चैप्टर 1 कांच की चूड़ियाँ उपन्यास गुलशन नंदा

Chapter 1 Kanch Ki Chudiyan Novel By Gulshan Nanda

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दो पहाड़ियों की ओट में सूर्यास्त हो रहा था। सांझ की बढ़ती हुई परछाई में कहीं-कहीं डूबते सूरज की लाल और सुनहरी किरणें झलक रही थी। चंदन घाटी पर धुंधलके और लालिमा का एक मिश्रित जाल सा बिछा था।

काले पत्थरों से बने एक कमरे में बैठा बंसी दिन भर के धन और ऋण के आंकड़ों में व्यस्त था। कभी-कभार दूर चट्टानों के टूटने की ध्वनि सुनाई दे जाती थी। बारूद की फटने से लुढ़कते हुए पत्थर चूर-चूर होकर पर्वतों के आंचल में बिखर जाते और बंसी को ऐसा लगता, मानो उसके जीवन की आकांक्षायें उन्हीं पत्थरों के समान बिखर गई और वह इन्हें फिर से समेटने की शक्ति को बैठा हो। वह इन धमाकों का अभ्यस्त हो चुका था। बुढ़ापा और निर्धनता उसे दीमक के समान चाट कर खोखला कर रहे थे। आज निरंतर पांच वर्षों से वह जान तोड़कर अपने स्वामी प्रताप सिंह की सेवा कर रहा था, जिसके बदले में उन्नति पाकर वह एक साधारण मजदूर से अस्सी रुपए का मासिक मुंशी बन चुका था। स्वामी  उसके काम से संतुष्ट थे।

बार-बार जोड़ने पर भी उसके हिसाब में ग्यारह रुपए चालीस पैसे का अंतर आ रहा था। बहुत प्रयास के बाद भी उसका हिसाब ठीक न बैठ रहा था। यह बात उसके मस्तिष्क को जकड़े हुए थी। एकाएक जीप की आवाज में उसे चौंका दियाम न जाने इस गाड़ी की कर्कश ध्वनि उसके कानों को बींधती, शीघ्र ही उस तक कैसे पहुंच आती थी। उसने खाते पर से दृष्टि हटाकर प्रवेश द्वार की ओर देखा, जहाँ उसके सामने प्रताप से खड़े थे।

बंसी घबराहट को समेटकर कुर्सी छोड़कर स्वागत के लिए खड़ा हो गया। प्रताप से ने हाथ में थामी हुई छड़ी से उसे बैठा रहने का संकेत किया और उसके समीप आकर मूछों को संवारते हुए बोला –

“कहो हिस्सा बन गया बंसी?”

“जी मालिक!” बंसी के स्वर में कंपन था, मानो वाद विवाद से बचने के लिए उसने झूठ कहा हो।

प्रताप सिंह खिड़की से बाहर देखने लगा। उसके गंभीर मुँह पर हल्की-सी मुस्कान फूट पड़ी और उसका सिर गर्व से उठ गया। कुछ दूरी पर बारूद शिलाओं को तोड़ फोड़ रहा था। एक ही वर्ष में उसने ऊंचे और विशाल पर्वत को मिट्टी के ढेर में परिवर्तित कर दिया। यहां एक बांध बनना था। देश के भविष्य का निर्माण, भविष्य के सुनहरे सपने की कड़ी। इससे देश को क्या लाभ होगा? इसका अनुमान तो प्रताप ने कभी न लगाया था, किंतु इतना वह अवश्य जानता था कि वर्षा आरंभ होने से पूर्व ही इस बांध के पूरा होने पर उसे पांच लाख का लाभ होना था, पूरे पांच लाख का। वह दिन में कई बार इस लाभ को उंगलियों पर गिना करता था। इस समय भी दूर टूटती हुई चट्टाने उसे पत्थर नहीं, सोने चांदी के टुकड़े प्रतीत हो रही थी।

“मालिक!” बंसी के स्वर ने उसकी विचारधाराओं को यूं भंग कर दिया, जैसे किसी ने बढ़ती हुई पतंग की डोरी को काट दिया हो, “सुखिया और कलुआ का क्या होगा मालिक?” बंसी ने डरते हुए सहमी दृष्टि से प्रताप सिंह को देखते हुए पूछा।

“दोनों की पगार बढ़ा दो पांच पांच…!” प्रताप सिंह द्वार में अहंकार मिश्रित करते हुए बोला और फिर खिड़की से बाहर देखने लगा। फिर पलट कर एकाएक कड़े स्वर में पूछा –

“क्या है बंसी?”

बंसी अभी तक चुपचाप खड़ा था।

“सरकार मेरी भी एक विनती है।”

“क्या है?” प्रताप सिंह ने अनजान बनते हुए पूछा।

“आप इस माह याद दिलाने को कहा था…वेतन बढ़ाने के लिए।”

“उफ्फ बंसी, समय और स्थिति का तो ध्यान दिया करो। आजकल ठेकेदारी में इतनी बचत कहाँ है कि हर मास कारिंदों की कठिनाइयाँ दूर करते रहें।”

“सरकार बच्चों का प्रश्न न होता तो शायद…”

“नहीं बंसी नहीं! इस समय हम से कुछ नहीं होने का। क्या हमारा यह उपकार तुम पर कुछ कम है कि इस बड़ी अवस्था में भी हम तुम्हें पाल रहे हैं।” और यह कहते हैं वह प्रताप से दफ्तर से शहर चला गया।

बंसी की आवाज कंठ में ही अटक कर रह गई। आज तीन महीनों के प्रयत्न के बाद वह मालिक से यह शब्द कह पाया था। उसे क्या पता था कि उसका प्रयत्न पानी के बुलबुले के समान उभरते ही टूट जाएगा।

मालिक की जीप जा चुकी थी। यह बुत बना खिड़की में से टूटते हुए पत्थरों को बिखरते देखता रहा। उसके मस्तिष्क पर धूल की परत सी छा गई। टूटते-गिरते पत्थरों की आवाज एक चलचित्र के रूप में अतीत का चित्र उसके मस्तिष्क पर अंकित करने लगी। बंसी को पता भी नहीं चला कि कब से मंगलू उसके सामने खड़ा उसे देख रहा था। उसे सुध आई, जब मंगलू ने ऊँचे स्वर में पुकारा। बंसी चौंक उठा और उस पर दृष्टि जमाए बोला, “आओ मंगलू!”

“यह पागलों की भांति खोए हुए उन पहाड़ियों की ओर क्या देख रहे हो?”

“अपने पचास वर्ष के जीवन का प्रतिबिंब।”

“इस बुढ़ापे में कविता करने लगे काका!”

“नहीं मंगलू, यह कविता नहीं है। मैं सोच रहा था कि इस बारूद की भांति निर्धनता ने मेरी आयु को यूं ही टुकड़े-टुकड़े करके बिखेर दिया है।“ आँखों में आँसू को छुपाते हुए बंसी बिखरी किताबों को समेटने लगा।

मंगलू की समझ में कुछ न आया। उसने सोचा कदाचित बुढ़ापे ने बंसी की बुद्धि हर ली है। बंसी से लेकर स्वयं किताबे बांधने लगा। उसे किताबें रात को माली के घर पहुँचानी थी।

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