा – “मिस साहब, अपने पापों का प्रायश्चित्त हमें आप करना पड़ता है. अगर आज मालूम हो जाए कि किसी ने हमारे पापों का भार अपने सिर ले लिया, तो संसार में अंधेर मच जाए.”

मिसेज़ सेवक – “सोफी, बड़े अफ़सोस की बात है कि इतनी मोटी-सी बात तेरी समझ में नहीं आती, हालांकि रेवरेंड पिम ने स्वयं कई बार तेरी शंका का समाधान किया है.”

प्रभु सेवक (सूरदास से) – “तुम्हारे विचार में हम लोगों को वैरागी हो जाना चाहिए. क्यों?”

सूरदास – “हाँ जब तक हम वैरागी न होंगे, दु:ख से नहीं बच सकते.”

जॉन सेवक – “शरीर में भभूत मलकर भीख मांगना स्वयं सबसे बड़ा दु:ख है; यह हमें दु:खों से क्यों कर मुक्त कर सकता है?”

सूरदास – “साहब, वैरागी होने के लिए भभूत लगाने और भीख मांगने की ज़रूरत नहीं. हमारे महात्माओं ने तो भभूत लगाने ओर जटा बढ़ाने को पाखंड बताया है. वैराग तो मन से होता है. संसार में रहे, पर संसार का होकर न रहे. इसी को वैराग कहते हैं.”

मिसेज़ सेवक – “हिंदुओं ने ये बातें यूनान के जैवपबे से सीखी हैं; किंतु यह नहीं समझते कि इनका व्यवहार में लाना कितना कठिन है. यह हो ही नहीं सकता कि आदमी पर दु:ख-सुख का असर न पड़े. इसी अंधे को अगर इस वक्त पैसे न मिलें, तो दिल में हजारों गालियाँ देगा.”
जॉन सेवक – “हाँ, इसे कुछ मत दो, देखो, क्या कहता है? अगर ज़रा भी भुन-भुनाया, तो हंटर से बातें करूंगा. सारा वैराग भूल जाएगा. मांगता है भीख, धोले-धोले के लिए मीलों कुत्तों की तरह दौड़ता है. उस पर दावा यह है कि वैरागी हूँ. (कोचवान से) गाड़ी फेरो, क्लब होते हुए बंगले चलो.”

सोफ़िया – “मम्मा, कुछ तो ज़रूर दे दो, बेचारा आशा लगाकर इतनी दूर दौड़ा आया था.”

प्रभु सेवक – “ओहो, मुझे तो पैसे भुनाने की याद ही न रही.”

जॉन सेवक – “हरगिज़ नहीं, कुछ मत दो, मैं इसे वैराग का सबक देना चाहता हूँ.”

गाड़ी चली. सूरदास निराशा की मूर्ति बना हुआ अंधी आँखों से गाड़ी की तरफ ताकता रहा, मानो उसे अब भी विश्वास न होता था कि कोई इतना निर्दयी हो सकता है. वह उपचेतना की दशा में कई कदम गाड़ी के पीछे-पीछे चला. सहसा सोफ़िया ने कहा – “सूरदास, खेद है, मेरे पास इस समय पैसे नहीं हैं. फिर कभी आऊँगी, तो तुम्हें इतना निराश न होना पड़ेगा.”

अंधे सूक्ष्मदर्शी होते हैं. सूरदास स्थिति को भली-भांति समझ गया. हृदय को क्लेश तो हुआ, पर बेपरवाही से बोला – “मिस साहब, इसकी क्या चिंता? भगवान तुम्हारा कल्याण करें. तुम्हारी दया चाहिए, मेरे लिए यही बहुत है.”

सोफ़िया ने माँ से कहा – “मम्मा, देखा आपने, इसका मन ज़रा भी मैला नहीं हुआ.”

प्रभु सेवक – “हाँ, दु:खी तो नहीं मालूम होता.”

जॉन सेवक – “उसके दिल से पूछो.”

मिसेज़ सेवक – “गालियाँ दे रहा होगा.”

गाड़ी अभी धीरे-धीरे चल रही थी. इतने में ताहिर अली ने पुकारा –“हुज़ूर, यह जमीन पंडा की नहीं, सूरदास की है. यह कह रहे हैं.”

साहब ने गाड़ी रुकवा दी, लज्जित नेत्रों से मिसेज सेवक को देखा, गाड़ी से उतरकर सूरदास के पास आए, और नम्र भाव से बोले – “क्यों सूरदास, यह जमीन तुम्हारी है?”

सूरदास – “हाँ हुज़ूर, मेरी ही है. बाप-दादों की इतनी ही तो निशानी बच रही है.”

जॉन सेवक – “तब तो मेरा काम बन गया.. मैं चिंता में था कि न-जाने कौन इसका मालिक है. उससे सौदा पटेगा भी या नहीं. जब तुम्हारी है, तो फिर कोई चिंता नहीं. तुम-जैसे त्यागी और सज्जन आदमी से ज्यादा झंझट न करना पड़ेगा. जब तुम्हारे पास इतनी जमीन है, तो तुमने यह भेष क्यों बना रखा है?”

सूरदास – “क्या करूं हुज़ूर, भगवान की जो इच्छा है, वह कर रहा हूँ.”

जॉन सेवक – “तो अब तुम्हारी विपत्ति कट जाएगी. बस, यह जमीन मुझे दे दो. उपकार का उपकार, और लाभ का लाभ. मैं तुम्हें मुँह-मांगा दाम दूंगा.”

सूरदास – ‘’सरकार, पुरुखों की यही निशानी है, बेचकर उन्हें कौन मुँह दिखाऊंगा?”

जॉन सेवक – “यहीं सड़क पर एक कुआँ बनवा दूंगा. तुम्हारे पुरुखों का नाम चलता रहेगा.“

सूरदास – “साहब, इस जमीन से मुहल्लेवालों का बड़ा उपकार होता है. कहीं एक अंगुल-भर चरी नहीं है. आस-पास के सब ढोर यहीं चरने आते हैं. बेच दूंगा, तो ढोरों के लिए कोई ठिकाना न रह जाएगा.”

जॉन सेवक – “कितने रुपये साल चराई के पाते हो?”

सूरदास – “कुछ नहीं, मुझे भगवान खाने-भर को यों ही दे देते हैं, तो किसी से चराई क्यों लूं? किसी का और कुछ उपकार नहीं कर सकता, तो इतना ही सही.”

जॉन सेवक (आश्चर्य से) – “तुमने इतनी जमीन यों ही चराई के लिए छोड़ रखी है? सोफ़िया सत्य कहती थी कि तुम त्याग की मूर्ति हो. मैंने बड़ों-बड़ों में इतना त्याग नहीं देखा. तुम धन्य हो! लेकिन जब पशुओं पर इतनी दया करते हो, तो मनुष्यों को कैसे निराश करोगे? मैं यह जमीन लिए बिना तुम्हारा गला न छोडूंगा.”

सूरदास – “सरकार, यह जमीन मेरी है ज़रूर, लेकिन जब तक मुहल्लेवालों से पूछ न लूं, कुछ कह नहीं सकता. आप इसे लेकर क्या करेंगे?”

जॉन सेवक – “यहाँ एक कारखाना खोलूंगा, जिससे देश और जाति की उन्नति होगी, गरीबों का उपकार होगा, हजारों आदमियों की रोटियाँ चलेंगी. इसका यश भी तुम्हीं को होगा.”

सूरदास – “हुजूर, मुहल्लेवालों से पूछे बिना मैं कुछ नहीं कह सकता.”

जॉन सेवक – “अच्छी बात है, पूछ लो. मैं फिर तुमसे मिलूंगा. इतना समझ रखो कि मेरे साथ सौदा करने में तुम्हें घाटा न होगा. तुम जिस तरह ख़ुश होगे, उसी तरह ख़ुश करूंगा. यह लो (जेब से पाँच रुपये निकालकर), मैंने तुम्हें मामूली भिखारी समझ लिया था, उस अपमान को क्षमा करो.”

सूरदास – “हुज़ूर, मैं रुपये लेकर क्या करूंगा? धर्म के नाते दो-चार पैसे दे दीजिए, तो आपका कल्याण मनाऊंगा और किसी नाते से मैं रुपये न लूंगा.”

जॉन सेवक – “तुम्हें दो-चार पैसे क्या दूं? इसे ले लो, धर्मार्थ ही समझो.”

सूरदास – “नहीं साहब, धर्म में आपका स्वार्थ मिल गया है, अब यह धर्म नहीं रहा.”

जॉन सेवक ने बहुत आग्रह किया, किंतु सूरदास ने रुपये नहीं लिए. तब वह हारकर गाड़ी पर जा बैठे.

मिसेज़ सेवक ने पूछा – “क्या बातें हुईं?”

जॉन सेवक – “है तो भिखारी, पर बड़ा घमंडी है. पाँच रुपये देता था, न लिए.”

मिसेज़ सेवक – “है कुछ आशा?”

जॉन सेवक – “जितना आसान समझता था, उतना आसान नहीं है.”

गाड़ी तेज हो गई।

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