चैप्टर 1 नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास, Chapter 1 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi Read Online, Neelkanth Gulshan Nanda Ka Upanyas
Chapter 1 Neelkanth Gulshan Nanda Novel
असावधानी से पर्दा उठाकर ज्यों ही आनंद ने कमरे में प्रवेश किया, वह सहसा रुक गया। सामने सोफे पर हरी साड़ी में सुसज्जित एक लड़की बैठी कोई पत्रिका देखने में तल्लीन थी। आनंद को देखते ही वह चौंककर उठ खड़ी हुई।
‘आप!’ सकुचाते स्वर में उसने पूछा।
‘जी, मैं-रायसाहब घर पर हैं क्या?’
‘जी नहीं, अभी ऑफिस से नहीं लौटे।’
‘और मालकिन। आनंद ने पायदान पर जूते साफ करते हुए पूछा।
‘जरा मार्किट तक गई हैं।’
‘घर में और कोई नहीं?’
‘संध्या है, उनकी बेटी! अभी आती है।’ वह साड़ी का पल्लू ठीक करती हुई बोली।
‘आपको पहले देखने का कभी…।’
‘जी, मैं सहेली हूँ उसकी। वह बात काटते हुए बोली, ‘आप बैठिए, मैं उसे अभी बुलाकर लाती हूँ।’
जैसे ही वह संध्या को बुलाने दूसरे कमरे की ओर मुड़ी, किनारे रखी मेज से टकरा गई, फिर अपने को संभालती हुई शीघ्रता से भाग गई। आनंद उसकी अस्त-व्यस्त दशा देख मुस्कुरा उठा और दीवार पर लगे चित्रों को देखने लगा।
कुछ समय तक न संध्या और न उसकी सखी ही आई तो आनंद ने बिना आहट किए दूसरे कमरे में प्रवेश किया। सामने वह लड़की खड़ी बाथरूम का किवाड़ खटखटा रही थी। आनंद हौले से एक ओर हट गया।
‘अभी कितनी देर और है तुझे!’ लड़की ने तनिक ऊँचे स्वर में पूछा।
‘चिल्लाए क्यों जा रही है, कह जो दिया आती हूँ, परंतु वह कौन है?’ भीतर से सुनाई दिया।
‘मैं क्या जानूं? बैठक में बैठा देवी जी की प्रतीक्षा कर रहा है।’
‘तू चलकर उसका मन बहला जरा, मैं अभी आई।’
‘वाह! अतिथि तुम्हारा और मनोरंजन करें हम।’
इसके साथ ही चिटखनी खुलने की आवाज सुनाई पड़ी। आनंद झट पर्दे की ओट में हो गया।
‘घबरा तो ऐसे रही है मानो ससुराल से कोई देखने आया है।’ संध्या बाथरूम से निकलती हुई बोली।
‘संध्या!’ उस लड़की ने लाज से आँखें झुकाते हुए संध्या का पाँव दबाया। आनंद सामने खड़ा दोनों की बातों पर मुस्करा रहा था।
‘ओह आप!’ संध्या ने आंचल संभालते हुए कहा-‘कब आए?’
‘पाँच बजकर दस मिनट छह सेकेंड पर।’
इस उत्तर पर संकोच से सिमटी संध्या की सखी की हंसी छूट गई।
‘ओह! यह मेरी सहेली निशा और आप मिस्टर आनंद।’ संध्या ने दोनों का परिचय कराते हुए कहा।
तीनों बैठक में आए। उसी समय रायसाहब, मालकिन और संध्या की छोटी बहन रेनु ने कमरे में प्रवेश किया। आनंद को देखते ही सब प्रसन्नता से खिल उठे। रेनु तो हाथ के खिलौने फेंक आनंद की टाँगों से लिपट गई। आनंद ने उसे गोद में उठा लिया।
आश्चर्यचकित निशा से न रहा गया। उसने धीरे से संध्या को समीप खींचते हुए पूछा-‘तो यह हैं वह श्रीमान!’
‘हाँ री, क्यों कैसे लगे?’
‘सो-सो’-कहकर निशा साथ वाले कमरे में भाग गई। संध्या ने तीव्रता से उसका पीछा किया और उसकी कमर में चुटकी लेेते हुए बोली-
‘अब बोल, क्या कहा था तूने?’
‘अरी, लड़ती क्यों है-कह जो दिया अच्छा, गुड। अब प्राण लेगी क्या? सच कहती हूँ वेरी गुड, एक्सीलेंट, वंडरफुल।’
‘अब आई सीधे मार्ग पर।’ संध्या उसे छेड़ते हुए बोली।
‘लाठी के भय से तो लोग दिन को रात कह डालते हैं।’ कमर को सहलाते हुए निशा ने बड़बड़ाकर कहा।
संध्या फिर उसकी ओर लपकी, पर पापा की आवाज सुनकर रुक गई। सब उसी कमरे में आ पहुँचे। दोनों को वहाँ देखकर रायसाहब बोले-
‘अरे, तुम अभी यहीं हो, मैंने समझा तुम चाय का प्रबंध कर रही हो। आज तो चाय भी बढ़िया बननी चाहिए, आनंद जो आया है। क्यों संध्या?’
‘हाँ पापा, अभी तैयार हुई।’ संध्या ने धीमे स्वर में कहा।
‘ना पापा, आनंद साहब चाय तो रोज पी जाते हैं, किंतु अपना वचन कभी पूरा नहीं करते।’ रेनु ने मुँह बनाकर कहा।
‘कहो तो कौन-सा वचन है?’ आनंद ने प्यार से रेनु की ओर देखते हुए पूछा।
‘नई कार का!’
‘ओह! और यदि यह वचन अभी पूरा कर दें तो?’
‘तो चाय के साथ मिठाई भी।’
‘अच्छा तो बात से मुकरना मत।’
‘अजी, आपकी भांति झूठे नहीं हैं।’ रेनु की इस बात पर सब हंस पड़े।
‘तो लो, अपनी आँखें बंद करो जरा।’
जैसे ही रेनु ने अपनी आँखें मींचीं-आनंद ने सामने की खिड़की खोल दी। रेनु आँखें खोलकर उल्लास से चिल्लाई-‘पापा-कार!’ और तीव्रता से बाहर भागी।
सब खिड़की की ओर लपके और बाहर झांककर सफेद की एक कार को देखने लगे, जो पिछवाड़े खड़ी थी।
थोड़े ही समय में घर का प्रत्येक व्यक्ति नई गाड़ी के पास इकट्ठा हो गया और हर कलपुर्जे का निरीक्षण होने लगा। संध्या और रेनु तो प्रसन्नता से फूली नहीं समा रही थी।
आनंद बंबई की एक प्रसिद्ध मोटर कार का सेल्स मैनेजर था और कार की खरीद के विषय में ही उसका रायसाहब के यहाँ आना-जाना आरंभ हुआ, जो अब घनिष्ठता में परिवर्तित हो गया था। यूं तो वह रायसाहब के एक निकटतम मित्र का भांजा था, किंतु अधिक जान-पहचान कार खरीदने के सिलसिले में मिलने से बढ़ी थी। इसी संबंध में रायसाहब कुछ और भी सोच बैठे थे और वह था आनंद और संध्या का विवाह।
यह बात आनंद और संध्या से भी न छिपी थी। वे रायसाहब की सहमति को जान चुके थे। संध्या से हर भेंट आनंद को लक्ष्य के निकट ला रही थी।
चाय के पश्चात् सब अपनी धुन में खोए थे। आनंद अवसर पाकर चुपके से कार की ओर बढ़ा, जहाँ संध्या बड़े ध्यान से उसे देख रही थी।
आनंद समीप पहुँचकर बोला-
अच्छी लगी?’
‘अच्छी! बहुत अच्छी-और फिर सफेद रंग तो मेरा प्रिय रंग है।’
‘तभी तो लाया हूँ यह रंग, सादा-सा, तुम्हें भी तो सादापन अत्यंत प्रिय है।’
‘है तो चमकीले-भड़कीले रंग तो मुझे भी नहीं भाते।’
‘परंतु कभी-कभी इनकी चमक आकर्षित भी कर लेती है-महोदय!’ संध्या ने कुछ ऐसे ढंग से उत्तर दिया कि आनंद हँस पड़ा और बात बदलते हुए बोला-
‘अच्छा छोड़ो इन बातों को, एक बात मानोगी?’
‘क्या?’ संध्या ने उत्सुकतापूर्वक पूछा।
‘चलो, नई कार में घूमने चलें।’
‘पापा से जाकर पूछ आऊँ!’
‘कैसी विचित्र बातें करती हो, यह भी भला कोई पूछने की बात है।’
‘तो यूँ ही चली चलूँ क्या?’
‘नहीं तो क्या निशा को तो घर तक छोड़ने तुम्हें जाना ही होगा।’
‘बहाना बनाकर चोरों की भांति चलें।’
‘तो न सही रहने दो।’ सामने से आती निशा को देखकर आनंद ने मुँह बनाते हुए कहा और भीतर की ओर चला गया।
रायसाहब ने उसे देखकर पूछा-
‘क्यों, संध्या को कैसी जंची?’
‘मेरे सामने तो वह अच्छी ही कहेगी। और हाँ रायसाहब ड्राइवर का क्या करना होगा?’
‘गाड़ी ले दी है तो इसको चलाने वाला भी तुम्हें ही देना पड़ेगा।’
‘तो गाड़ी उस समय तक…।’
‘नहीं-नहीं, उसे तो ले लो। अभी रजिस्ट्रेेशन इत्यादि में भी तो दिन लग जायेंगे।’
‘यदि ड्राइवर शीघ्र न मिला तो।’
‘तो आपको ड्राइवर बना लेंगे।’ पास खड़ी रेनु बोल उठी।
‘हट दुष्ट कहीं की।’ मालकिन ने रेनु को डांटते हुए कहा। रायसाहब यह सुनकर मुस्करा दिए और फिर आनंद की ओर देखते हुए बोले-
‘तो इसमें हानि ही क्या है। इसी बहाने हम भी कार चलाना सीख लेंगे।’
आनंद उनसे विदा लेकर कार की ओर बढ़ा। निशा और संध्या वहाँ न थीं। आनंद ने इधर-उधर देखा, किंतु वे कहीं दिखाई न दीं। विवश-खिन्न मन से कार स्टार्ट की और फाटक से बाहर निकल गया।
गाड़ी थोड़ी दूर ही गई थी कि सामने पटरी पर संध्या और निशा पैदल चलती हुई दिख पड़ीं। आनंद ने चाहा कि गाड़ी को दौड़ाकर आगे बढ़ जाए, किंतु इससे पहले ही दोनों ने मुड़कर उसे आते देख गाड़ी खड़ी करने के लिए संकेत किया। आनंद ने गाड़ी बिलकुल उनके समीप रोक ली और संध्या को देखते हुए गंभीरतापूर्वक बोला-‘कहिए।’
‘देखिए, हमें सामने चर्च तक जाना है, यदि लिफ्ट दे सकें तो।’
‘ओह समझा, परंतु मेम साहब! यह गाड़ी मेरी नहीं रायसाहब की है और उनकी आज्ञा के बिना किसी को लिफ्ट देना उचित न होगा।’
‘तो क्या हुआ-एक दिन हमारे लिए चोरी ही सही।’
‘नहीं मेम साहब, मुझ गरीब की नौकरी का प्रश्न है। मैं अपने पेट पर स्वयं लात कैसे मार सकता हूँ।’
‘घबराइये नहीं, यदि रायसाहब ने नौकरी से जवाब भी दे दिया तो हम अपने पास रख लेंगे।’
‘आप क्या देंगी मुझे? केवल दो समय का खाना, रायसाहब तो मुझे वह सब कुछ देनेवाले हैं, जो आप क्या दे पाएंगी?’
‘हम भी तो सुनें-क्या?’
‘अपनी लाड़ली-अर्थात् हमें अपना…’
‘आनंद!’ संध्या चिल्लाई और निशा को खिलखिलाते देखकर लजा गई। आनंद ने हाथ बढ़ाकर कार का द्वार खोला और दोनों हँसती हुईं भीतर आ बैठीं।
निशा को घर छोड़कर आनंद ने कार समुद्र की ओर मोड़ दी। दोनों कुछ समय तक मौन बैठे रहे। आनंद गाड़ी में लगे दर्पण में संध्या के मुख के भाव देखकर मन-ही-मन मुस्करा रहा था। उसके कपोलों पर एक रंग आता और दूसरा जाता। अपने आंचल को उंगलियों में लपेटते हुए वह बोली-
‘आनंद!’
‘हूँ।’
‘यह आपने अच्छा नहीं किया।’
‘ओह!’ आनंद ने गाड़ी रोकते हुए कहा-‘मैं तो भूल ही गया था।’
‘पर आपने गाड़ी क्यों रोक दी?’
‘इसलिए कि मैंने यह अच्छा नहीं किया। तुम पीछे अकेली और मैं…’
‘परंतु मेरा आशय यह न था।’ वह बात काटते हुए बोली-‘मैं तो उस बात को कह रही थी, जो आपने निशा के सम्मुख कह दी।’
‘बस, इसी पर बिगड़ बैठी।’ आनंद ने एक ठहाका लगाया, फिर बोला-‘संध्या आगे आओ।’
‘नहीं, यहीं ठीक हूँ।’ वह गंभीर मुद्रा में बोली।
‘अब आ भी जाओ’ आनंद ने उसे बांह से खींचते हुए कहा और कुछ हठ के पश्चात् उसे फ्रंट सीट पर अपने साथ बिठा लिया।
‘परंतु उसमें झूठ ही क्या था?’ आनंद ने पुनः गाड़ी चलाते हुए कहा।
‘झूठ हो या सच, पर यह रहस्य ही रहना चाहिए।’
‘वह क्यों?’
‘इसलिए कि यह बात कहीं हवा में उड़कर ही न रह जाए।’
‘तो तुम ऐसा भी सोचती हो?’
‘आप पुरुषों का क्या भरोसा! जब मन चाहा बोरिया बिस्तर समेटा और चल दिए।’
‘इसमें हमारा क्या दोष, यदि किसी सराय में आराम और सुख न मिले तो यात्री बेचारे के पास उपाय ही क्या रह जाता है?’
‘यदि किसी का हृदय ही अशांत हो तो सराय की सुविधाएं उसे क्या सुख देंगी। सराय से मन का उठ जाना वहाँ के कष्टों पर नहीं वरन् किसी सुंदर विश्राम-घर की चमक-दमक पर निर्भर है।’
‘ओह! तो आज आप हमें निरुत्तर करके ही छोड़ेगी। लो मैंने हार मानी।’
‘परंतु इस हार में तो आप ही की जीत छिपी है।’
बातों-बातों में दोनों समुद्र तट पर पहुँच गए। आनंद ने गाड़ी एक ओर लगा दी और संध्या को खींचकर पानी की ओर ले चला। दोनों के हृदय सागर की उठती तरंगों के समान उल्लास से उछल रहे थे।
संध्या सैंडिल उतारकर साड़ी को घुटनों तक उठा पानी में उतर गई और संकेत से आनंद को अपने समीप बुलाने लगी। उसके न आने पर स्वयं खींचकर उसे लहरों में ले आई। आनंद चिल्लाया! उसकी पतलून और जूते सब भीग गए, परंतु संध्या ने एक न सुनी।
पानी की एक बड़ी उछाल आई और दोनों को सिर से पांव तक भिगो गई। दोनों एक-दूसरे को थामे मौन खड़े थे। मानो उछाल के उतार के साथ ही यौवन का उत्साह बह गया हो। संध्या ने शरीर से चिपके हुए कपड़ों को ठीक करने का व्यर्थ प्रयत्न किया और धीरे-धीरे पाँव उठाती तट की ओर बढ़ी। तट पर बिछी एक बेंच पर बैठकर वे अपने कपड़ों को निचोड़ने लगे।
‘घर वाले पूछेंगे तो क्या कहूँगी?’ संध्या ने दृष्टि नीचे किए हुए पूछा।
‘कह देना, समुद्र में कूदी थी।’
‘किसलिए?’
‘शरीर से ज्वाला जो भड़क रही थी। फायर-ब्रिगेड नहीं तो समुद्र ही सही।’
‘चलिए हटिए, आपको मजाक सूझ रहा है। मेरे तो भय से प्राण निकले जा रहे हैं।’
‘प्रेम का दूसरा नाम ही उपहास है।’
‘तो आप प्रेम की पवित्र भावना को उपहास समझते हैं?’
‘मैं तो नहीं, वैसे है यह कुछ ऐसी वस्तु! कुछ व्यक्ति को इसे स्वर्ण-जल भी बोलते हैं।’
‘तो जाइए, छली कहीं के।’ संध्या मुँह फेरते हुए बोली।
‘बस, बिगड़ने लगी, यदि बात-बात पर यूँ बिगड़ोगी तो जीवन कैसे कटेगा?’
‘रोते-चिल्लाते और कभी मार-पिटाई में भी।’ संध्या ने उसी मुद्रा में उत्तर दिया।
‘तब तो खूब कटेगी, घर में रेडियो की आवश्यकता न होगी। रेडियो तो एक ओर, रसोईघर में बर्तन भी साथ देंगे।’
‘अति सुंदर! पड़ोसी सिनेमा तक जाना छोड़ देंगे और हमारी आय बढ़ेगी।’
‘क्या इस नाटक पर टिकट लगेगा?’
‘क्यों नहीं… किसी के बाबा के नौकर हैं, जो दिन-रात खेल हम मुफ्त दिखायेंगे।’
‘बाबा के नौकर! धंधा तो इतना पसार रहे हो, पर हम दोनों करेंगे क्या-क्या?’
‘सच ही है स्त्रियों की बुद्धि चुटिया में होती है। वह जो चार-छह नन्हें-मुन्ने होंगे, वे किस काम आएँगे?’
यह सुनते ही संध्या खिलखिलाकर हँस पड़ी और उसके साथ ही आनंद भी। बातों-बातों में दोनों कहाँ पहुँच गए थे। इन बातों में उन्हें कितना आनंद मिल रहा था।
‘संध्या!’ आनंद ने उसके कंधे को धीरे से छूते हुए कहा।
‘हूँ।’
‘यदि आज तुम हँस न देतीं तो मैं हारने वाला न था।’
‘वह तो अच्छा रहा, जीत मेरी रही। देखिए! वह क्या है?’
‘नीलकंठ-बहुत सुंदर पक्षी है। क्या वह इस पेड़ से उड़ा है?’
‘जी… न जाने यहाँ कब से बैठा हमारी बातें सुन रहा था।’
‘तो क्या हुआ, मूक पक्षी किसी-से कहेगा थोड़े ही।’
‘संसार वालों से तो नहीं, परंतु इन्द्रलोक में हमारे प्रेम की चर्चा तो अवश्य करेगा।’
‘संध्या! एक बात कहूँ।’
‘कहिए।’
‘आज से हम अपने प्रेम को ‘नीलकंठ’ की संज्ञा देते हैं।’
‘और हाँ, जीवन में हमने यदि कभी कोई मकान बनाया तो उसका नाम भी नीलकंठ ही रखेंगे।’
‘तो अब स्त्रियों की बुद्धि भी दूर तक सोचने लगी।’ और फिर दोनों हँस पड़े।
दोनों की दृष्टि समुद्र की तरंगों पर पड़ी, जो अब शांत हो चुकी थीं और दूर किसी मछेरे का आशा-भरा गीत सुन रही थीं, जो तट की ओर नाव खेता बढ़ा आ रहा था। संध्या आनंद का सहारा लेकर उठी और दोनों आकर गाड़ी में बैठ गए।
संध्या जब घर पहुँची तो अंधेरा हो चुका था। वह भीगी बिल्ली के समान दबे पांव सबकी दृष्टि से बचती अपने कमरे की ओर बढ़ी। जैसे ही उसने किवाड़ खोलने को हाथ बढ़ाया, किसी का स्वर सुनकर वह कांप गई। वह मालकिन थी, जो इतनी देर से आने का कारण पूछ रही थी।
‘मम्मी, जरा निशा के घर देरी हो गई।’ संध्या ने धीमे स्वर में उत्तर दिया।
‘तुम तो भीग रही हो। क्या बाहर वर्षा हो रही है?’
‘हाँ मम्मी, रास्ते में इतनी जोर की वर्षा आ गई कि-’ पर मम्मी को मुस्कराते देखकर वह चुप हो गई।
‘जान पड़ता है कि आज मेरी बिटिया झूठ बोल रही है।’
‘तो मैंने कब कहा यह सब सच है।’
संध्या की बात सुन मालकिन की हँसी छूट गई। उसे देखकर संध्या भी हँस पड़ी और अपनी बाहें उनके गले में डालकर बोली-
‘माँ, मेरी अच्छी माँ! तू बुरा तो नहीं मान गई। आज आनंद बाबू के संग गई थी समुद्र तट पर। वह हठपूर्वक मुझे संग ले गए थे। मैं तो चलकर ही जा रही थी, परंतु उन्होंने नई कार का दरवाजा खोल दिया-अब ऐसे में करती भी क्या मैं, मम्मी!’ संध्या कहते-कहते मौन हो गई। उसने देखा मम्मी उसकी बातों से अधिक उसके चेहरे को ध्यानपूर्वक देख रही है। संध्या लजाकर अलग हो गई और बोली-
‘मैं मूर्ख भी जाने क्या बके जा रही हूँ।’
‘अच्छा जा अब। शीघ्र कपड़े बदल ले, कहीं सर्दी न लग जाए।’
‘अच्छा मम्मी, पापा से तो-’ संध्या ने प्रार्थना पूर्वक दृष्टि से देखते हुए कहा।
‘हाँ-हाँ, कुछ न कहूँगी। पर अभी से इतना मेल-जोल रखना उचित नहीं।’
संध्या ने स्वीकारात्मक ढंग से सिर हिलाया और भीतर चली गई। द्वार बंद करते ही उसने मम्मी की आहट सुनने के लिए कान द्वार पर लगा दिए और तत्पश्चात् चिटखनी चढ़ाकर सामने दर्पण में अपना रूप निहारने लगीं।
बिखरे बाल, भीगे कपड़े, होंठों पर चंचल मुस्कान और आँखों में किसी से प्यार की लौ-क्या दशा हो रही थी-स्वयं वह लजा गई और झट दर्पण से मुख मोड़ उसने कपड़ों की अलमारी खोली। ज्यों ही उसने भीगी साड़ी शरीर से हटानी चाही, किसी के स्वर ने उसे चौंका दिया।
‘जरा बत्ती तो बंद कर ली होती।’ यह रेनु थी, जो एक ओर बैठी पढ़ रही थी। संध्या उसे देखते ही बोली-
‘दुष्ट कहीं की-मेरे तो प्राण सुखा दिए तूने-मैं समझी न जाने कौन है।’
संध्या ने हाथ बढ़ाकर उसने बत्ती बुझा दी। चारों ओर अंधेरा छा गया। संध्या ने तौलिए से गीला शरीर पोंछते हुए कहा-‘रेनु!’
‘हाँ दीदी!’
‘यदि कोई तुम्हें इस अंधेरे में पढ़ने के लिए कहे तो क्या तुम पढ़ लोगी?’
‘दीदी, तुम भी कैसी बातें करती हो, तुम ही कहो, तुम्हें कुछ दिखाई देता है क्या?’
‘हाँ रेनु, कमरे की प्रत्येक वस्तु जैसे तुम्हारी पुस्तकें, मेज पर रखे फूल।’
‘बस-बस, मैं समझ गई।’
‘क्या?’ संध्या ने ब्लाउज के बटन बंद करते हुए पूछा।
‘तुम अवश्य किसी अन्य स्थान का प्रकाश चुरा लाई हो, जिससे यह सब तुम्हें दिखाई दे रहा है।’
‘तुम ठीक कहती हो रेनु।’ संध्या ने उजाला करते हुए कहा।
उजाला होते ही कमरा जगमगा उठा और रेनु संध्या की ओर देखती ही रह गई। उसकी दीदी रात्रि को काली साड़ी में यों दिखाई दे रही थी मानो बादलों में चांद।
तभी मालकिन के स्वर ने दोनों की तंद्रा भंग कर दी और दोनों बाहर जाने को बढ़ीं। कदाचित भोजन के लिए उनकी प्रतीक्षा हो रही थी।
कांच की चूड़ियां गुलशन नंदा का उपन्यास
प्यासा सावन गुलशन नंदा का उपन्यास