चैप्टर 1 मनोरमा : मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 1 Manorama Novel By Munshi Premchand Read Online

Chapter 1 Manorama Novel By Munshi Premchand

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मुंशी वज्रधर सिंह का मकान बनारस में है. आप हैं तो राजपूत, पर अपने को ‘मुंशी’ लिखते और कहते हैं. ‘ठाकुर’ के साथ आपको गंवारपण का बोध होता है. बहुत छोटे पास से तरक्की करते-करते आपने अंत में तहसीलदारी का उच्च पद प्राप्त कर लिया था. यद्यपि आप उस महान पद पर तीन मास से अधिक न रहे और उतने दिन भी केवल एवज पर रहे; पर आप अपने को साबित ‘तहसीलदार साहब’ ही कहते थे. यह नाम सुनकर आप ख़ुशी से अकड़ जाते थे, पर पेंशन केवन २५ रुपये मिलती थी. इसलिए तहसीलदार साहब को बाज़ार-हाट ख़ुद ही करना पड़ता था. घर में चार प्राणियों क खर्च था. एक लड़की, एक लड़का और स्त्री.

लड़के का अनाम चक्रधर था. वह इतना ज़हीन था कि पिता के पेंशन के जमाने में घर से किसी प्रकार की सहायता न ली थी, केवल अपने बुद्धि बल से उसने एम.ए. की उपाधि प्राप्त कर ली थी. मुंशीजी ने पहले ही से सिफ़ारिश पहुँचानी शुरू कर दी थी. दरबारदारी की काल में वह निपुण थे. कोई नया हाकिम आये, उससे ज़रूर रब्त-जब्त कर लेते थे. हुक्काम ने चक्रधर का ख़यालल करने के वादे भी किये थे, लेकिन जब परीक्षा का नतीज़ा निकला औउर मुंशीजी ने चक्रधर से कमिश्नर के यहाँ चलने को कहा, तो उन्होंने जाने से साफ़ इंकार किया.

मुंशीजी ने त्योरी चढ़ाकर पूछा, “क्यों? क्या घर बैठे तुम्हें नौकरी मिल जायेगी?”

चक्र – “मेरी नौकरी करने की इच्छा नहीं है. आज़ाद रहना चाहता हूँ.”

वज्र – ”आज़ाद रहना था, तो एम.ए. क्यों पास किया?”

उस दिन से पिता और पुत्र में आये दिन बमचख मचती रहती थी. मुंशीजी बार-बार झुंझलाते और उसे कामचोर, घमंडी, मूर्ख कहकर अपना गुस्सा उतारते रहते थे.

चक्रधर पिता का अदब करते थे. उनको जवाब तो न देते, पर अपना जीवन सार्थक बनाने के लिए जो मार्ग तय कर लिया था, उससे वह न हटते थे, उन्हें यह हास्यापद मालूम होता था कि आदमी केवल पेट पालने के लिए आधी उम्र पढ़ने में लगा दे. विद्या को जीविका का साधन बनाते उन्हें लज्जा आती थी. वह भूखों मर जाते, लेकिन नौकरी के लिए आवेदन-पत्र लेकर कहीं न जाते. विद्याभ्यास के दिनों में भी वह सेवा-कार्य में अग्रसर रहा करते थे और अब तो इसके सिवा उन्हें कुछ सूझता ही न था. दीनों की सेवा और सहायता में जो आनंद और आत्मगौरव था, वह दफ्तर में बैठकर कलम घिसने में कहाँ?

मुंशी वज्रधर ने समझा था, जब यह भूत इसके सिर से उतर जायेगा, तो शादी-ब्याह की फ्रिक्र होगी, तो आप-ही-आप नौकरी की तलाश में दौड़ेगा. लेकिन, जब दो साल गुजर जाने पर भी भूत के उतरने का कोई लक्ष्ण न दिखाई दिया, तो एक दिन उन्होंने चक्रधर को खूब फटकारा.

चक्रधर अब पिता की इच्छा से मुँह न मोड़ सके. उन्हें अपने कॉलेज में ही कोई जगह मिल सकती थी. लेकिन वह कोई ऐसा धंधा करना चाहते थे, जिससे थोड़ी देर रोज़ काम करके अपने पिता की मदद कर सकें. संयोग से जगदीशपुर के दीवान हरसेवक सिंह को अपनी लड़की को पढ़ाने के लिए एक सुयोग्य और सच्चरित्र अध्यापक की ज़रूरत पड़ी. उन्होंने कॉलेज के प्रधानाध्यापक को इस विषय में एक पत्र लिखा. उन्होंने चक्रधर को उस काम पर लगा दिया. काम बड़ी ज़िम्मेदारी का था, किंतु चक्रधर इतने सुशील, इतने गंभीर और इतने संयमी थे कि उन पर सबको पूरा विश्वास था.

मनोरमा की उम्र अभी तेरह वर्ष से अधिक न थी, लेकिन चक्रधर को इसे पढ़ाते हुए बड़ी झेंप होती थी. एक दिन मनोरमा वाल्मीकि रामायण पढ़ रही थी. उसके मन में सीता के वनवास पर एक शंका हुई. वह इसका समाधान करना चाहती थी. उसने पूछा – “मैं आपसे एक बात पूछना चाहती हूँ. आज्ञा हो, तो पूंछूं?”

चक्रधर ने कातर भाव से कहा, “क्या बात है?”

मनोरमा – “रामचंद्र ने सीताजी को घर से निकाला. तो वह चली क्यों गई? और जब रामचंद्र ने सीता की परीक्षा ले ली थी और अंतकरण से उन्हें पवित्र समझते थे, तो केवल झूठी निंदा से बचने के लिए उन्हें घर से निकाल देना कहाँ का न्याय था?”

चक्रधर – “यदि सीताजी पति की आज्ञा न मानतीं, तो वह भारतीय सती के आदर्श से गिर जातीं और रामचंद्र को राज-धर्म का आदर्श भी तो पालन करना था.”

मनोरमा – “यह ऐसा आदर्श है, जो सत्य की हत्या करके पाला गया है. यह आदर्श नहीं हैं, चरित्र की दुर्बलता है. मैं आपसे पूछती हूँ आप रामचन्द्र की जगह होते, तो क्या आप भी सीता को घर से निकाल देते?”

चक्रधर –“नहीं, मैं तो शायद न निकालता.”

मनोरमा- “आप निंदा की परवाह न करते.”

चक्रधर – “नहीं, मैं झूठी निंदा की ज़रा भी परवाह न करता.”

मनोरमा की आँखें ख़ुशी से चमक उठी. प्रफुल्लित होकर बोली, “यही बात मेरे मन में थी.”    

उस दिन से मनोरमा को चक्रधर से कुछ स्नेह हो गया. जब उनके आने का समय होता, तो वह पहले ही आकर बैठ जाती और उनका इंतज़ार करती. अब उसे अपने मन में भाव प्रकट करते हुए संकोच न होता.

ठाकुर हरसेवक सिंह की आदत थी कि पहले दो-चार महीनों तक नौकरी का वेतन ठीक समय पर देते; पर ज्यों-ज्यों नौकर पुराना होता जाता था, उन्हें उनके वेतन की याद भूलती जाती थी. चक्रधर को भी इधर चार महीनों से कुछ न मिला था. न व आप-ही-आप देते थे, न चक्रधर संकोचवश मांगते थे. उधर घर से रोज़ तकरार होती थी. आखिर एक दिन चक्रधर ने विवश हो ठाकुर साहब को एक पुर्जा लिखकर अपना वेतन मांगा. ठाकुर साहब ने पुरजा लौटा दिया. व्यर्थ की लिखा-पढ़ी की उन्हें फुर्सत न थी और उनको जो कुछ कहना हो, ख़ुद आकर कहें. चक्रधर शरमाते हुए गए और बहुत कुछ शिष्टाचार के बाद रुपये मांगे.

ठाकुर साहब हँसकर बोले, “वाह बाबूजी वाह! आप भी अच्छे मौजी जीव हैं. चार महीने से वेतन नहीं मिला और अपने एक बार भी नहीं मांगा. आपको महीने-महीने अपना वेतन ले लेना चाहिए था. सोचिये, मुझे एकमुश्त देने में कितनी असुविधा होगी! खैर जाइये; दस-पाँच दिन में रुपये मिल जायेंगे.

चक्रधर कुछ न कह सके. लौटे तो मुख पर घोर निराशा छाई हुई थी. मनोरमा ने उनका पुरजा अपने पिता के आपस ले जाते हुए राह में पढ़ लिया था. उन्हें उदास देखकर पूछा, “दादाजी ने आपको रुपये नहीं दिये?”

चक्रधर उसके सामने रूपये-पैसे का ज़िक्र न करना चाहते थे. मुँह लाल हो गया, बोले, “मिल जायेंगे.”

मनोरमा – “आपको १२० रुपये चाहिए न?”

चक्रधर – “इस वक़्त कोई ज़रूरत नहीं है.”

मनोरम – “ज़रूरत न होती, तो आप मांगते ही न. देखिये, मैं जाकर….”

चक्रधर ने रोक कर कहा, “नहीं..नहीं, कोई ज़रूरत नहीं.”

मनोरमा ने न मानी. तुरंत घर में गई और एक क्षण में पूरे रुपये लाकर मेज़ पर रख दिये.

वह तो पढ़ने बैठ गई. लेकिन चक्रधर के सामने यह समस्या आ पड़ी कि रुपये लूं या न लूं. उन्होंने निश्चय किया कि न लेना चाहिए. पाठ हो चुकने पर वह उठ खड़े हुए और बिना रूपये लिए बाहर निकल आये. मनोरमा रुपये लिए ही पीछे-पीछे बरामदे तक आई. बार-बार कहती रही, “इसे आप लेते जाइये.”

पर चक्रधर ने एक न सुनी और जल्दी से बाहर निकल गये.

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