चंद्रकांता दूसरा अध्याय | Chandrakanta Doosra Adhyay

Chandrakanta Doosra Adhyay
Chandrakanta

चंद्रकांता पहला अध्याय | दूसरा अध्याय | तीसरा अध्याय | चौथा अध्याय

Chandrakanta Doosra Adhyay


बयान – 1

इस आदमी को सभी ने देखा मगर हैरान थे कि यह कौन है, कैसे आया और क्या कह गया.

तेज सिंह ने जोर से पुकार के कहा, “आप लोग चुप रहें, मुझको मालूम हो गया कि यह सब ऐयारी हुई है. असल में कुमारी और चपला दोनों जीती हैं, यह लाशें उन लोगों की नहीं हैं.”

तेज सिंह की बात से सब चौंक पड़े और एकदम सन्नाटा हो गया. सभी ने रोना-धोना छोड़ दिया और तेज सिंह के मुँह की तरफ देखने लगे.

महारानी दौड़ी हुई उनके पास आईं और बोलीं, “बेटा, जल्दी बताओ यह क्या मामला है? तुम कैसे कहते हो कि चंद्रकांता जीती है? यह कौन था, जो यकायक महल में घुस आया?”

तेजसिंह ने कहा, “यह तो मुझे मालूम नहीं कि यह कौन था? मगर इतना पता लग गया कि चंद्रकांता और चपला को शिवदत्त सिंह के ऐयार चुरा ले गए हैं और ये बनावटी लाश यहाँ रख गए हैं, जिससे सब कोई जानें कि वे मर गईं और खोज न करें.”

महाराज बोले, “यह कैसे मालूम कि यह लाश बनावटी हैं?”

तेज सिंह ने कहा, “यह कोई बड़ी बात नहीं है, लाश के पास चलिए मैं अभी बतला देता हूँ.”

यह सुन कर महाराज तेज सिंह के साथ लाश के पास गए. महारानी भी गईं. तेज सिंह ने अपनी कमर से खंजर निकाल कर चपला की लाश की टांग काट ली और महाराज को दिखला कर बोले, “देखिए इसमें कहीं हड्डी है.”

महाराज ने गौर से देख कर कहा, “ठीक है, बनावटी लाश है.”

इसके पीछे चंद्रकांता की लाश को भी इसी तरह देखा, उसमें भी हड्डी नहीं पाई. अब सभी को मालूम हो गया कि ऐयारी की गई है.

महाराज बोले, “अच्छा यह तो मालूम हुआ कि चंद्रकांता जीती है. मगर दुश्मनों के हाथ पड़ गई, इसका गम क्या कम है?”

तेज सिंह बोले, “कोई हर्ज़ नहीं, अब तो जो होना था हो चुका. मैं चंद्रकांता और चपला को खोज निकालूंगा.”

तेज सिंह के समझाने से सभी को कुछ ढांढ़स बंधा, मगर कुमार वीरेंद्र सिंह अभी तक बदहोशो-हवास पड़े हैं, उनको इन सब बातों की कुछ खबर नहीं. अब महाराज को यह फ़िक्र हुई कि कुमार को होशियार करना चाहिए. वैद्य बुलाए गए. सभी ने बहुत-सी तरकीबें की, मगर कुमार को होश न आया. तेज सिंह भी अपनी तरकीब करके हैरान हो गए, मगर कोई फ़ायदा न हुआ.

यह देख महाराज बहुत घबराए और तेज सिंह से बोले, “अब क्या करना चाहिए?”

बहुत देर तक गौर करने के बाद तेज सिंह ने कहा कि कुमार को उठवा के उनके रहने के कमरे में भिजवाना चाहिए. वहाँ अकेले में मैं इनका इलाज करूंगा.”

यह सुन महाराज ने उन्हें खुद उठाना चाहा, मगर तेज सिंह ने कुमार को गोद में ले लिया और उनके रहने वाले कमरे में ले चले. महाराज भी संग हुए.

तेज सिंह ने कहा, “आप साथ न चलिए, ये अकेले ही में अच्छे होंगे.”

महाराज उसी जगह ठहर गए. तेज सिंह कुमार को लिए हुए उनके कमरे में पहुँचे और चारपाई पर लिटा दिया, चारों तरफ से दरवाजे बंद कर दिए और उनके कान के पास मुँह लगा कर बोलने लगे,”चंद्रकांता मरी नहीं, जीती है, वह देखो महाराज शिवदत्त के ऐयार उसे लिए जाते हैं. जल्दी दौड़ो, छीनो, नहीं तो बस ले ही जाएंगे. क्या इसी को वीरता कहते हैं? छीः चंद्रकांता को दुश्मन लिए जाएं और आप देख कर भी कुछ न बोलें? राम राम राम.”

इतनी आवाज कान में पड़ते ही कुमार में आँखें खोल दीं और घबरा कर बोले, “हैं! कौन लिए जाता है? कहाँ है चंद्रकांता?”

यह कह कर इधर-उधर देखने लगे. देखा तो तेजसिंह बैठे हैं. पूछा, “अभी कौन कह रहा था कि चंद्रकांता जीती है और उसको दुश्मन लिए जाते हैं?”

तेज सिंह ने कहा, “मैं कहता था और सच कह रहा था. कुमारी जीती हैं, मगर दुश्मन उनको चुरा ले गए हैं और उनकी जगह नकली लाश रख कर इधर-उधर रंग फैला दिया है, जिससे लोग कुमारी को मरी हुई जान कर पीछा और खोज न करें.”

कुमार ने कहा, “तुम हमें धोखा देते हो. हम कैसे जानें कि वह लाश नकली है?”

तेज सिंह ने कहा, “मैं अभी आपको यकीन करा देता हूँ.” यह कह कमरे का दरवाजा खोला, देखा कि महाराज खड़े हैं, आँखों से आँसू जारी हैं.

तेज सिंह को देखते ही पूछा, “क्या हाल है?”

जवाब दिया, “अच्छे हैं, होश में आ गए, चलिए देखिए.”

यह सुन महाराज अंदर गए.

उन्हें देखते ही कुमार उठ खड़े हुए, महाराज ने गले से लगा लिया. पूछा, “मिजाज कैसा है?”

कुमार ने कहा, “अच्छा है.”

कई लौंडियाँ भी उस जगह आईं, जिनको कुमार का हाल लेने के लिए महारानी ने भेजा था. एक लौंडी से तेज सिंह ने कहा, “दोनों लाशों में से जो टुकड़े हाथ-पैर के मैंने काटे थे उन्हें ले आ.”

यह सुन लौंडी दौड़ी गई और वे टुकड़े ले आई. तेज सिंह ने कुमार को दिखला कर कहा, “देखिए यह बनावटी लाश है या नहीं, इसमें हड्डी कहाँ है?”

कुमार ने देख कर कहा, “ठीक है, मगर उन लोगों ने बड़ी बदमाशी की.”

तेज सिंह ने कहा, “खैर, जो होना था हो गया, देखिए अब हम क्या करते हैं.”

सवेरा हो गया. महाराज, कुमार और तेज सिंह बैठे बातें कर रहे थे कि हरदयाल सिंह ने पहुँच कर महाराज को सलाम किया. उन्होंने बैठने का इशारा किया. दीवान साहब बैठ गए और सभी को वहाँ से हट जाने के लिए हुक्म दिया.

जब निराला हो गया, हरदयालसिंह ने तेज सिंह से पूछा, “मैंने सुना है कि वह बनावटी लाश थी, जिसको सभी ने कुमारी की लाश समझा था?”

तेज सिंह ने कहा, “जी हाँ ठीक बात है.”

और तब बिल्कुल हाल समझाया.

इसके बाद दीवान साहब ने कहा, “और गजब देखिए. कुमारी के मरने की खबर सुन कर सब परेशान थे. सरकारी नौकरों में से जिन लोगों ने यह खबर सुनी दौड़े हुए महल के दरवाजे पर रोते-चिल्लाते चले आए. उधर जहाँ ऐयार लोग कैद थे पहरा कम रह गया, मौका पा कर उनके साथी ऐयारों ने वहाँ धावा किया और पहरे वालों को जख्मी कर अपनी तरफ के सब ऐयारों को जो कैद थे, छुड़ा ले गए.”

यह खबर सुन कर तेज सिंह, कुमार और महाराज सन्न हो गए.

कुमार ने कहा, “बड़ी मुश्किल में पड़ गए. अब कोई भी ऐयार उनका हमारे यहाँ न रहा, सब छूट गए. कुमारी और चपला को ले गए, यह तो गजब ही किया. अब नहीं बर्दाश्त होता, हम आज ही कूच करेंगे और दुश्मनों से इसका बदला लेंगे.”

यह बात कह ही रहे थे कि एक चोबदार ने आ कर अर्ज़ किया कि लड़ाई की खबर ले कर एक जासूस आया है, दरवाजे पर हाज़िर है, उसके बारे में क्या हुक्म है?”

हरदयाल सिंह ने कहा, “इसी जगह हाज़िर करो.”

जासूस लाया गया. उसने कहा, “दुश्मनों को रोकने के लिए यहाँ से मुसलमानी फौज भेजी गई थी. उसके पहुँचने तक दुश्मन चार कोस और आगे बढ़ आए थे. मुकाबले के वक्त ये लोग भागने लगे. यह हाल देख कर तोपखाने वालों ने पीछे से बाढ़ मारी, जिससे करीब चौथाई आदमी मारे गए. फिर भागने का हौसला न पड़ा और खूब लड़े. यहाँ तक कि लगभग हजार दुश्मनों को काट गिराया, लेकिन वह फौज भी तमाम हो चली, अगर फौरन मदद न भेजी जाएगी, तो तोपखाने वाले भी मारे जाएंगे.”

यह सुनते ही कुमार ने दीवान हरदयाल सिंह को हुक्म दिया, “पाँच हजार फौज जल्दी मदद पर भेजी जाए और वहाँ पर हमारे लिए भी खेमा रवाना करो, दोपहर को हम भी उस तरफ कूच करेंगे.”

हरदयाल सिंह फौज भेजने के लिए चले ग.

महाराज ने कुमार से कहा, “हम भी तुम्हारे साथ चलेंगे.”

कुमार ने कहा, “ऐसी जल्दी क्या है? आप यहाँ रहें, राज्य का काम देखें. मैं जाता हूँ, जरा देखूं तो राजा शिवदत्त कितनी बहादुरी रखता है? अभी आपको तकलीफ़ करने की कुछ जरूरत नहीं.”

थोड़ी देर तक बातचीत होने के बाद महाराज उठ कर महल में चले गए. कुमार और तेज सिंह भी स्नान और संध्या-पूजा की फ़िक्र में उठे. सबसे जल्दी तेज सिंह ने छुट्टी पाई और मुनादी वाले को बुला कर हुक्म दिया कि तू तमाम शहर में इस बात की मुनादी कर आ, “दंतारबीर का जिसको इष्ट हो वह तेज सिंह के पास हाज़िर हो.”

बमूजिब हुक्म के मुनादी वाला मुनादी करने चला गया. सभी को ताज्ज़ुब था कि तेज सिंह ने यह क्या मुनादी करवाई है.

बयान – 2

मामूली वक्त पर आज महाराज ने दरबार किया. कुमार और तेज सिंह भी हाज़िर हुए. आज का दरबार बिल्कुल सुस्त और उदास था, मगर कुमार ने लड़ाई पर जाने के लिए महाराज से इज़ाज़त ले ली और वहाँ से चले गए. महाराज भी उदासी की हालत में उठ के महल में चले गए. यह तो निश्चय हो गया कि चंद्रकांता और चपला जीती हैं, मगर कहाँ हैं, किस हालत में हैं, सुखी हैं या दु:खी? इन सब बातों का ख़याल करके महल में महारानी से ले कर लौंडी तक सब उदास थीं. सभी की आँखों से आँसू जारी थे, खाने-पीने की किसी को भी फ़िक्र न थी, एक चंद्रकांता का ध्यान ही सभी का काम था.

महाराज जब महल में गए महारानी ने पूछा कि चंद्रकांता का पता लगाने की कुछ फ़िक्र की गई?”

महाराज ने कहा, “हाँ तेज सिंह उसकी खोज में जाते हैं, उनसे ज्यादा पता लगाने वाला कौन है, जिससे मैं कहूँ? वीरेंद्र सिंह भी इस वक्त लड़ाई पर जाने के लिए मुझसे विदा हो गए, अब देखो क्या होता है.”

बयान – 3

कुछ दिन बाकी है. एक मैदान में हरी-हरी दूब पर पंद्रह-बीस कुर्सियाँ रखी हुई हैं और सिर्फ तीन आदमी कुँवर वीरेंद्र सिंह, तेज सिंह और फतह सिंह सेनापति बैठे हैं, बाकी कुर्सियाँ खाली पड़ी हैं.

उनके पूरब की तरफ सैकड़ों खेमे अर्धाचंद्राकार खड़े हैं. बीच में वीरेंद्र सिंह के पलटन वाले अपने-अपने हरबों को साफ और दुरुस्त कर रहे हैं. बड़े-बड़े शामियानों के नीचे तोपें रखी हैं, जो हर एक तरह से लैस और दुरुस्त मालूम हो रही हैं. दक्षिण की तरफ घोड़ों का अस्तबल है, जिसमें अच्छे-अच्छे घोड़े बंधे दिखाई देते हैं. पश्चिम तरफ बाजे वालों, सुरंग खोदने वालों, पहाड़ उखाड़ने वालों और जासूसों का डेरा तथा रसद का भंडार है.

कुमार ने फतह सिंह सिपहसालार से कहा, “मैं समझता हूँ कि मेरा डेरा-खेमा सुबह तक ‘लोहरा’ के मैदान में दुश्मनों के मुकाबले में खड़ा हो जाएगा?”

फतह सिंह ने कहा, “जी हाँ! जरूर सुबह तक वहाँ सब सामान लैस हो जाएगा. हमारी फौज भी कुछ रात रहते यहाँ से कूच करके पहर दिन चढ़ने के पहले ही वहाँ पहुँच जाएगी. परसों हम लोगों के हौसले दिखाई देंगे, बहुत दिन तक खाली बैठे-बैठे तबीयत घबरा गई थी.”

इसी तरह की बातें हो रही थीं कि सामने देवी सिंह ऐयारी के ठाठ में आते दिखाई दिए. नज़दीक आ कर देवी सिंह ने कुमार और तेज सिंह को सलाम किया. देवी सिंह को देख कर कुमार बहुत खुश हुए और उठ कर गले लगा लिया.

तेज सिंह ने भी देवी सिंह को गले लगाया और बैठने के लिए कहा. फतह सिंह सिपहसालार ने भी उनको सलाम किया. जब देवी सिंह बैठ गए, तेज सिंह उनकी तारीफ करने लगे.

कुमार ने पूछा, “कहो देवी सिंह, तुमने यहाँ आ कर क्या-क्या किया?”

तेज सिंह ने कहा, “इनका हाल मुझसे सुनिए, मैं मुख्तसर में आपको समझा देता हूँ.”

कुमार ने कहा, “कहो.”

तेज सिंह बोले, “जब आप चंद्रकांता के बाग में बैठे थे और भूत ने आ कर कहा था कि खबर भई राजा को तुमरी सुनो गुरु जी मेरे.”

जिसको सुन कर मैंने जबर्दस्ती आपको वहाँ से उठाया था, वह भूत यही थे. नौगढ़ में भी इन्होंने जा कर क्रूरसिंह के चुनारगढ़ जाने और ऐयारों को संग लाने की खबर खंजरी बजा कर दी थी. जब चंद्रकांता के मरने का गम महल में छाया हुआ था और आप बेहोश पड़े थे, तब भी इन्हीं ने चंद्रकांता और चपला के जीते रहने की खबर मुझको दी थी. तब मैंने उठ कर लाश पहचानी नहीं होती, तो पूरे घर का ही नाश हो चुका था. इतना काम इन्होंने किया. इन्हीं को बुलाने के वास्ते मैंने सुबह मुनादी करवाई थी, क्योंकि इनका कोई ठिकाना तो था ही नहीं.”

यह सुन कर कुमार ने देवी सिंह की पीठ ठोंकी और बोले, “शाबास! किस मुँह से तारीफ करें, दो घर तुमने बचाए.”

देवी सिंह ने कहा, “मैं किस लायक हूँ, जो आप इतनी तारीफ़ करते हैं. तारीफ़ सब कामों से निश्चिंत होकर कीजिएगा, इस वक्त चंद्रकांता को छुड़ाने की फ़िक्र करनी चाहिए. अगर देर होगी, तो न जाने उनकी जान पर क्या आ बने? सिवाय इसके इस बात का भी ख्याल रखना चाहिए कि अगर हम लोग बिल्कुल चंद्रकांता ही की खोज में लीन हो जाएंगे, तो महाराज की लड़ाई का नतीजा बुरा हो जाएगा.”

यह सुन कुमार ने पूछा, “देवी सिंह यह तो बताओ चंद्रकांता कहाँ है? उसको कौन ले गया?”

देवी सिंह ने जवाब दिया, “यह तो नहीं मालूम कि चंद्रकांता कहाँ है? हाँ, इतना जानता हूँ कि नाज़िम और बद्रीनाथ मिल कर कुमारी और चपला को ले गए, पता लगाने से लग ही जाएगा.”

तेज सिंह ने कहा, “अब तो दुश्मन के सब ऐयार छूट गए, वे सब मिल कर नौ हैं और हम दो ही आदमी ठहरे. चाहे चंद्रकांता और चपला को खोजें, चाहे फौज में रह कर कुमार की हिफ़ाज़त करें, बड़ी मुश्किल है.”

देवी सिंह ने कहा, “कोई मुश्किल नहीं है. सब काम हो जाएगा, देखिए तो सही. अब पहले हमको शिवदत्त के मुकाबले में चलना चाहिए, उसी जगह से कुमारी के छुड़ाने की फ़िक्र की जाएगी.”

तेज सिंह ने कहा, “हम लोग महाराज से विदा हो आए हैं, कुछ रात रहते यहाँ से पड़ाव उठेगा, पेशखेमा जा चुका है.”

आधी रात तक ये लोग आपस में बातचीत करते रहे, इसके बाद कुमार उठ कर अपने खेमे में चले गए. कुमार के बगल में तेज सिंह का खेमा था, जिसमें देवी सिंह और तेज सिंह दोनों ने आराम किया.

चारों तरफ फौज का पहरा फिरने लगा, गश्त की आवाज आने लगी. थोड़ी रात बाकी थी कि एक छोटी तोप की आवाज हुई, कुछ देर बाद बाजा बजने लगा, कूच की तैयारी हुई और धीर-धीर फौज चल पड़ी.

जब सब फौज जा चुकी, पीछे एक हाथी पर कुमार सवार हुए, जिन्हें चारों तरफ से बहुत-से सवार घेरे हुए थे. तेज सिंह और देवी सिंह अपने ऐयारी के सामान से सजे हुए, कभी आगे, कभी पीछे, कभी साथ, पैदल चले जाते थे. पहर दिन चढ़े कुँवर वीरेंद्र सिंह का लश्कर शिवदत्त सिंह की फौज के मुकाबले में जा पहुँचा, जहाँ पहले से महाराज जय सिंह की फौज डेरा जमाए हुए थी. लड़ाई बंद थी और मुसलमान सब मारे जा चुके थे, खेमा-डेरा पहले ही से खड़ा था, कायदे के साथ पलटनों का पड़ाव पड़ा.

जब सब इंतज़ाम हो चुका, कुँवर वीरेंद्र सिंह ने अपने खेमे में कचहरी की और मीर मुंशी को हुक्म दिया, “एक खत शिवदत्त को लिखो कि मालूम होता है आजकल तुम्हारे मिज़ाम में गर्मी आ गई है, जो बैठे-बैठाए एक नालायक क्रूर के भड़काने पर महाराज जय सिंह से लड़ाई ठान ली है. यह भी मालूम हो गया कि तुम्हारे ऐयार चंद्रकांता और चपला को चुरा लाए हैं, सो बेहतर है कि चंद्रकांता और चपला को इज्ज़त के साथ महाराज जय सिंह के पास भेज दो और तुम वापस जाओ, नहीं तो पछताओगे. जिस वक्त हमारे बहादुरों की तलवारें मैदान में चमकेंगी, भागते राह न मिलेगी.”

बमूजिम हुक्म के मीर मुंशी ने खत लिख कर तैयार की.

कुमार ने कहा, “यह खत कौन ले जाएगा?”

यह सुन देवी सिंह सामने हाथ जोड़ कर बोले, “मुझको इज़ाज़त मिले कि इस खत को ले जाऊं क्योंकि शिवदत्त सिंह से बातचीत करने की मेरे मन में बड़ी लालसा है.”

कुमार ने कहा, “इतनी बड़ी फौज में तुम्हारा अकेला जाना अच्छा नहीं है.”

तेज सिंह ने कहा, “कोई हर्ज़ नहीं, जाने दीजिए.”

आखिर कुमार ने अपनी कमर से खंजर निकाल कर दिया, जिसे देवी सिंह ने ले कर सलाम किया, खत बटुए में रख ली और तेज सिंह के चरण छू कर रवाना हुए.

महाराज शिवदत्त सिंह के पलटन वालों में कोई भी देवी सिंह को नहीं पहचानता था. दूर से इन्होंने देखा कि बड़ा-सा कारचोबी खेमा खड़ा है. समझ गए कि यही महाराज का खेमा है, सीधे धड़धड़ाते हुए खेमे के दरवाजे पर पहुँचे और पहरे वालों से कहा, “अपने राजा को जा कर खबर करो कि कुँवर वीरेंद्र सिंह का एक ऐयार खत ले कर आया है, जाओ जल्दी जाओ.”

सुनते ही प्यादा दौड़ा गया और महाराज शिवदत्त से इस बात की खबर की.

उन्होंने हुक्म दिया, “आने दो.”

देवी सिंह खेमे के अंदर गए. देखा कि बीच में महाराज शिवदत्त सोने के जड़ाऊ सिंहासन पर बैठे हैं, बाईं तरफ दीवान साहब और इसके बाद दोनों तरफ बड़े-बड़े बहादुर बेशकीमती पोशाकें पहने उम्दे-उम्दे हरबे लगाए चाँदी की कुर्सियों पर बैठे हैं, जिनके देखने से कमजोरों का कलेजा दहलता है. बाद इसके दोनों तरफ नीम कुर्सियों पर ऐयार लोग विराजमान हैं. इसके बाद दरजे-बे-दरजे अमीर और ओहदेदार लोग बैठे हैं, बहुत से चोबदार हाथ बांधे सामने खड़े हैं. गरज कि बड़े रोआब का दरबार देखने में आया.

देवी सिंह किसी को सलाम किए बिना ही बीच में जा कर खड़े हो गए और एक दफ़ा चारों तरफ निगाह दौड़ा कर गौर से देखा, फिर बढ़ कर कुमार की खत महाराज के सामने सिंहासन पर रख दी.

देवी सिंह की बेअदबी देख कर महाराज शिवदत्त मारे गुस्से के लाल हो गए और बोले, “एक मच्छर को इतना हौसला हो गया कि हाथी का मुकाबला कर. अभी तो वीरेंद्र सिंह के मुँह से दूध की महक भी गई न होगी.”

यह कहते हुए खत हाथ में ले कर फाड़ दिया.

खत का फटना था कि देवी सिंह की आँखें लाल हो गईं. बोले, “जिसके सर मौत सवार होती है, उसकी बुद्धि पहले ही हवा खाने चली जाती है.” देवी सिंह की बात तीर की तरह शिवदत्त के कलेजे के पार हो गई.

बोले, “पकड़ो इस बेअदब को.” इतना कहना था कि कई चोबदार देवी सिंह की तरफ झुक. इन्होंने खंजर निकाल दो-तीन चोबदारों की सफाई कर डाली और फुर्ती से अपने ऐयारी के बटुए में से एक गेद निकाल कर जोर से जमीन पर मार, जिससे बड़ी भारी आवाज हुई. दरबार दहल उठा, महाराज एकदम चौंक पड़े, जिससे सिर का शमला जिस पर हीरे का सरपेंच था, जमीन पर गिर पड़ा. लपक के देवी सिंह ने उसे उठा लिया और कूद कर खेमे के बाहर निकल गए. सब के सब देखते रह गए, किसी के किए कुछ बन न पड़ा.

सारा गुस्सा शिवदत्त ने ऐयारों पर निकाला जो कि उस दरबार में बैठे थे. कहा, “लानत है तुम लोगों की ऐयारी पर जो तुम लोगों के देखते दुश्मन का एक अदना ऐयार हमारी बेइज्जती कर जाए.”

बद्रीनाथ ने जवाब दिया, “महाराज, हम लोग ऐयार हैं, हजार आदमियों में अकेले घुस कर काम करते हैं, मगर एक आदमी पर दस ऐयार नहीं टूट पड़त. यह हम लोगों के कायदे के बाहर है. बड़े-बड़े पहलवान तो बैठे थे, इन लोगों ने क्या कर लिया?”

बद्रीनाथ की बात का जवाब शिवदत्त ने कुछ न दे कर कहा, “अच्छा कल हम देख लेंगे.”

बयान – 4

महाराज शिवदत्त का शमला लिए हुए देवी सिंह कुँवर वीरेंद्र सिंह के पास पहुँचे और जो कुछ हुआ था बयान किया.

कुमार यह सुन कर हँसने लगे और बोले, “चलो सगुन तो अच्छा हुआ.”

तेज सिंह ने कहा, “सबसे ज्यादा अच्छा सगुन तो मेरे लिए हुआ कि शागिर्द पैदा कर लाया.”

यह कह शमले में से सरपेंच खोल बटुए में दाखिल किया.

कुमार ने कहा, “भला तुम इसका क्या करोगे? तुम्हारे किस मतलब का है?”

तेज सिंह ने जवाब दिया, “इसका नाम फतह का सरपेंच है, जिस रोज आपकी बारात निकलेगी. महाराज शिवदत्त की सूरत बना इसी को माथे पर बांध मैं आगे-आगे झंडा ले कर चलूंगा.”

यह सुन कर कुमार ने हँस दिया, पर साथ ही इसके दो बूंद आँसू आँखों से निकल पड़े, जिनको जल्दी से कुमार ने रूमाल से पोंछ लिया. तेज सिंह समझ गए कि यह चंद्रकांता की जुदाई का असर है. इनको भी चपला का बहुत कुछ ख़याल था.

देवी सिंह से बोले, “सुनो देवी सिंह, कल लड़ाई जरूर होगी इसलिए एक ऐयार का यहाँ रहना जरूरी है और सबसे जरूरी काम चंद्रकांता का पता लगाना है.”

देवी सिंह ने तेज सिंह से कहा, “आप यहाँ रह कर फौज की हिफ़ाज़त कीजिए. मैं चंद्रकांता की खोज में जाता हूँ.”

तेज सिंह ने कहा, “नहीं चुनारगढ़ की पहाड़ियाँ तुम्हारी अच्छी तरह देखी नहीं हैं और चंद्रकांता ज़रूर उसी तरफ होगी. इससे यही ठीक होगा कि तुम यहाँ रहो और मैं कुमारी की खोज में जाऊं.”

देवी सिंह ने कहा, “जैसी आपकी ख़ुशी.”

तेज सिंह ने कुमार से कहा, “आपके पास देवी सिंह है. मैं जाता हूँ, जरा होशियारी से रहिएगा और लड़ाई में जल्दी न कीजिएगा.”

कुमार ने कहा, “अच्छा जाओ, ईश्वर तुम्हारी रक्षा करें.”

बातचीत करते शाम हो गई, बल्कि कुछ रात भी चली गई. तेज सिंह उठ खड़े हुए और ज़रूरी चीजें ले, ऐयारी के सामान से लैस हो, वहाँ के एक घने जंगल की तरफ चले गए.

बयान – 5

“चंद्रकांता को ले जा कर कहाँ रखा होगा? अच्छे कमरे में या अंधेरी कोठरी में? उसको खाने को क्या दिया होगा और वह बेचारी सिवाय रोने के क्या करती होगी? खाने-पीने की उसे कब सुध होगी? उसका मुँह दु:ख और भय से सूख गया होगा. उसको राज़ी करने के लिए तंग करते होंगे. कहीं ऐसा न हो कि उसने तंग होकर जान दे दी हो.” इन्हीं सब बातों को सोचते और ख़याल करते कुमार को रात-भर नींद न आई. सवेरा होने ही वाला था कि महाराज शिवदत्त के लश्कर से डंके की आवाज आई.

मालूम हुआ कि दुश्मनों की तरफ लड़ाई का सामान हो रहा है. कुमार भी उठ बैठे, हाथ-मुँह धोए. इतने में हरकारे ने आ कर खबर दी कि दुश्मनों की तरफ लड़ाई का सामान हो रहा है. कुमार ने भी कहा, “हमारे यहाँ भी जल्दी तैयारी की जाए.”

हुक्म पा कर हरकारा रवाना हुआ. जब तक कुमार ने स्नान-संध्या से छुट्टी पाई, तब तक दोनों तरफ की फौजें भी मैदान में जा डटीं. बेलदारों ने जमीन साफ कर दी.

कुमार भी अपने अरबी घोड़े पर सवार हो मैदान में गए और देवी सिंह से कहा, “शिवदत्त को कहना चाहिए कि बहुत से आदमियों का खून कराना अच्छा नहीं. जिस-जिस को बहादुरी का घमंड हो, एक-एक लड़ के जल्दी मामला तय कर लें. शिवदत्त सिंह अपने को अर्जुन समझते हैं, उनके मुकाबले के लिए मैं मौजूद हूँ, क्यों बेचारे गरीब सिपाहियों की जान जाए?”

देवी सिंह ने कहा, “बहुत अच्छा, अभी इस मामले को तय कर डालता हूँ.”

यह कह मैदान में गए और अपनी चादर हवा में दो-तीन दफ़ा उछाली. चादर उछालनी थी कि झट बद्रीनाथ ऐयार महाराज शिवदत्त के लश्कर से निकल के मैदान में देवी सिंह के पास आए और बोले, “जय माता की.”

देवी सिंह ने भी जवाब दिया, “जय माता की.”

बद्रीनाथ ने पूछा, “क्यों क्या बात है, जो मैदान में आ कर ऐयारों को बुलाते हो?”

देवी सिंह – “तुमसे एक बात कहनी है.”

बद्रीनाथ, “कहो.”

देवी सिंह – “तुम्हारी फौज में मर्द बहुत हैं कि औरत?”

बद्रीनाथ – “औरत की सूरत भी दिखाई नहीं देती.”

देवी सिंह – “तुम्हारे यहाँ कोई बहादुर भी है कि सब गरीब सिपाहियों की जान लेने और आप तमाशा देखने वाले ही हैं?”

बद्रीनाथ – “हमारे यहाँ बहादुरों कि भरमार है.”

देवी सिंह – “तुम्हारे कहने से तो मालूम होता है कि सब खेत की मूली ही हैं.”

बद्रीनाथ – “यह तो मुकाबला होने ही से मालूम होगा.”

देवी सिंह – “तो क्यों नहीं एक पर एक लड़ के हौसला निकाल लेते? ऐसा करने से मामला भी जल्द तय हो जाएगा और बेचारे सिपाहियों की जानें भी मुफ्त में न जाएंगी. हमारे कुमार तो कहते हैं कि महाराज शिवदत्त को अपनी बहादुरी का बड़ा भरोसा है. आएं पहले हम से ही भिड़ जाएं, या वही जीत जाएं या हम ही चुनारगढ़ की गद्दी के मालिक हों, बात-ही-बात में मामला तय होता है.”

बद्रीनाथ – “तो इसमें हमारे महाराज कभी न हटेंगे, वह बड़े बहादुर हैं. तुम्हारे कुमार को तो चुटकी से मसल डालेंगे.”

देवी सिंह – “यह तो हम भी जानते हैं कि उनकी चुटकी बहुत साफ है, फिर आएं मैदान में.”

इस बातचीत के बाद बद्रीनाथ लौट कर अपनी फौज में गए और जो कुछ देवी सिंह से बातचीत हुई थी जा कर महाराज शिवदत्त से कहा.

सुनते ही महाराज शिवदत्त तो लाल हो गए और बोले, “यह कल का लड़का मेरे साथ मुकाबला करना चाहता है.”

बद्रीनाथ ने कहा, “फिर हियाव ही तो है, हौसला ही तो है, इसमें रंज होने की क्या बात है? मैं जहाँ तक समझता हूँ, उनका कहना ठीक है.”

यह सुनते ही महाराज शिवदत्त झट घोड़ा कुदा कर मैदान में आ गए और भाला उठा कर हिलाया, जिसको देख वीरेंद्र सिंह ने भी अपने घोड़े को एड़ मारी और मैदान में शिवदत्त के मुकाबले में पहुँच कर ललकारा, “अपने मुँह अपनी तारीफ़ करता है और कहता है कि मैं वीर हूँ? क्या बहादुर लोग चोट्टे भी होते हैं? जवांमर्दी से लड़ कर चंद्रकांता न ली गई? लानत है, ऐसी बहादुरी पर.”

वीरेंद्र सिंह की बात तीर की तरह महाराज शिवदत्त के कलेजे में लगी. कुछ जवाब तो न दे सके, गुस्से में भरे हुए बड़े जोर से कुमार पर नेजा चलाया. कुमार ने अपने नेजे से ऐसा झटका दिया कि उनके हाथ से नेजा छटक कर दूर जा गिरा.

यह तमाशा देख दोस्त-दुश्मन दोनों तरफ से ‘वाह-वाह’ की आवाज आने लगी. शिवदत्त बहुत बिगड़ा और तलवार निकाल कर कुमार पर दौड़ा, कुमार ने तलवार का जवाब तलवार से दिया.

दोपहर तक दोनों में लड़ाई होती रही, दोपहर बाद कुमार की तलवार से शिवदत्त का घोड़ा जख्मी हो कर गिर पड़ा, बल्कि खुद महाराज शिवदत्त को कई जगह जख्म लगे. घोड़े से कूद कर शिवदत्त ने कुमार के घोड़े को मारना चाहा, मगर मतलब समझ के कुमार भी झट घोड़े पर से कूद पड़े और आगे हो कर एक कोड़ा इस जोर से शिवदत्त की कलाई पर मारा कि हाथ से तलवार छूट कर जमीन पर गिर पड़ी, जिसको दौड़ के देवी सिंह ने उठा लिया. महाराज शिवदत्त को मालूम हो गया कि कुमार हर तरह से जबर्दस्त है, अगर थोड़ी देर और लड़ाई होगी तो हम बेशक मारे जाएंगे या पकड़े जाएंगे.

यह सोच कर अपनी फौज को कुमार पर धावा करने का इशारा किय. बस एकदम से कुमार को उन्होंने घेर लिया. यह देख कुमार की फौज ने भी मारना शुरू किया. फतह सिंह सेनापति और देवी सिंह कोशिश करके कुमार के पास पहुँचे और तलवार और खंजर चलाने लगे. दोनों फौजें आपस में खूब गुथ गईं और गहरी लड़ाई होने लगी.

शिवदत्त के बड़े-बड़े पहलवानों ने चाहा कि इसी लड़ाई में कुमार का काम तमाम कर दें, मगर कुछ बन न पड़ा. कुमार के हाथ से बहुत दुश्मन मारे गए. शाम को उतारे का डंका बजा और लड़ाई बंद हुई. फौज ने कमर खोली. कुमार अपने खेमे में आए मगर बहुत सुस्त हो रहे थे, फतह सिंह सेनापति भी जख्मी हो गए थे. रात को सभी ने आराम किया.

महाराज शिवदत्त ने अपने दीवान और पहलवानों से राय ली थी कि अब क्या करना चाहिए. फौज तो वीरेंद्र सिंह की हमसे बहुत कम है, मगर उनकी दिलावरी से हमारा हौसला टूट जाता है क्योंकि हमने भी उससे लड़ के बहुत जक उठाई. हमारी तो यही राय है कि रात को कुमार के लश्कर पर धावा मारें.

इस राय को सभी ने पसंद किया. थोड़ी रात रहे शिवदत्त ने कुमार की फौज पर पाँच सौ सिपाहियों के साथ धावा किया. बड़ा ही गड़बड़ मची. अंधेरी रात में दोस्त-दुश्मनों का पता लगाना मुश्किल था. कुमार की फौज दुश्मन समझ अपने ही लोगों को मारने लगी.

यह खबर वीरेंद्र सिंह को भी लगी. झट अपने खेमे से बाहर निकल आए. देवी सिंह ने बहुत से आदमियों को महताब जलाने के लिए बांटी. यह महताब तेज सिंह ने अपनी तरकीब से बनाई थीं. इसके जलाते ही उजाला हो गया और दिन की तरह मालूम होने लगा. अब क्या था, कुल पाँच सौ आदमियों को मारना क्या, सुबह होते-होते शिवदत्त के पाँच सौ आदमी मारे गए, मगर रोशनी होने के पहले करीब हजार आदमी कुमार की तरफ के नुकसान हो चुके थे, जिसका रंज वीरेंद्र सिंह को बहुत हुआ और सुबह को लड़ाई बंद न होने दी.

दोनों फौजें फिर गुंथ गईं. कुमार ने जल्दी से स्नान किया और संध्या-पूजा करके हरबों को बदन पर सजा दुश्मन की फौज में घुस गए. लड़ाई खूब हो रही थी, किसी को तनोबदन की खबर न थी. एकाएक पूरब और उतर के कोने से कुछ फौजी सवार तेजी से आते हुए दिखाई दिए, जिनके आगे-आगे एक सवार बहुत उम्दा पोशाक पहने अरबी घोड़े पर सवार घोड़ा दौड़ाए चला आता था. उसके पीछे और भी सवार जो करीब-करीब पाँच सौ के होंगे. घोड़ा फेंके चले आ रहे थे. अगले सवार की पोशाक और हरबों से मालूम होता था कि यह सभी का सरदार है. सरदार ने मुँह पर नकाब डाल रखा था.

इस फौज ने पीछे से महाराज शिवदत्त की फौज पर धावा किया और खूब मारा. इधर से वीरेंद्र सिंह की फौज ने जब देखा कि दुश्मनों को मारने वाला एक और आ पहुँचा, तबीयत बढ़ गई और हौसले के साथ लड़ने लग. दो तरफी चोट महाराज शिवदत्त की फौज संभाल न पाई और भाग चली.

फिर तो कुमार की बन पड़ी, दो कोस तक पीछा किया, आखिर फतह का डंका बजाते अपने पड़ाव पर आए, मगर हैरान थे कि ये नकाबपोश सवार कौन थे, जिन्होंने बड़े वक्त पर हमारी मदद की और फिर जिधर से आए थे उधर ही चले गए. कोई किसी की जरा मदद करता है, तो अहसान जताने लगता है मगर इन्होंने हमारा सामना भी नहीं किया, यह बड़ी बहादुरी का काम है. बहुत सोचा, मगर कुछ समझ न पड़ा.

महाराज शिवदत्त का बिल्कुल माल-खजाना और खेमा वगैरह कुमार के हाथ लगा. जब कुमार निश्चित हुए उन्होंने देवी सिंह से पूछा, “क्या तुम कुछ बता सकते हो कि वे नकाबपोश कौन थे, जिन्होंने हमारी मदद की?”

देवी सिंह ने कहा, “मेरे कुछ भी ख़याल में नहीं आता, मगर वाह. बहादुरी इसको कहते हैं.”

इतने में एक जासूस ने आ कर खबर दी कि दुश्मन थोड़ी दूर जा कर अटक गए हैं और फिर लड़ाई की तैयारी कर रहे हैं.

बयान 6

तेज सिंह चंद्रकांता और चपला का पता लगाने के लिए कुँवर वीरेंद्र सिंह से विदा हो फौज के हाते के बाहर आए और सोचने लगे कि अब किधर जाएं? कहाँ ढूंढे? दुश्मन की फौज में देखने की तो कोई ज़रूरत नहीं, क्योंकि वहाँ चंद्रकांता को कभी नहीं रखा होगा, इससे चुनारगढ़ ही चलना ठीक है.

यह सोच कर चुनारगढ़ ही की तरफ रवाना हुए और दूसरे दिन सवेरे वहाँ पहुँचे. सूरत बदल कर इधर-उधर घूमने लगे. जगह-जगह पर अटकते और अपना मतलब निकालने की फ़िक्र करते थे, मगर कुछ फायदा न हुआ, कुमारी की खबर कुछ भी मालूम न हुई.

रात को तेज सिंह सूरत बदल किले के अंदर घुस गए और इधर-उधर ढूंढने लगे. घूमते-घूमते मौका पा कर वे एक काले कपड़े से अपने बदन को ढांक, कमंद फेंक महल पर चढ़ गए.

इस समय आधी रात जा चुकी होगी. छत पर से तेज सिंह ने झांक कर देखा, तो सन्नाटा मालूम पड़ा, मगर रोशनी खूब हो रही थी. तेज सिंह नीचे उतरे और एक दालान में खड़े हो कर देखने लगे.

सामने एक बड़ा कमरा था, जो कि बहुत खूबसूरती के साथ बेशकीमती असबाबों और तस्वीरों से सजा हुआ था. रोशनी ज्यादा न थी, सिर्फ शमादान जल रहे थे, बीच में ऊँची मसनद पर एक औरत सो रही थी. चारों तरफ उसके कई औरतें भी फर्श पर पड़ी हुई थीं. तेज सिंह आगे बढ़े और एक-एक करके रोशनी बुझाने लगे, यहाँ तक कि सिर्फ उस कमरे में एक रोशनी रह गई और सब बुझ गईं.

अब तेज सिंह उस कमरे की तरफ बढ़े, दरवाजे पर खड़े हो कर देखा, तो पास से वह सूरत बखूबी दिखाई देने लगी जिसको दूर से देखा था. तमाम बदन शबनमी से ढ़का हुआ, मगर ख़ूबसूरत चेहरा खुला था, करवट के सबब कुछ हिस्सा मुँह का नीचे के मखमली तकिए पर होने से छिपा हुआ था, गोरा रंग, गालों पर सुर्खी जिस पर एक लट खुल कर आ पड़ी थी, जो बहुत ही भली मालूम होती थी. आँख के पास शायद किसी जख्म का घाव था, मगर यह भी भला मालूम होता था. तेज सिंह को यकीन हो गया कि बेशक महाराज शिवदत्त की रानी यही है.

कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने अपने बटुए में से कलम-दवात और एक टुकड़ा कागज का निकाला और जल्दी से उस पर यह लिखा –

“न मालूम क्यों इस वक्त मेरा जी चंद्रकांता से मिलने को चाहता है. जो हो, मैं तो उससे मिलने जाती हूँ. रास्ते और ठिकाने का पता मुझे लग चुका है.”

इसके बाद पलंग के पास जा बेहोशी का धतूरा रानी की नाक के पास ले गए, जो साँस लेती दफ़ा उसके दिमाग पर चढ़ गया और वह एकदम से बेहोश हो गई. तेज सिंह ने नाक पर हाथ रख कर देखा, बेहोशी की साँस चल रही थी, झट रानी को तो कपड़े में बांधा और पुर्जा जो लिखा था, वह तकिए के नीचे रखा और वहाँ से उसी कमंद के जरिए से बाहर हुए और गंगा किनारे वाली खिड़की जो भीतर से बंद थी, खोल कर तेजी के साथ पहाड़ी की तरफ निकल गए. बहुत दूर जा एक दर्रे में रानी को और ज्यादा बेहोश करके रख दिया और फिर लौट कर किले के दरवाजे पर आ एक तरफ किनारे छिप कर बैठ गए.

बयान – 7

अब सवेरा होने ही वाला था. महल में लौंडियों की आँखें खुलीं तो महारानी को न देख कर घबरा गईं, इधर-उधर देखा, कहीं नहीं. आखिर खूब गुल-शोर मचा, चारों तरफ खोज होने लगी, पर कहीं पता न लगा. यह खबर बाहर तक फैल गई, सभी को फ़िक्र पैदा हुई. महाराज शिवदत्त सिंह लड़ाई से भागे हुए दस-पंद्रह सवारों के साथ चुनारगढ़ पहुँचे. किले के अंदर घुसते ही मालूम हुआ कि महल में से महारानी गायब हो गई. सुनते ही जान सूख गई, दोहरी चपेट बैठी, धड़धड़ाते हुए महल में चले आए, देखा कि कुहराम मचा हुआ है, चारों तरफ से रोने की आवाज आ रही है.

इस वक्त महाराज शिवदत्त की अजब हालत थी, होशो-हवास ठिकाने नहीं थे, लड़ाई से भाग कर थोड़ी दूर पर फौज को तो छोड़ दिया था और अब ऐयारों को कुछ समझा-बुझा आप चुनारगढ़ चले आए थे, यहाँ यह कैफियत देखी.

आखिर उदास हो कर महारानी के बिस्तरे के पास आए और बैठ कर रोने लगे. तकिए के नीचे से एक कागज का कोना निकला हुआ दिखाई पड़ा, जिसे महाराज ने खोला, देखा कुछ लिखा है. यह कागज वही था जिसे तेज सिंह ने लिख कर रख दिया था.

अब उस पुर्जे को देख महाराज कई तरह की बातें सोचने लगे. एक तो महारानी का लिखा नहीं मालूम होता है, उनके अक्षर इतने साफ नहीं हैं. फिर किसने लिख कर रख दिया? अगर रानी ही का लिखा है, तो उन्हें यह कैसे मालूम हुआ कि चंद्रकांता फलाने जगह छिपाई गई है? अब क्या किया जाए? कोई ऐयार भी नहीं, जिसको पता लगाने के लिए भेजा जाए. अगर किसी दूसरे को वहाँ भेजूं, जहाँ चंद्रकांता कैद है, तो बिल्कुल भंडा फूट जाए.

ऐसी-ऐसी बहुत-सी बातें देर तक महाराज सोचते रहे. आखिर जी में यही आया कि चाहे जो हो मगर एक दफ़ा ज़रूर उस जगह जा कर देखना चाहिए, जहाँ चंद्रकांता कैद है. कोई हर्ज़ नहीं, अगर हम अकेले जा कर देखें. मगर दिन में नहीं, शाम हो जाए तो चलें. यह सोच कर बाहर आए और अपने दीवानखाने में भूखे-प्यासे चुपचाप बैठे रहे. किसी से कुछ न कहा, मगर बिना हुक्म महाराज के बहुत से आदमी महारानी का पता लगाने जा चुके थे.

शाम होने लग. महाराज ने अपनी सवारी का घोड़ा मंगवाया और सवार हो अकेले ही किले के बाहर निकले और पूरब की तरफ रवाना हुए. अब बिल्कुल शाम बल्कि रात हो गई, मगर चाँदनी रात होने के सबब साफ दिखाई देता था. तेज सिंह जो किले के दरवाजे के पास ही छिपे हुए थे, महाराज शिवदत्त को अकेले घोड़े पर जाते देख साथ हो लिए. तीन कोस तक पीछे-पीछे तेजी के साथ चले गए, मगर महाराज को यह न मालूम हुआ कि साथ-साथ कोई छिपा हुआ आ रहा है. अब महाराज ने अपने घोड़े को एक नाले में चलाया, जो बिल्कुल सूखा पड़ा था. जैसे-जैसे आगे जाते थे, नाला गहरा मिलता जाता था और दोनों तरफ के पत्थर के करारे ऊँचे होते जाते थे. दोनों तरफ बड़ा भारी डरावना जंगल तथा बड़े-बड़े साखू तथा आसन के पेड़ थे. खूनी जानवरों की आवाजें कान में पड़ रही थीं. जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाते थे, करारे ऊँचे और नाले के किनारे वाले पेड़ आपस में ऊपर से मिलते जाते थे.

इसी तरह से लगभग एक कोस चले गए. अब नाले में चंद्रमा की चाँदनी बिल्कुल नहीं मालूम होती, क्योंकि दोनों तरफ से दरख्त आपस में बिल्कुल मिल गए थे. अब वह नाला नहीं मालूम होता, बल्कि कोई सुरंग मालूम होती है.

महाराज का घोड़ा पथरीली जमीन और अंधेरा होने के सबब धीरे-धीरे जाने लग. तेज सिंह बढ़ कर महाराज के और पास हो गए. यकायक कुछ दूर पर एक छोटी-सी रोशनी नजर पड़ी, जिससे तेज सिंह ने समझा कि शायद यह रास्ता यहीं तक आने का है और यही ठीक भी निकला.

जब रोशनी के पास पहुँचे देखा कि एक छोटी-सी गुफा है, जिसके बाहर दोनों तरफ लंबे-लंबे ताकतवर सिपाही नंगी तलवार हाथ में लिए पहरा दे रहे हैं, जो बीस के लगभग होंगे. भीतर भी साफ दिखाई देता था कि दो औरतें पत्थरों पर ढासना लगाए बैठी हैं. तेज सिंह ने पहचान तो लिया कि दोनों चंद्रकांता और चपला हैं, मगर सूरत साफ-साफ नहीं नजर पड़ी.

महाराज को देख कर सिपाहियों ने पहचाना और एक ने बढ़ कर घोड़ा थाम लिया, महाराज घोड़े पर से उतर पड़े. सिपाहियों ने दो मशाल जलाए, जिनकी रोशनी में तेज सिंह को अब साफ चंद्रकांता और चपला की सूरत दिखाई देने लगी. चंद्रकांता का मुँह पीला हो रहा था, सिर के बाल खुले हुए थे, और सिर फटा हुआ था. मिट्टी में सनी हुई बदहोशो-हवास एक पत्थर से लगी पड़ी थी और चपला बगल में एक पत्थर के सहारे उठती हुई चंद्रकांता के सिर पर हाथ रखे बैठी थी. सामने खाने की चीजें रखी हुई थीं, जिनके देखने ही से मालूम होता था कि किसी ने उन्हें छुआ तक नहीं. इन दोनों की सूरत से नाउम्मीदी बरस रही थी, जिसे देखते ही तेज सिंह की आँखों से आँसू निकल पड़े.

महाराज ने आते ही इधर-उधर देखा. जहाँ चंद्रकांता बैठी थी, वहाँ भी चारों तरफ देखा. मगर कुछ मतलब न निकला, क्योंकि वह तो रानी को खोजने आए थे, उस पुर्जे पर, जो रानी के बिस्तर पर पाया था. महाराज को बड़ी उम्मीद थी, मगर कुछ न हुआ. किसी से कुछ पूछा भी नहीं, चंद्रकांता की तरफ भी अच्छी तरह नहीं देखा और लौट कर घोड़े पर सवार हो पीछे फिरे. सिपाहियों को महाराज के इस तरह आ कर फिर जाने से ताज्ज़ुब हुआ, मगर पूछता कौन? मजाल किसकी थी? तेज सिंह ने जब महाराज को फिरते देखा, तो चाहा कि वहीं बगल में छिप रहें. मगर छिप न सके क्योंकि नाला तंग था और ऊपर चढ़ जाने को भी कहीं जगह न थी. लाचार नाले के बाहर होना ही पड़ा. तेजी के साथ महाराज के पहले नाले के बाहर हो गए और एक किनारे छिप रहे. महाराज वहाँ से निकल शहर की तरफ रवाना हुए.

अब तेज सिंह सोचने लगे कि यहाँ से मैं अकेले चंद्रकांता को कैसे छुड़ा सकूंगा? लड़ने का मौका नहीं, करूं तो क्या करूं? अगर महाराज की सूरत बन जाऊं और कोई तरकीब करूं, तो भी ठीक नहीं होता क्योंकि महाराज अभी यहाँ से लौटे हैं, दूसरी कोई तरकीब करूं और काम न चले, बैरी को मालूम हो जाए, तो यहाँ से फिर चंद्रकांता दूसरी जगह छिपा दी जाएगी, तब और भी मुश्किल होगी. इससे यही ठीक है कि कुमार के पास लौट चलूं और वहाँ से कुछ आदमियों को लाऊं क्योंकि इस नाले में अकेले जा कर इन लोगों का मुकाबला करना ठीक नहीं है.

यही सब-कुछ सोच तेज सिंह विजयगढ़ की तरफ चले, रात-भर चले, दूसरे दिन दोपहर को वीरें द्रसिंह के पास पहुँचे.

कुमार ने तेज सिंह को गले लगाया और बेताबी के साथ पूछा, “क्यों कुछ पता लगा?”

जवाब में ‘हाँ’ सुन कर कुमार बहुत खुश हुए और सभी को विदा किया. केवल कुमार, देवी सिंह, फतहसिंह सेनापति और तेज सिंह रह गए. कुमार ने खुलासा हाल पूछा.

तेज सिंह ने सब हाल कह सुनाया और बोले, “अगर किसी दूसरे को छुड़ाना होता या किसी गैर को पकड़ना होता, तो मैं अपनी चालाकी कर गुजरता, अगर काम बिगड़ जाता, तो भाग निकलता. मगर मामला चंद्रकांता का है, जो बहुत सुकुमार है. न तो मैं अपने हाथ से उसकी गठरी बांध सकता हूँ और न किसी तरह की तकलीफ़ देना चाहता हूँ. होना ऐसा चाहिए कि वार खाली न जाए. मैं सिर्फ देवी सिंह को लेने आया हूँ और अभी लौट जाऊंगा. मुझे मालूम हो गया कि आपने महाराज शिवदत्त पर फ़तह पाई है. अभी कोई हर्ज़ भी देवी सिंह के बिना आपका न होगा/”

कुमार ने कहा, “देवी सिंह भी चलें और मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूँ, क्योंकि यहाँ तो अभी लड़ाई की कोई उम्मीद नहीं और फिर फतह सिंह हैं ही और कोई हर्ज़ भी नहीं.”

तेज सिंह ने कहा, “अच्छी बात है, आप भी चलिए.”

यह सुन कर कुमार उसी वक्त तैयार हो गए और फतह सिंह को बहुत-सी बातें समझा-बुझा कर शाम होते-होते वहाँ से रवाना हुए. कुमार घोड़े पर, तेज सिंह और देवी सिंह पैदल कदम बढ़ाते चले. रास्ते में कुमार ने शिवदत्त सिंह पर फ़तह पाने का पूरा हाल कहा और उन सवारों का हाल भी कहा, जो मुँह पर नकाब डाले हुए थे और जिन्होंने बड़े वक्त पर मदद की थी. उनका हाल सुन कर तेज सिंह भी हैरान हुए, मगर कुछ ख़याल में न आया कि वे नकाबपोश कौन थे?

यही सब सोचते जा रहे थे. रात चाँदनी थी, रास्ता साफ दिखाई दे रहा था. कुल चार कोस के लगभग गए होंगे कि रास्ते में पंडित बद्रीनाथ अकेले दिखाई पड़े और उन्होंने भी कुमार को देख कर पास आ सलाम किया. कुमार ने सलाम का जवाब हँस कर दिया.

देवी सिंह ने कहा, “अजी बद्रीनाथ जी, आप क्या उस डरपोक गीदड़ दगाबाज और चोर का संग किए हैं. हमारे दरबार में आइए, देखिए हमारा सरदार क्या शेरदिल और इंसाफ़ पसंद है.”

बद्रीनाथ ने कहा, “तुम्हारा कहना बहुत ठीक है और एक दिन ऐसा ही होगा, मगर जब तक महाराज शिवदत्त से मामला तय नहीं होता, मैं कब आपके साथ हो सकता हूँ और अगर हो भी जाऊं, तो आप लोग कब मुझ पर विश्वास करेंगे, आखिर मैं भी ऐयार हूँ.”

इतना कह कर और कुमार को सलाम कर जल्दी दूसरा रास्ता पकड़ एक घने जंगल में जा नज़र से गायब हो गए.

तेज सिंह ने कुमार से कहा, “रास्ते में बद्रीनाथ का मिलना ठीक न हुआ, अब वह ज़रूर इस बात की खोज में होगा कि हम लोग कहाँ जाते हैं?”

देवी सिंह ने कहा, “हाँ, इसमें कोई शक नहीं कि यह सगुन खराब हुआ.”

यह सुन कर कुमार का कलेजा धड़कने लगा. बोले, “फिर अब क्या किया जाए?”

तेज सिंह ने कहा, “इस वक्त और कोई तरकीब तो हो नहीं सकती है. हाँ, एक बात है कि हम लोग जंगल का रास्ता छोड़ मैदान-मैदान चलें. ऐसा करने से पीछे का आदमी आता हुआ मालूम होगा.”

कुमार ने कहा, “अच्छा तुम आगे चलो.”

अब वे तीनों जंगल छोड़ मैदान में हो लिए. पीछे फिर-फिर के देखते जाते थे, मगर कोई आता हुआ मालूम न पड़ा. रात-भर बेखटके चलते गए. जब दिन निकला, एक नाले के किनारे तीनों आदमियों ने बैठ जरूरी कामों से छुट्टी पा, स्नान संध्या-पूजा किया और फिर रवाना हुए. पहर दिन चढ़ते-चढ़ते एक बड़े जंगल में ये लोग पहुँचे, जहाँ से वह नाला जिसमें चंद्रकांता और चपला थीं, दो कोस बाकी था.

तेज सिंह ने कहा, “दिन इसी जंगल में बिताना चाहिए. शाम हो जाए, तो वहाँ चलें, क्योंकि काम रात ही में ठीक होगा.”

यह कह एक बहुत बड़े सलई के पेड़ तले डेरा जमाया. कुमार के वास्ते जीनपोश बिछा दिया, घोड़े को खोल गले में लंबी रस्सी डाल कर पेड़ से बांधा और चरने के लिए छोड़ दिया.

दिन भर बातचीत और तरकीब सोचने में गुजर गया. सूरज अस्त होने पर ये लोग वहाँ से रवाना हुए. थोड़ी ही देर में उस नाले के पास जा पहुँचे, पहले दूर ही खड़े हो कर चारों तरफ निगाह दौड़ा कर देखा, जब किसी की आहट न मिली तब नाले में घुसे.

कुमार इस नाले को देख बहुत हैरान हुए और बोले, “अजब भयानक नाला है.”

धीरे-धीरे आगे बढ़े. जब नाले के आखिर में पहुँचे, जहाँ पहले दिन तेज सिंह ने चिराग जलते देखा था, तो वहाँ अंधेरा पाया.

तेज सिंह का माथा ठनका कि यह क्या मामला है? आखिर उस कोठरी के दरवाजे पर पहुँचे, जिसमें कुमारी और चपला थीं. देखा कि कई आदमी जमीन पर पड़े हैं. अब तो तेज सिंह ने अपने बटुए में से सामान निकाल रोशनी की, जिससे साफ मालूम हुआ कि जितने पहरे वाले पहले दिन देखे थे, सब जख्मी हो कर मरे पड़े हैं.

अंदर घुसे, कुमारी और चपला का पता नहीं. हाँ दोनों के गहने सब टूटे-फूटे पड़े थे और चारों तरफ खून जमा हुआ था. कुमार से न रहा गया, एकदम ‘हाय’ करके गिर पड़े और आँसू बहाने लगे.

तेज सिंह समझाने लगे कि आप इतने बेताब क्यों हो गए? जिस ईश्वर ने यहाँ तक हमें पहुँचाया. वही फिर उस जगह पहुँचाएगा, जहाँ कुमारी है.”

कुमार ने कहा, “भाई, अब मैं चंद्रकांता के मिलने से नाउम्मीद हो गया, ज़रूर वह परलोक को गई.”

तेज सिंह ने कहा, “कभी नहीं, अगर ऐसा होता, तो इन्हीं लोगों में वह भी पड़ी होती.”

देवी सिंह बोले, “कहीं बद्रीनाथ की चालाकी तो नहीं भाई.’

उन्होंने जवाब दिया, “यह बात भी जी में नहीं बैठती. भला अगर हम यह भी समझ लें कि बद्रीनाथ की चालाकी हुई, तो इन प्यादों को मारने वाला कौन था? अजब मामला है, कुछ समझ में नहीं आता. खैर, कोई हर्ज़ नहीं, वह भी मालूम हो जाएगा, अब यहाँ से जल्दी चलना चाहिए.”

कुँवर वीरेंद्र सिंह की इस वक्त कैसी हालत थी, उसका न कहना ही ठीक है. बहुत समझा-बुझा कर वहाँ से कुमार को उठाया और नाले के बाहर लाए.

देवी सिंह ने कहा, “भला वहाँ तो चलो, जहाँ तुमने शिवदत्त की रानी को रखा है.”

तेज सिंह ने कहा, “चलो.”

तीनों वहाँ गए, देखा कि महारानी कलावती भी वहाँ नहीं है, और भी तबीयत परेशान हुई.

आधी रात से ज्यादा जा चुकी थी, तीनों आदमी बैठे सोच रहे थे कि यह क्या मामला हो गया.

यकायक देवी सिंह बोले, “गुरु जी! मुझे एक तरकीब सूझी है, जिसके करने से यह पता लग जाएगा कि क्या मामला है?आप ठहरिए, इसी जगह आराम कीजिए, मैं पता लगाता हूँ, अगर बन पड़ेगा तो ठीक पता लगाने का सबूत भी लेता आऊंगा.”

तेज सिंह ने कहा, “जाओ तुम ही कोई तारीफफ़ का काम करो, हम दोनों इसी जंगल में रहेंगे.”

देवी सिंह एक देहाती पंडित की सूरत बना रवाना हुए. वहाँ से चुनारगढ़ करीब ही था, थोड़ी देर में जा पहुँचे. दूर से देखा कि एक सिपाही टहलता हुआ पहरा दे रहा है. एक शीशी हाथ में ले उसके पास गए और एक अशर्फी दिखा कर देहाती बोली में बोले, “इस अशर्फी को आप लीजिए और इस इत्र को पहचान दीजिए कि किस चीज का है. हम देहात के रहने वाले हैं, वहाँ एक गंधी गया और उसने यह इत्र दिखा कर हमसे कहा कि ‘अगर इसको पहचान दो, तो हम पाँच अशर्फी तुमको दें’ सो हम देहाती आदमी क्या जानें कौन चीज का इत्र है? इसलिए रातों-रात यहाँ चले आए, परमेश्वर ने आपको मिला दिया है, आप राजदरबार के रहने वाले ठहरे. बहुत इत्र देखा होगा. इसको पहचान के बता दीजिए, तो हम इसी समय लौट के गाँव पहुँच जाएं. सवेरे ही जवाब देने का उस गंधी से वादा है.”

देवी सिंह की बात सुन और पास ही एक दुकान के दरवाजे पर जलते हुए चिराग की रोशनी में अशर्फी को देख खुश हो वह सिपाही दिल में सोचने लगा कि अजब बेवकूफ़ आदमी से पाला पड़ा है. मुफ्त की अशर्फी मिलती है, ले लो. जो कुछ भी जी में आए बता दो, क्या कल मुझसे अशर्फी फेरने आएगा?

यह सोच अशर्फी तो अपने खलीते में रख ली और कहा, “यह कौन बड़ी बात है, हम बता देते हैं.”

 उस शीशी का मुँह खोल कर सूंघा, बस फिर क्या था सूंघते ही जमीन पर लेट गया, दीन दुनिया की खबर न रही. बेहोश होने पर देवी सिंह उस सिपाही की गठरी बांधा, तेज सिंह के पास ले आए और कहा, “यह किले का पहरा देने वाला है. पहले इससे पूछ लेना चाहिए. अगर काम न चलेगा, तो फिर दूसरी तरकीब की जाएगी.”

यह कह उस सिपाही को होश में लाए. वह हैरान हो गया कि यकायक यहाँ कैसे आ फंसे?

देवीसिंह को उसी देहाती पंडित की सूरत में सामने खड़े देखा, दूसरी ओर दो बहादुर और दिखाई दिए. कुछ कहना ही चाहता था कि देवी सिंह ने पूछा, “‘यह बताओ कि तुम्हारी महारानी कहाँ हैं? बताओ जल्दी.”

उस सिपाही ने हाथ-पैर बंधे रहने पर भी कहा कि तुम महारानी को पूछने वाले कौन हो? तुम्हें मतलब?”

तेज सिंह ने उठ कर एक लात मारी और कहा, “बताता है कि मतलब पूछता है.”

अब तो उसने बेहर्ज़ कहना शुरू कर दिया कि महारानी कई दिनों से गायब हैं, कहीं पता नहीं लगता, महल में गुल-गपाड़ा मचा हुआ है, इससे ज्यादा कुछ नहीं जानते.”

तेज सिंह ने कुमार से कहा, “अब पता लगाना कई रोज का काम हो गया. आप अपने लश्कर में जाइए, मैं ढूंढने की फ़िक्र करता हूँ.”

कुमार ने कहा, “अब मैं लश्कर में न जाऊंगा.”

तेज सिंह ने कहा, ‘अगर आप ऐसा करेंगे, तो भारी आफ़त होगी. शिवदत्त को यह खबर लगी, तो फौरन लड़ाई शुरू कर देगा. महाराज जय सिंह यह हाल पा कर और भी घबरा जाएंगे. आपके पिता सुनते ही सूख जाएंगे.”

कुमार ने कहा, “चाहे जो हो, जब चंद्रकांता ही नहीं है, तो दुनिया में कुछ हो मुझे क्या परवाह.”

तेज सिंह ने बहुत समझाया कि ऐसा न करना चाहिए, आप धीरज न छोड़िए, नहीं तो हम लोगों का भी जी टूट जाएगा, फिर कुछ न कर सकेंगे.

आखिर कुमार ने कहा, “अच्छा कल भर हमको अपने साथ रहने दो. कल तक अगर पता न लगा, तो हम लश्कर में चले जाएंगे और फौज ले कर चुनारगढ़ पर चढ़ जाएंगे. हम लड़ाई शुरू कर देंगे, तुम चंद्रकांता की खोज करना.”

तेज सिंह ने कहा, “अच्छा यही सही.”

ये सब बातें इस तौर पर हुई थीं कि उस सिपाही को कुछ भी नहीं मालूम हुआ, जिसको देवी सिंह पकड़ लाए थे.

तेज सिंह ने उस सिपाही को एक पेड़ के साथ कस के बांध दिया और देवी सिंह से कहा, “अब तुम यहाँ कुमार के पास ठहरो मैं जाता हूँ और जो कुछ हाल है, पता लगा लाता हूँ.”

देवी सिंह ने कहा, “अच्छा जाइए.”

तेज सिंह ने देवी सिंह से कई बातें पूछीं और उस सिपाही का भेष बना, किले की तरफ रवाना हुए.

बयान – 8

जिस जंगल में कुमार और देवी सिंह बैठे थे और उस सिपाही को पेड़ से बांधा था, वह बहुत ही घना था. वहाँ जल्दी किसी की पहुँच नहीं हो सकती थी. तेज सिंह के चले जाने पर कुमार और देवी सिंह एक साफ पत्थर की चट्टान पर बैठे बातें कर रहे थे. सवेरा होने ही वाला था कि पूरब की तरफ से किसी का फेंका हुआ एक छोटा-सा पत्थर कुमार के पास आ गिरा. ये दोनों ताज्ज़ुब से उस तरफ देखने लगे कि एक पत्थर और आया, मगर किसी को लगा नहीं.

देवी सिंह ने जोर से आवाज दी, “कौन है, जो छिप कर पत्थर मारता है? सामने क्यों नहीं आता है?”

जवाब में आवाज आई, “शेर की बोली बोलने वाले गीदड़ों को दूर से ही मारा जाता है.”

यह आवाज सुनते ही कुमार को गुस्सा चढ़ आया, झट तलवार के कब्जे पर हाथ रख कर उठ खड़े हुए.

देवी सिंह ने हाथ पकड़ कर कहा, “आप क्यों गुस्सा करते हैं? मैं अभी उस नालायक को पकड़ लाता हूँ. वह है क्या चीज?”

यह कह देवी सिंह उस तरफ गए, जिधर से आवाज आई थी. इनके आगे बढ़ते ही एक और पत्थर पहुँचा, जिसे देख देवी सिंह तेजी के साथ आगे बढ़े. एक आदमी दिखाई पड़ा, मगर घने पेड़ों में अंधेरा ज्यादा होने के सबब उसकी सूरत नहीं नज़र आई.

वह देवी सिंह को अपनी तरफ आते देख एक और पत्थर मार कर भागा. देवी सिंह भी उसके पीछे दौड़े, मगर वह कई दफ़ा इधर-उधर लोमड़ी की तरह चक्कर लगा कर उन्हीं घने पेड़ों में गायब हो गया. देवी सिंह भी इधर-उधर खोजने लगे. यहाँ तक कि सवेरा हो गया, बल्कि दिन निकल आया, लेकिन साफ दिखाई देने पर भी कहीं उस आदमी का पता न लगा. आखिर लाचार हो कर देवी सिंह उस जगह फिर आए, जिस जगह कुमार को छोड़ गए थे.

देखा तो कुमार नहीं थे. इधर-उधर देखा, कहीं पता नहीं. उस सिपाही के पास आए, जिसको पेड़ के साथ बांध दिया था. देखा, तो वह भी नहीं. जी उड़ गया, आँखों में आँसू भर आए, उसी चट्टान पर बैठे और सिर पर हाथ रख कर सोचने लगे, अब क्या करें, किधर ढूंढे? कहाँ जाएं? अगर ढूंढ़ते-ढूंढ़ते कहीं दूर निकल गए और इधर तेज सिंह आए और हमको न देखा, तो उनकी क्या दशा होगी?

इन सब बातों को सोच देवी सिंह और थोड़ी देर इधर-उधर देख-भाल कर फिर उसी जगह चले आए और तेज सिंह की राह देखने लगे. बीच-बीच में इस तरह कई दफ़ा देवी सिंह ने उठ-उठ कर खोज की, मगर कुछ काम न निकला.

बयान – 9

तेज सिंह पहरे वाले सिपाही की सूरत में किले के दरवाजे पर पहुँचे. कई सिपाहियों ने जो सवेरा हो जाने के सबब जाग उठे थे, तेज सिंह की तरफ देख कर कहा, “जैराम सिंह, तुम कहाँ चले गए थे? यहाँ पहरे में गड़बड़ पड़ गया. बद्रीनाथ जी ऐयार पहरे की जांच करने आए थे. तुम्हारे कहीं चले जाने का हाल सुन कर बहुत खफ़ा हुए और तुम्हारा पता लगाने के लिए आप ही कहीं गए हैं, अभी तक नहीं आए. तुम्हारे सबब से हम लोगों की भी खिंचाई हुई.”

जैराम सिंह (तेज सिंह) ने कहा – “मेरी तबीयत खराब हो गई थी. हाजत मालूम हुई, इस सबब से मैदान चला गया. वहाँ कई दस्त आए, जिससे देर हो गई और फिर भी कुछ पेट में गड़बड़ मालूम पड़ता है. भाई, जान है तो जहान है, चाहे कोई रंज हो या ख़ुश हो, यह ज़रूरत तो रोकी नहीं जाती, मैं फिर जाता हूँ और अभी आता हूँ.” यह कह नकली जैराम सिंह तुरंत वहाँ से चलता बना.

पहरे वालों से बातचीत करके तेज सिंह ने सुन लिया कि बद्रीनाथ यहाँ आए थे और उनकी खोज में गए हैं, इससे वे होशियार हो गए. सोचा कि अगर हमारे यहाँ होते बद्रीनाथ लौट आएंगे, तो जरूर पहचान जाएंगे, इससे यहाँ ठहरना मुनासिब नहीं. आखिर थोड़ी दूर जा एक भिखमंगे की सूरत बना सड़क किनारे बैठ गए और बद्रीनाथ के आने की राह देखने लगे. थोड़ी देर गुजरी थी कि दूर से बद्रीनाथ आते दिखाई पड़े, पीछे-पीछे पीठ पर गट्ठर लादे नाज़िम था, जिसके पीछे वह सिपाही भी था, जिसकी सूरत बना तेज सिंह आए थे.

तेज सिंह इस ठाठ से बद्रीनाथ को आते देख चकरा गए. जी में सोचने लगे कि ढंग बुरे नजर आते हैं. इस सिपाही को, जो पीछे-पीछे चला आता है, मैं पेड़ के साथ बांध आया था. उसी जगह कुमार और देवी सिंह भी थे. बिना कुछ उपद्रव मचाए, इस सिपाही को ये लोग नहीं पा सकते थे. ज़रूर कुछ न कुछ बखेड़ा हुआ है. ज़रूर उस गट्ठर में, जो नाज़िम की पीठ पर है, कुमार होंगे या देवी सिंह. मगर इस वक्त बोलने का मौका नहीं, क्योंकि यहाँ सिवाय इन लोगों के हमारी मदद करने वाला कोई न होगा.

यह सोच कर तेज सिंह चुपचाप उसी जगह बैठे रहे. जब ये लोग गट्ठर लिए किले के अंदर चले गए, तब उठ कर उस तरफ का रास्ता लिया, जहाँ कुमार और देवी सिंह को छोड़ आए थे. देवी सिंह उसी जगह पत्थर पर उदास बैठे कुछ सोच रहे थे कि तेज सिंह आ पहुँचे. देखते ही देवी सिंह दौड़ कर पैरों पर गिर पड़े और गुस्से भरी आवाज में बोले, “गुरु जी कुमार तो दुश्मनों के हाथ पड़ गए.”

तेज सिंह पत्थर पर बैठ गए और बोला, “खैर, खुलासा हाल कहो क्या हुआ?”

देवी सिंह ने जो कुछ बीता था, सब हाल कह सुनाया.

तेज सिंह ने कहा, “देखो आजकल हम लोगों का नसीब कैसा उल्टा हो रहा है? फ़िक्र चारों तरफ की ठहरी मगर करें, तो क्या करें? बेचारी चंद्रकांता और चपला न मालूम किस आफत में फंस गईं और उनकी क्या दशा होगी, इसकी फ़िक्र तो थी ही, मगर कुमार का फंसना तो गजब हो गया.”

थोड़ी देर तक देवी सिंह और तेज सिंह बातचीत करते रहे, इसके बाद उठ कर दोनों ने एक तरफ का रास्ता लिया.

बयान – 10

चुनारगढ़ के किले के अंदर महाराज शिवदत्त के खास महल में एक कोठरी के अंदर, जिसमें लोहे के छड़दार किवाड़ लगे हुए थे, हाथों में हथकड़ी, पैरों में बेड़ी पड़ी हुई, दरवाजे के सहारे उदास मुख वीरेंद्र सिंह बैठे हैं. पहरे पर कई औरतें कमर से छुरा बांधे टहल रही हैं.

कुमार धीरे-धीरे भुनभुना रहे हैं, “हाय चंद्रकांता का पता लगा भी तो किसी काम का नहीं, भला पहले तो यह मालूम हो गया था कि शिवदत्त चुरा ले गया, मगर अब क्या कहा जाए? हाय, चंद्रकांता, तू कहाँ है? मुझको बेड़ी और यह कैद कुछ तकलीफ़ नहीं देती, जैसा तेरा लापता हो जाना खटक रहा है. हाय, अगर मुझको इस बात का यकीन हो जाए कि तू सही-सलामत है और अपने माँ-बाप के पास पहुँच गई, तो इसी कैद में भूखे-प्यासे मर जाना मेरे लिए ख़ुशी की बात होगी, मगर जब तक तेरा पता नहीं लगता, ज़िन्दगी बुरी मालूम होती है. हाय, तेरी क्या दशा होगी? मैं कहाँ ढूंढू? यह हथकड़ी-बेड़ी इस वक्त मेरे साथ कटे पर नमक का काम का रही है. हाय, क्या अच्छी बात होती, अगर इस वक्त कुमारी की खोज में जंगल-जंगल मार-मारा फिरता, पैरों में कांटे गड़े होते, खून निकलता होता, भूख-प्यास लगने पर भी खाना-पीना छोड़ कर उसी का पता लगाने की फ़िक्र होती. हे ईश्वर! तूने कुछ न किया, भला मेरी हिम्मत को तो देखा होता कि इश्क की राह में कैसा मजबूत हूँ, तूने तो मेरे हाथ-पैर ही जकड़ डाले. हाय, जिसको पैदा करके तूने हर तरह का सुख दिया, उसका दिल दुखाने और उसको खराब करने में तुझे क्या मजा मिलता है?”

ऐसी-ऐसी बातें करते हुए कुँवर वीरेंद्र सिंह की आँखों से आँसू जारी थे और लंबी-लंबी साँसें ले रहे थे. आधी रात के लगभग जा चुकी थी. जिस कोठरी में कुमार कैद थे, उसके सामने सजे हुए दालान में चार-पाँच शीशे जल रहे थे, कुमार का जी जब बहुत घबराया, सिर उठा कर उस तरफ देखने लगे. एकबारगी पाँच-सात लौंडियाँ एक तरफ से निकल आईं और हांडी, ढोल, दीवारगीर, झाड़, बैठक, कंवल, मृदंगी वगैरह शीशों को जलाया, जिनकी रोशनी से एकदम दिन-सा हो गया. बाद इसके दालान के बीचों बीच बेशकीमती गद्दी बिछाई और तब सब लौंडियाँ खड़ी हो कर एकटक दरवाजे की तरफ देखने लगीं, मानो किसी के आने का इंतज़ार कर रही हैं. कुमार बड़े गौर से देख रहे थे, क्योंकि इनको इस बात का बड़ा ताज्ज़ुब था कि वे महल के अंदर जहाँ मर्दों की बू तक नहीं जा सकती क्यों कैद किए गए? और इसमें महाराज शिवदत्त ने क्या फायदा सोचा?

थोड़ी देर बाद महाराज शिवदत्त अजब ठाठ से आते दिखाई पड़े, जिसको देखते ही वीरेंद्र सिंह चौंक पड़े. अजब हालत हो गई, एकटक देखने लगे. देखा कि महाराज शिवदत्त के दाहिनी तरफ चंद्रकांता और बाईं तरफ चपला, दोनों के हाथों में हाथ दिए धीरे-धीरे आ कर उस गद्दी पर बैठ गए, जो बीच में बिछी हुई थी. चंद्रकांता और चपला भी दोनों तरफ सट कर महाराज के पास बैठ गईं.

चंद्रकांता और कुमार का साथ तो लड़कपन ही से था, मगर आज चंद्रकांता की ख़ूबसूरती और नज़ाकत जितनी बढ़ी-चढ़ी थी, इसके पहले कुमार ने कभी नहीं देखी थी. सामने पानदान, इत्रदान वगैरह सब सामान ऐश का रखा हुआ था.

यह देख कुमार की आँखों में खून उतर आया, जी में सोचने लगे, “यह क्या हो गया? चंद्रकांता इस तरह ख़ुशी-ख़ुशी शिवदत्त के बगल में बैठी हुई हाव-भाव कर रही है. यह क्या मामला है? क्या मेरी मुहब्बत एकदम उसके दिल से जाती रही, साथ ही माँ-बाप की मुहब्बत भी बिल्कुल उड़ गई? जिसमें मेरे सामने उसकी यह कैफ़ियत है. क्या वह यह नहीं जानती कि उसके सामने ही मैं इस कोठरी में कैदियों की तरह पड़ा हुआ हूँ? ज़रूर जानती है, वह देखो मेरी तरफ तिरछी आँखों से देख मुँह बिचका रही है. साथ ही इसके चपला को क्या हो गया, जो तेज सिंह पर जी दिए बैठी थी और हथेली पर जान रख इसी महाराज शिवदत्त को छका कर तेज सिंह को छुड़ा ले गई थी. उस वक्त महाराज शिवदत्त की मुहब्बत इसको न हुई और आज इस तरह अपनी मालकिन चंद्रकांता के साथ बराबरी दर्ज़े पर शिवदत्त के बगल में बैठी है. हाय-हाय, स्त्रियों का कुछ ठिकाना नहीं, इन पर भरोसा करना बड़ी भारी भूल है हाय! क्या मेरी किस्मत में ऐसी ही औरत से मुहब्बत होनी लिखी थी? ऐसे ऊँचे कुल की लड़की ऐसा काम करे? हाय, अब मेरा जीना व्यर्थ है, मैं जरूर अपनी जान दे दूंगा, मगर क्या चंद्रकांता और चपला को शिवदत्त के लिए जीता छोड़ दूंगा? कभी नहीं. यह ठीक है कि वीर पुरुष स्त्रियों पर हाथ नहीं छोड़ते, पर मुझको अब अपनी वीरता दिखानी नहीं, दुनिया में किसी के सामने मुँह करना नहीं है, मुझको यह सब सोचने से क्या फायदा? अब यही मुनासिब है कि इन दोनों को मार डालना और पीछे अपनी भी जान दे देनी. तेज सिंह भी ज़रूर मेरा साथ देंगे, चलो अब बखेड़ा ही तय कर डालो.”

इतने में इठला कर चंद्रकांता ने महाराज शिवदत्त के गले में हाथ डाल दिया, अब तो वीरेंद्र सिंह सह न सके. जोर से झटका दे हथकड़ी तोड़ डाली, उसी जोश में एक लात सींखचे वाले किवाड़ में भी मारी और पल्ला गिरा, शिवदत्त के पास पहुँचे. उनके सामने जो तलवार रखी थी, उसे उठा लिया और खींच के एक हाथ चंद्रकांता पर ऐसा चलाया कि खट से सर अलग जा गिरा, और धड़ तड़पने लगा. जब तक महाराज शिवदत्त संभले, तब तक चपला के भी दो टुकड़े कर दिए. मगर महाराज शिवदत्त पर वार न किया.

महाराज शिवदत्त संभल कर उठ खड़े हुए, यकायकी इस तरह की ताकत और तेजी कुमार की देख सकते में हो गए, मुँह से आवाज तक न निकली, जवांमर्दी हवा खाने चली गई,. सामने खड़े हो कर कुमार का मुँह देखने लगे. कुँवर वीरेंद्र सिंह खून भरी नंगी तलवार लिए खड़े थे कि तेज सिंह और देवी सिंह धम से सामने आ मौजूद हुए.

तेज सिंह ने आवाज दी, “वाह शाबास, खूब दिल को संभाला.”

यह कह झट से महाराज शिवदत्त के गले में कमंद डाल झटका दिया. शिवदत्त की हालत पहले ही से खराब हो रही थी, कमंद से गला घुटते ही जमीन पर गिर पड़े. देवी सिंह ने झट गट्ठर बांध पीठ पर लाद लिया.

तेज सिंह ने कुमार की तरफ देख कर कहा, “मेरे साथ-साथ चले आइए, अभी कोई दूसरी बात मत कीजिए. इस वक्त जो हालत आपकी है, मैं खूब जानता हूँ.”

इस वक्त सिवाय लौंडियों के कोई मर्द वहाँ पर नहीं था. इस तरह का खून-खराबा देख कर कई तो बदहोशो-हवास हो गईं, बाकी जो थीं उन्होंने चूं तक न किया, एकटक देखती ही रह गईं और ये लोग चलते बने.

बयान – 11

कुमार का मिज़ाज़ बदल गया. वे बातें जो उनमें पहले थीं, अब बिल्कुल न रहीं. माँ-बाप की फ़िक्र, विजयगढ़ का ख़याल, लड़ाई की धुन, तेज सिंह की दोस्ती, चंद्रकांता और चपला के मरते ही सब जाती रहीं. किले से ये तीनों बाहर आए, आगे शिवदत्त की गठरी लिए देवी सिंह और उनके पीछे कुमार को बीच में लिए तेज सिंह चले जाते थे.

कुँवर वीरेंद्र सिंह को इसका कुछ भी खयाल न था कि वे कहाँ जा रहे हैं. दिन चढ़ते-चढ़ते ये लोग बहुत दूर एक घने जंगल में जा पहुँचे, जहाँ तेज सिंह के कहने से देवी सिंह ने महाराज शिवदत्त की गठरी जमीन पर रख दी और अपनी चादर से एक पत्थर खूब झाड़ कर कुमार को बैठने के लिए कहा, मगर वे खड़े ही रहे, सिवाय जमीन देखने के कुछ भी न बोले.

कुमार की ऐसी दशा देख कर तेज सिंह बहुत घबराए. जी में सोचने लगे कि अब इनकी ज़िन्दगी कैसे रहेगी? अजब हालत हो रही है, चेहरे पर मुर्दनी छा रही है, तनोबदन की सुधा नहीं, बल्कि पलकें नीचे को बिल्कुल नहीं गिरतीं, आँखों की पुतलियाँ जमीन देख रही हैं, ज़रा भी इधर-उधर नहीं हटतीं. यह क्या हो गया? क्या चंद्रकांता के साथ ही इनका भी दम निकल गया? यह खड़े क्यों हैं?

तेज सिंह ने कुमार का हाथ पकड़ बैठने के लिए ज़ोर दिया, मगर घुटना बिल्कुल न मुड़ा, धम से जमीन पर गिर पड़े. सिर फूट गया, खून निकलने लगा, मगर पलकें उसी तरह खुली-की-खुली, पुतलियाँ ठहरी हुईं, साँस रुक-रुक कर निकलने लगी.

अब तेज सिंह कुमार की जिंदगी से बिल्कुल नाउम्मीद हो गए, रोकने से तबीयत न रुकी, जोर से पुकार कर रोने लगे. इस हालत को देख देवी सिंह की भी छाती फटी, रोने में तेज सिंह भी शरीक हुए.

तेज सिंह पुकार-पुकार कर कहने लगे, “हाय कुमार, क्या सचमुच अब तुमने दुनिया छोड़ ही दी? हाय, न मालूम वह कौन-सी बुरी सायत थी कि कुमारी चंद्रकांता की मुहब्बत तुम्हारे दिल में पैदा हुई, जिसका नतीजा ऐसा बुरा हुआ. अब मालूम हुआ कि तुम्हारी ज़िन्दगी इतनी ही थी.”

तेज सिंह इस तरह की बातें कह कर रो रहे थे कि इतने में एक तरफ से आवाज आई, “नहीं, कुमार की उम्र कम नहीं है, बहुत बड़ी है, इनको मारने वाला कोई पैदा नहीं हुआ. कुमारी चंद्रकांता की मुहब्बत बुरी सायत में नहीं हुई, बल्कि बहुत अच्छी सायत में हुई, इसका नतीजा बहुत अच्छा होगा. कुमारी से शादी तो होगी ही साथ ही इसके चुनारगढ़ की गद्दी भी कुँवर वीरेंद्र सिंह को मिलेगी. बल्कि और भी कई राज्य इनके हाथ से फतह होंगे. बड़े तेजस्वी और इनसे भी ज्यादा नाम पैदा करने वाले दो वीर पुत्र चंद्रकांता के गर्भ से पैदा होंगे. क्या हुआ है जो रो रहे हो?”

तेज सिंह और देवी सिंह का रोना एकदम बंद हो गया, इधर-उधर देखने लगे. तेज सिंह सोचने लगे कि हैं, यह कौन है, ऐसी मुर्दे को जिलाने वाली आवाज किसके मुँह से निकली? क्या कहा? कुमार को मारने वाला कौन है. कुमार के दो पुत्र होंगे. हैं, यह कैसी बात है? कुमार का तो यहाँ दम निकला जाता है. ढूंढना चाहिए, यह कौन है? तेज सिंह और देवी सिंह इधर-उधर देखने लगे पर कहीं कुछ पता न चला.

फिर आवाज आई, “इधर देखो.”

आवाज की सीध पर एक तरफ सिर उठा कर तेज सिंह ने देखा कि पेड़ पर से जगन्नाथ ज्योतिषी नीचे उतर रहे हैं.

जगन्नाथ ज्योतिषी उतर कर तेज सिंह के सामने आए और बोले, “आप हैरान मत होइए, ये सब बातें जो ठीक होने वाली हैं, मैंने ही कही हैं. इसके सोचने की भी ज़रूरत नहीं कि मैं महाराज शिवदत्त का तरफदार होकर आपके हित में बातें क्यों कहने लगा? इसका सबब भी थोड़ी देर में मालूम हो जाएगा और आप मुझको अपना सच्चा दोस्त समझने लगेगे. पहले कुमार की फ़िक्र कर लें, तब आपसे बातचीत हो.”

इसके बाद जगन्नाथ ज्योतिषी ने तेज सिंह और देवी सिंह के देखते-देखते एक बूटी जिसकी तिकोनी पत्ती थी और आसमानी रंग का फूल लगा हुआ था, डंठल का रंग बिल्कुल सफेद और खुरदुरा था, उसी समय पास ही से ढूंढ कर तोड़ी और हाथ में खूब मल के दो बूंद उसके रस की कुमार की दोनों आँखों और कानों में टपका दीं. बाकी जो सीठी बची, उसको तालू पर रख कर अपनी चादर से एक टुकड़ा फाड़ कर बांध दिया और बैठ कर कुमार के आराम होने की राह देखने लगे.

आधी घड़ी भी नहीं बीतने पाई थी कि कुमार की आँखों का रंग बदल गया, पलकों ने गिर कर कौड़ियों को ढांक लिया. धीरे-धीरे हाथ-पैर भी हिलने लगे, दो-तीन छींकें भी आईं, जिसके साथ ही कुमार होश में आ कर उठ बैठे.

सामने ज्योतिषी जी के साथ तेज सिंह और देवी सिंह को बैठे देख कर पूछा, “क्यों, मुझको क्या हो गया था?”

तेज सिंह ने सब हाल कहा. कुमार ने जगन्नाथ ज्योतिषी को दंडवत किया और कहा, “महाराज, आपने मेरे ऊपर क्यों कृपा की? इसका हाल जल्द कहिए, मुझको कई तरह के शक हो रहे हैं.”

ज्योतिषी जी ने कहा, “कुमार, यह ईश्वर की माया है कि आपके साथ रहने को मेरा जी चाहता है. महाराज शिवदत्त इस लायक नहीं है कि मैं उसके साथ रह कर अपनी जान दूं. उसको आदमी की पहचान नहीं, वह गुणियों का आदर नहीं करता, उसके साथ रहना अपने गुण की मिट्ठी खराब करना है. गुणी के गुण को देख कर कभी तारीफ़ नहीं करता, वह बड़ा भारी मतलबी है. अगर उसका काम किसी से कुछ बिगड़ जाए, तो उसकी आँखें उसकी तरफ से तुरंत बदल जाती हैं, चाहे वह कैसा ही गुणी क्यों न हो? सिवाय इसके वह अधर्मी भी बड़ा भारी है, कोई भला आदमी ऐसे के साथ रहना पसंद नहीं करेगा, इसी से मेरा जी फट गया. मैं अगर रहूँगा, तो आपके साथ रहूंगा. आप-सा कदरदान मुझको कोई दिखाई नहीं देता, मैं कई दिनों से इस फ़िक्र में था, मगर कोई ऐसा मौका नहीं मिलता था कि अपनी सच्चाई दिखा कर आपका साथी हो जाता, क्योंकि मैं चाहे कितनी ही बातें बनाऊं, मगर ऐयारों की तरफ से ऐयारों का जी साफ होना मुश्किल है. आज मुझको ऐसा मौका मिला, क्योंकि आज का दिन आप पर बड़े संकट का था, जो कि महाराज शिवदत्त के धोखे और चालाकी ने आपको दिखाया.” इतना कह ज्योतिषी जी चुप हो गए.

ज्योतिषी जी की आखिरी बात ने सभी को चौंका दिया. तीनों आदमी खिसक कर उनके पास आ बैठे.

तेज सिंह ने कहा, “हाँ ज्योतिषी जी जल्दी खुलासा कहिए, शिवदत्त ने क्या धोखा दिया?”

ज्योतिषी जी ने कहा, “महाराज शिवदत्त का यह कायदा है कि जब कोई भारी काम किया जाता है, तो पहले मुझ से ज़रूर पूछता है, लेकिन चाहे राय दूं या मना करूं, करता है अपने ही मन की और धोखा भी खाता है. कई दफ़ा पंडित बद्रीनाथ भी इन बातों से रंज हो गए कि जब अपने ही मन की करनी है, तो ज्योतिषी जी से पूछने की ज़रूरत ही क्या है? आज रात को जो चालाकी उसने आपसे की, उसके लिए भी मैंने मना किया था. मगर कुछ न माना, आखिर नतीजा यह निकला कि घसीटा सिंह और भगवानदत्त ऐयारों की जान गई. इसका खुलासा हाल मैं तब कहूंगा, जब आप इस बात का वादा कर लें कि मुझको अपना ऐयार या साथी बनावेंगे.”

ज्योतिषी जी की बात सुन कुमार ने तेज सिंह की तरफ देखा.

तेज सिंह ने कहा, “ज्योतिषी जी, मैं बड़ी ख़ुशी से आपको साथ रखूंगा, परंतु आपको इसके पहले अपने साफ दिल होने की कसम खानी पड़ेगी.”

ज्योतिषी जी ने तेज सिंह के मन से शक मिटाने के लिए जनेऊ हाथ में ले कर कसम खाई. तेजसिंह ने उठ के उन्हें गले लगा लिया और बड़ी ख़ुशी से अपने ऐयारों की पंगत में मिला लिया. कुमार ने अपने गले से कीमती माला निकाल ज्योतिषी जी को पहना दी.

ज्योतिषी जी ने कहा, “अब मुझसे सुनिए कि कुमार महल में क्यों कैद किए गए थे और जो रात को खून-खराबा हुआ उसका असल भेद क्या है?”

जब आप लोग लश्कर से कुमारी की खोज में निकले थे, तो रास्ते में बद्रीनाथ ऐयार ने आपको देख लिया था. आप लोगों के पहले वे वहाँ पहुँचे और चंद्रकांता को दूसरी जगह छिपाने की नीयत से उस खोह में उसको लेने गए, मगर उनके पहुँचने से पहले ही कुमारी वहाँ से गायब हो गई थी और वे खाली हाथ वापस आए. तब नाज़िम को साथ ले आप लोगो की खोज में निकले और आपको इस जंगल में पा कर ऐयारी की. नाज़िम ने ढेला फेंका था, देवी सिंह उसको पकड़ने गए, तब तक बद्रीनाथ जो पहले ही तेज सिंह बन कर आए थे, न मालूम किस चालाकी से आपको बेहोश कर किले में ले गए और जिसमें आपकी तबीयत से चंद्रकांता की मुहब्बत जाती रहे और आप उसकी खोज न करें तथा उसके लिए महाराज शिवदत्त से लड़ाई न ठानें. इसलिए भगवानदत्त और घसीटा सिंह, जो हम सभी में कम उम्र थे, चंद्रकांता और चपला बनाए गए, जिनको आपने खत्म किया, बाकी हाल तो आप जानते ही हैं.”

ज्योतिषी जी की बात सुन कुमार मारे ख़ुशी के उछल पड़े. कहने लगे, “हाय, क्या गजब किया था? कितना भारी धोखा दिया? अब मालूम हुआ कि बेचारी चंद्रकांता जीती-जागती है, मगर कहाँ है इसका पता नहीं, खैर, यह भी मालूम हो जाएगा.”

अब क्या करना चाहिए, इस बात को सभी ने मिल कर सोचा और यह पक्का किया कि

  1. महाराज शिवदत्त को तो उसी खोह में, जिसमें ऐयार लोग पहले कैद किए गए थे, डाल देना चाहिए और दोहरा ताला लगा देना चाहिए क्योंकि पहले ताले का हाल जो शेर के मुँह में से जुबान खींचने से खुलता है, बद्रीनाथ को मालूम हो गया है, मगर दूसरे ताले का हाल सिवाय तेज सिंह के अभी कोई नहीं जानता.
  2. कुमार को विजयगढ़ चले जाना चाहिए क्योंकि जब तक महाराज शिवदत्त कैद हैं, लड़ाई न होगी. मगर हिफ़ाजत के लिए कुछ फौज सरहद पर ज़रूर होनी चाहिए.
  3. देवी सिंह कुमार के साथ रहें.
  4. तेज सिंह और ज्योतिषी जी कुमारी की खोज में जाएं.

कुछ और बातचीत करके सब उठ खड़े हुए और वहाँ से चल पड़े.

बयान – 12

दोपहर के वक्त एक नाले के किनारे सुंदर साफ चट्टान पर दो कमसिन औरतें बैठी हैं. दोनों की मैली-फटी साड़ी, दोनों के मुँह पर मिट्टी, खुले बाल, पैरों पर खूब धूल पड़ी हुई और चेहरे पर बदहवासी और परेशानी छाई हुई है.

चारों तरफ भयानक जंगल, खूनी जानवरों की भयानक आवाजें आ रही हैं. जब कभी जोर से हवा चलती है, तो पेड़ों की सरसराहट से जंगल और भी डरावना मालूम पड़ता है. इन दोनों औरतों के सामने नाले के उस पार एक तेंदुआ पानी पीने के लिए उतरा. उन्होंने उस तेंदुए को देखा, मगर वह खूनी जानवर इन दोनों को न देख सका, क्योंकि जहाँ वे दोनों बैठी थीं, सामने ही एक मोटा जामुन का पेड़ था.

इन दोनों में से एक जो ज्यादा नाजुक थी, उस तेंदुए को देख डरी और धीरे से दूसरे से बोली, “प्यारी सखी, देखो कहीं वह इस पार न उतर आए.”

उसने कहा, “नहीं सखी वह इस पार न आएगा, अगर आने का इरादा भी करेगा, तो मैं पहले ही इन तीरों से उसको मार गिराऊंगी, जो उस नाले के सिपाहियों को मार कर लेती आई हूँ. इस वक्त हमारे पास दो सौ तीर हैं और हम दोनों तीर चलाने वाली हैं, लो तुम भी एक तीर चढ़ा लो.”

यह सुन उसने भी एक तीर कमान पर चढ़ाया, मगर उसकी कोई ज़रूरत न पड़ी. वह तेंदुआ पानी पी कर तुरंत ऊपर चढ़ गया और देखते-देखते गायब हो गया, तब इन दोनों में बातें होने लगी –

कुमारी – “क्यों चपला, कुछ मालूम पड़ता है कि हम लोग किस जगह आ पहुँचे और यह कौन-सा जंगल है तथा विजयगढ़ की राह किधर है?”

चपला – “कुमारी, कुछ समझ में नहीं आता, बल्कि अभी तक मुझको भागने की धुन में यह भी नहीं मालूम कि किस तरफ चली आई. विजयगढ़ किधर है, चुनारगढ़ कहाँ छोड़ा, और नौगढ़ का रास्ता कहाँ है? सिवाय तुम्हारे साथ महल में रहने या विजयगढ़ की हद में घूमने के कभी इन जंगलों में तो आना ही नहीं हुआ. हाँ चुनारगढ़ से सीधे विजयगढ़ का रास्ता जानती हूँ, मगर उधर मैं इस सबब से नहीं गई कि आजकल हमारे दुश्मनों का लश्कर रास्ते में पड़ा है, कहीं ऐसा न हो कोई देख ले, इसलिए मैं जंगल ही जंगल दूसरी तरफ भागी. खैर, देखो ईश्वर मालिक है, कुछ न कुछ रास्ते का पता लग ही जाएगा. मेरे बटुए में मेवा हैं, लो इसको खा लो और पानी पी लो फिर देखा जाएगा.”

कुमारी – “इसको किसी और वक्त के वास्ते रहने दो. क्या जाने हम लोगों को कितने दिन दु:ख भोगना पड़े. यह जंगल खूब घना है, चलो बेर-मकोय तोड़ कर खाएं. अच्छा तो न मालूम पड़ेगा, मगर समय काटना है.”

चपला – “अच्छा जैसी तुम्हारी मर्ज़ी.”

चपला और चंद्रकांता दोनों वहाँ से उठीं. नाले के ऊपर इधर-उधर घूमने लगीं. दिन दोपहर से ज्यादा ढल चुका था. पेड़ों की छाँह में घूमती, जंगली बेरों को तोड़ती खाती, वे दोनों एक टूटे-फूटे उजाड़ मकान के पास पहुँचीं, जिसको देखने से मालूम होता था कि यह मकान जरूर किसी बड़े राजा का बनाया हुआ होगा, मगर अब टूट-फूट गया है.

चपला ने कुमारी चंद्रकांता से कहा, “बहिन तुम मकान के टूटे दरवाजे पर बैठो, मैं फल तोड़ लाऊं, तो इसी जगह बैठ कर दोनों खाएं और इसके बाद तब इस मकान के अंदर घुस कर देखें कि क्या है? जब तक विजयगढ़ का रास्ता न मिले, यही खंडहर हम लोगों के रहने के लिए अच्छा होगा. इसी में गुजारा करेंगे. कोई मुसाफिर या चरवाहा इधर से आ निकलेगा, तो विजयगढ़ का रास्ता पूछ लेंगे और तब यहाँ से जाएंगे.”

कुमारी ने कहा, “अच्छी बात है, मैं इसी जगह बैठती हूँ, तुम कुछ फल तोड़ो लेकिन दूर मत जाना.”

चपला ने कहाम, “नहीं मैं दूर न जाऊंगी, इसी जगह तुम्हारी आँखों के सामने रहूंगी.” यह कह कर चपला फल तोड़ने चली गई.

बयान – 13

चपला खाने के लिए कुछ फल तोड़ने चली गई. इधर चंद्रकांता अकेली बैठी-बैठी घबरा उठी. जी में सोचने लगी कि जब तक चपला फल तोड़ती है, तब तक इस टूटे-फूटे मकान की सैर करें, क्योंकि यह मकान चाहे टूट कर खंडहर हो रहा है. मगर मालूम होता है, किसी समय में अपना सानी न रखता होगा.

कुमारी चंद्रकांता वहाँ से उठ कर खंडहर के अंदर गई. फाटक इस टूटे-फूटे मकान का दुरुस्त और मजबूत था. यद्पी उसमें किवाड़ न लगे थे, मगर देखने वाला यही कहेगा कि पहले इसमें लकड़ी या लोहे का फाटक जरूर लगा रहा होगा.

कुमारी ने अंदर जा कर देखा कि बड़ा भारी चौखूटा मकान है. बीच की इमारत तो टूटी-फूटी है, मगर हाता चारों तरफ का दुरुस्त मालूम पड़ता है. और आगे बढ़ी, एक दालान में पहुँची, जिसकी छत गिरी हुई थी, पर खंबे खड़े थे. इधर-उधर ईंट-पत्थर के ढेर थे, जिन पर धीरे-धीरे पैर रखती और आगे बढ़ी. बीच में एक मैदान देखई पड़ा, जिसको बड़े गौर से कुमारी देखने लगी. साफ मालूम होता था कि पहले यह बाग था क्योंकि अभी तक संगमरमर की क्यारियाँ बनी हुई थीं. छोटी-छोटी नहरें, जिनसे छिड़काव का काम निकलता होगा, अभी तक तैयार थीं. बहुत से फव्वारे बेमरम्मत दिखाई पड़ते थे, मगर उन सभी पर मिट्टी की चादर पड़ी हुई थी. बीचों-बीच उस खंडहर के एक बड़ा भारी पत्थर का बगुला बना हुआ दिखाई दिया, जिसको अच्छी तरह से देखने के लिए कुमारी उसके पास गई और उसकी सफाई और कारीगरी को देख उसके बनाने वाले की तारीफ़ करने लगी. वह बगुला सफेद संगमरमर का बना हुआ था और काले पत्थर के कमर बराबर ऊँचे तथा मोटे खंबे पर बैठाया हुआ था. उसके पैर दिखाई नहीं दे रहे थे. यही मालूम होता था कि पेट सटा कर इस पत्थर पर बैठा है. कम-से-कम पंद्रह हाथ के घेरे में उसका पेट होगा. लंबी चोंच, बाल और पर उसके ऐसी कारीगरी के साथ बनाए हुए थे कि बार-बार उसके बनाने वाले कारीगर की तारीफ़ मुँह से निकलती थी. जी में आया कि और पास जा कर बगुले को देखे. पास गई, मगर वहाँ पहुँचते ही उसने मुँह खोल दिया. चंद्रकांता यह देख घबरा गई कि यह क्या मामला है, कुछ डर भी मालूम हुआ, सामना छोड़ बगल में हो गई. अब उस बगुले ने पर भी फैला दिए.

कुमारी को चपला ने बहुत ढीठ कर दिया था. कभी-कभी जब ज़िक्र आ जाता तो चपला यही कहती थी कि दुनिया में भूत-प्रेत कोई चीज नहीं, जादू-मंत्र सब खेल कहानी है, जो कुछ है ऐयारी है. इस बात का कुमारी को भी पूरा यकीन हो चुका था. यही सबब था कि चंद्रकांता इस बगुले के मुँह खोलने और पर फैलाने से नहीं डरी. अगर किसी दूसरी ऐसी नाजुक औरत को कहीं ऐसा मौका पड़ता, तो शायद उसकी जान निकल जाती. जब बगुले को पर फैलाते देखा, तो कुमारी उसके पीछे हो गई. बगुले के पीछे की तरफ एक पत्थर जमीन में लगा था, जिस पर कुमारी ने पैर रखा ही था कि बगुला एक दफ़ा हिला और जल्दी से घूम अपनी चोंच से कुमारी को उठा कर निगल गया, तब घूम कर अपने ठिकाने हो गया. पर समेट लिए और मुँह बंद कर लिया.

बयान – 14

थोड़ी देर में चपला फलों से झोली भरे हुए पहुँची. देखा, तो चंद्रकांता वहाँ नहीं है. इधर-उधर निगाह दौड़ाई, कहीं नहीं. इस टूटे मकान (खंडहर) में तो नहीं गई है. यह सोच कर मकान के अंदर चली. कुमारी तो बेधड़क उस खंडहर में चली गई थी, मगर चपला रुकती हुई चारों तरफ निगाह दौड़ाती और एक-एक चीज तज़वीज़ करती हुई चली.

फाटक के अंदर घुसते ही दोनों बगल दो दालान दिखाई पड़े. ईंट-पत्थर के ढेर लगे हुए, कहीं से छत टूटी हुई, मगर दीवारों पर चित्रकारी और पत्थरों की मूर्तियाँ अभी तक नई मालूम पड़ती थीं.

चपला ने ताज्ज़ुब की निगाह से उन मूर्तियों को देखा, कोई भी उसमें पूरे बदन की नजर न आई. किसी का सिर नहीं, किसी की टांग नहीं, किसी का हाथ कटा, किसी का आधा धड़ ही नहीं. सूरत भी इन मूर्तियों की अजब डरावनी थी. और आगे बढ़ी, बड़े-बड़े मिट्टी-पत्थर के ढेर, जिनमें जंगली पेड़ लगे हुए थे, लांघती हुई मैदान में पहुँची. दूर से वह बगुला दिखाई पड़ा, जिसके पेट में कुमारी पड़ चुकी थी.

सब जगहों को देखना छोड़ चपला उस बगुले के पास धड़धड़ाती हुई पहुँची. उसने मुँह खोल दिया. चपला को बड़ा ताज्ज़ुब हुआ, पीछे हटी. बगुले ने मुँह बंद कर दिया. सोचने लगी, अब क्या करना चाहिए? यह तो कोई बड़ी भारी ऐयारी मालूम होती है. क्या भेद है इसका, पता लगाना चाहिए. मगर पहले कुमारी को खोजना उचित है, क्योंकि यह खंडहर कोई पुराना तिलिस्म मालूम होता है, कहीं ऐसा न हो कि इसी में कुमारी फंस गई हो. यह सोच उस जगह से हटी और दूसरी तरफ खोजने लगी.

चारों तरफ हाता घिरा हुआ था. कई दालान और कोठरियाँ टूटी-फूटी और कई साबुत भी थीं, एक तरफ से देखना शुरू किया. पहले एक दालान में पहुँची, जिसकी छत बीच से टूटी हुई थी. लंबाई दालान की लगभग सौ गज की होगी, बीच में मिट्टी-चूने का ढेर, इधर-उधर बहुत-सी हड्डी पड़ी हुईं और चारों तरफ जाले-मकड़े लगे हुए थे. मिट्टी के ढेर में से छोटे-छोटे बहुत से पीपल वगैरह के पेड़ निकल आए थे. दालान के एक तरफ छोटी-सी कोठरी नजर आई, जिसके अंदर पहुँचने पर देखा, एक कुआँ है, झांकने से अँधेरा मालूम पड़ा.

इस कुएं के अंदर क्या है? यह कोठरी बनिस्बत और जगहों के साफ क्यों मालूम पड़ती है? कुआँ भी साफ दिख पड़ता है, क्योंकि जैसे अक्सर पुराने कुओं में पेड़ वगैरह लग जाते हैं, इसमें नहीं हैं, कुछ-कुछ आवाज भी इसमें से आती है, जो बिल्कुल समझ नहीं पड़ती.

इसका पता लगाने के लिए चपला ने अपने ऐयारी के बटुए में से काफूर निकाला और उसके टुकड़े जला कर कुएं में डाले. अंदर तक पहुँच कर उन जलते हुए काफूर के टुकड़ों ने खूब रोशनी की. अब साफ मालूम पड़ने लगा कि नीचे से कुआँ बहुत चौड़ा और साफ है, मगर पानी नहीं है बल्कि पानी की जगह एक साफ सफेद बिछावन मालूम पड़ता है, जिसके ऊपर एक बूढ़ा आदमी बैठा है. उसकी लंबी दाढ़ी लटकती हुई दिखाई पड़ती है, मगर गर्दन  नीची होने के सबब चेहरा मालूम नहीं पड़ता. सामने एक चौकी रखी हुई है, जिस पर रंग-बिरंगे फूल पड़े हैं. चपला यह तमाशा देख डर गई. फिर जी को संभाला और कुएं पर बैठ गौर करने लगी, मगर कुछ अक्ल ने गवाही न दी. वह काफूर के टुकड़े भी बुझ गए, जो कुएं के अंदर जल रहे थे और फिर अंधेरा हो गया.

उस कोठरी में से एक दूसरे दालान में जाने का रास्ता था. उस राह से चपला दूसरे दालान में पहुँची, जहाँ इससे भी ज्यादा जी दहलाने और डराने वाला तमाशा देखा. कूड़ा-कर्कट, हड्डी और गंदगी में यह दालान पहले दालान से कहीं बढ़ा-चढ़ा था, बल्कि एक साबुत पंजर (ढाँचा) हड्डी का भी पड़ा हुआ था, जो शायद गधे या टट्टू का हो. उसी के बगल से लांघती हुई चपला बीचों बीच दालान में पहुँची.

एक चबूतरा संगमरमर का पुरसा भर ऊँचा देखा, जिस पर चढ़ने के लिए ख़ूबसूरत नौ सीढ़ियाँ बनी हुई थीं. ऊपर उसके एक आदमी चौकी पर लेटा हुआ हाथ में किताब लिए कुछ पढ़ता हुआ मालूम पड़ा, मगर ऊँचा होने के सबब साफ दिखाई न दिया. इस चबूतरे पर चढ़े या न चढ़े? चढ़ने से कोई आफ़त तो न आएगी. भला सीढ़ी पर एक पैर रख कर देखूं, तो सही? यह सोच कर चपला ने सीढ़ी पर एक पैर रखा. पैर रखते ही बड़े जोर से आवाज हुई और संदूक के पल्ले की तरह खुल कर सीढ़ी के ऊपर वाले पत्थर ने चपला के पैर को जोर से फेंक दिया, जिसकी धमक और झटके से वह जमीन पर गिर पड़ी. संभल कर उठ खड़ी हुई, देखा तो वह सीढ़ी का पत्थर, जो संदूक के पल्ले की तरह खुल गया था, ज्यों-का-त्यों बंद हो गया है.

चपला अलग खड़ी हो कर सोचने लगी कि यह टूटा-फूटा मकान तो अजब तमाशे का है. ज़रूर यह किसी भारी ऐयार का बनाया हुआ होगा. इस मकान में घुस कर सैर करना कठिन है, जरा चूके और जान गई. पर मुझको क्या डर क्योंकि जान से भी प्यारी मेरी चंद्रकांता इसी मकान में कहीं फंसी हुई है, जिसका पता लगाना बहुत जरूरी है. चाहे जान चली जाए, मगर बिना कुमारी को लिए इस मकान से बाहर कभी न जाउंगी? देखूं इस सीढ़ी और चबूतरे में क्या-क्या ऐयारियाँ की गई हैं? कुछ देर तक सोचने के बाद चपला ने एक दस सेर का पत्थर सीढ़ी पर रखा. जिस तरह पैर को उस सीढ़ी ने फेंका था, उसी तरह इस पत्थर को भी भारी आवाज के साथ फेंक दिया.

चपला ने हर एक सीढ़ी पर पत्थर रख कर देखा, सभी में यही करामात पाई. इस चबूतरे के ऊपर क्या है? इसको ज़रूर देखना चाहिए. यह सोच अब वह दूसरी तरकीब करने लगी. बहुत से ईंट-पत्थर उस चबूतरे के पास जमा किए और उसके ऊपर चढ़ कर देखा कि संगमरमर की चौकी पर एक आदमी दोनों हाथों में किताब लिए पड़ा है, उम्र लगभग तीस वर्ष की होगी. ख़ूब गौर करने से मालूम हुआ कि यह भी पत्थर का है.

चपला ने एक छोटी-सी कंकड़ी उसके मुँह पर डाली, या तो पत्थर का पुतला मगर काम आदमी का किया. चपला ने जो कंकड़ी उसके मुँह पर डाली थी, उसको एक हाथ से हटा दिया और फिर उसी तरह वह हाथ अपने ठिकाने ले गया. चपला ने तब एक कंकड़ उसके पैर पर रखा, उसने पैर हिला कर कंकड़ गिरा दिया. चपला थी, तो बड़ी चालाक और निडर मगर इस पत्थर के आदमी का तमाशा देख बहुत डरी और जल्दी वहाँ से हट गई. अब दूसरी तरफ देखने लगी. बगल के एक और दालान में पहुँची, देखा कि बीचों-बीच दालान के एक तहखाना मालूम पड़ता है, नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं और ऊपर की तरफ दो पल्ले किवाड़ के हैं, जो इस समय खुले हैं.

चपला खड़ी हो कर सोचने लगी कि इसके अंदर जाना चाहिए या नहीं. कहीं ऐसा न हो कि इसमें उतरने के बाद यह दरवाजा बंद हो जाए, तो मैं इसी में रह जाऊं, इससे मुनासिब है कि इसको भी आज़मा लूं. पहले एक ढोंका इसके अंदर डालूं, लेकिन अगर आदमी के जाने से यह दरवाजा बंद हो सकता है, तो जरूर ढोंके के गिरते ही बंद हो जाएगा. तब इसके अंदर जा कर देखना मुश्किल होगा, अस्तु ऐसी कोई तरकीब की जाए, जिससे उसके जाने से किवाड़ बंद न होने पाए, बल्कि हो सके तो पल्लों को तोड़ ही देना चाहिए.

इन सब बातों को सोच कर चपला दरवाजे के पास गई. पहले उसके तोड़ने की फ़िक्र की, मगर न हो सका, क्योंकि वे पल्ले लोहे के थे. कब्जा उनमें नहीं था, सिर्फ पल्ले के बीचों-बीच में चूल बनी हुई थी, जो कि जमीन के अंदर घुसी हुई मालूम पड़ती थी. यह चूल जमीन के अंदर कहाँ जा कर अड़ी थी, इसका पता न लग सका.

चपला ने अपने कमर से कमंद खोली और चौहरा करके एक सिरा उसका उस किवाड़ के पल्ले में खूब मजबूती के साथ बांधा. दूसरा सिरा उस कमंद का उसी दालान के एक खंबे में जो किवाड़ के पास ही था बांधा, इसके बाद एक ढोंका पत्थर का दूर से उस तहखाने में डाला. पत्थर पड़ते ही इस तरह की आवाज आने लगी, जैसे किसी हाथी में से जोर से हवा निकलने की आवाज आती है, साथ ही इसके जल्दी से एक पल्ला भी बंद हो गया, दूसरा पल्ला भी बंद होने के लिए खिंचा, मगर वह कमंद से कसा हुआ था, उसको तोड़ न सका, खिंचा-का-खिंचा ही रह गया.

चपला ने सोचा, “कोई हर्ज़ नहीं, मालूम हो गया कि यह कमंद इस पल्ले को बंद न होने देगी, अब बेखटके इसके अंदर उतरो, देखो तो क्या है?”

 यह सोच चपला उस तहखाने में उतरी.

बयान – 15

चंपा बेफिक्र नहीं है. वह भी कुमारी की खोज में घर से निकली हुई है. जब बहुत दिन हो गए और राजकुमारी चंद्रकांता की कुछ खबर न मिली, तो महारानी से हुक्म ले कर चंपा घर से निकली. जंगल-जंगल, पहाड़-पहाड़ मारी फिरी, मगर कहीं पता न लगा. कई दिन की थकी-मांदी जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठ कर सोचने लगी कि अब कहाँ चलना चाहिए और किस जगह ढूंढना चाहिए, क्योंकि महारानी से मैं इतना वादा करके निकली हूँ कि कुँवर वीरेंद्र सिंह और तेज सिंह से बिना मिले और बिना उनसे कुछ खबर लिए कुमारी का पता लगाऊंगी, मगर अभी तक कोई उम्मीद पूरी न हुई और बिना काम पूरा किए मैं विजयगढ़ भी न जाऊंगी, चाहे जो हो, देखूं कब तक पता नहीं लगता.

जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठी हुई चंपा इन सब बातों को सोच रही थी कि सामने से चार आदमी सिपाहियाना पोशाक पहने, ढाल-तलवार लगाए एक-एक तेगा हाथ में लिए आते दिखाई दिए.

चंपा को देख कर उन लोगों ने आपस में कुछ बातें की, जिसे दूर होने के सबब चंपा बिल्कुल सुन न सकी, मगर उन लोगों के चेहरे की तरफ गौर से देखने लगी. वे लोग कभी चंपा की तरफ देखते, कभी आपस में बातें करके हँसते, कभी ऊँचे हो-हो कर अपने पीछे की तरफ देखते, जिससे यह मालूम होता था कि ये लोग किसी की राह देख रहे हैं. थोड़ी देर बाद वे चारों चंपा के चारों तरफ हो गए और पेड़ों के नीचे छाया देख कर बैठ गए.

चंपा का जी खटका और सोचने लगी कि ये लोग कौन हैं, चारों तरफ से मुझको घेर कर क्यों बैठ गए और इनका क्या इरादा है? अब यहाँ बैठना न चाहिए. यह सोच कर उठ खड़ी हुई और एक तरफ का रास्ता लिया, मगर उन चारों ने न जाने दिया.

दौड़ कर घेर लिया और कहा, “तुम कहाँ जाती हो? ठहरो, हमारे मालिक दम-भर में आ जाते हैं, उनके आने तक बैठो, वे आ लें तब हम लोग उनके सामने ले चल के सिफारिश करेंगे और नौकर रखा देंगे, ख़ुशी से तुम रहा करोगी. इस तरह से कहाँ तक जंगल-जंगल मारी फिरोगी.”

चंपा – “मुझे नौकरी की ज़रूरत नहीं, जो मैं तुम्हारे मालिक के आने की राह देखूं, मैं नहीं ठहर सकती.”

एक सिपाही – “नहीं-नहीं, तुम जल्दी न करो, ठहरो, हमारे मालिक को देखोगी तो ख़ुश हो जाओगी, ऐसा ख़ूबसूरत जवान तुमने कभी न देखा होगा, बल्कि हम कोशिश करके तुम्हारी शादी उनसे करा देंगे.”

चंपा – “होश में आ कर बातें करो, नहीं तो दुरुस्त कर दूंगी. खाली औरत न समझना, तुम्हारे ऐसे दस को मैं कुछ नहीं समझती.”

चंपा की ऐसी बात सुन कर उन लोगों को बड़ा अचंभा हुआ, एक का मुँह दूसरा देखने लगा. चंपा फिर आगे बढ़ी. एक ने हाथ पकड़ लिया. बस फिर क्या था? चंपा ने झट कमर से खंजर निकाल लिया और बड़ी फुर्ती के साथ दो को जख्मी करके भागी. बाकी के दो आदमियों ने उसका पीछा किया, मगर कब पा सकते थे.

चंपा भागी तो मगर उसकी किस्मत ने भागने न दिया. एक पत्थर से ठोकर खा बड़े जोर से गिरी, चोट भी ऐसी लगी कि उठ न सकी, तब तक ये दोनों भी वहाँ पहुँच गए. अभी इन लोगों ने कुछ कहा भी नहीं था कि सामने से एक काफिला सौदागरों का आ पहुँचा, जिसमें लगभग दो सौ आदमियों के करीब होंगे. उनके आगे-आगे एक बूढ़ा आदमी था, जिसकी लंबी सफेद दाढ़ी, काला रंग, भूरी आँखें, उम्र लगभग अस्सी वर्ष की होगी. उम्दे कपड़े पहने, ढाल-तलवार लगाए, बर्छी हाथ में लिए, एक बेशकीमती मुश्की घोड़े पर सवार था. साथ में उसके एक लड़का, जिसकी उमर बीस वर्ष से ज्यादा न होगी, रेख तक न निकली थी, बड़े ठाठ के साथ एक नेपाली टांगन पर सवार था, जिसकी ख़ूबसूरती और पोशाक देखने से मालूम होता था कि कोई राजकुमार है. पीछे-पीछे उनके बहुत से आदमी घोड़े पर सवार और कुछ पैदल भी थे, सबसे पीछे कई ऊँटों पर असबाब और उनका डेरा लदा हुआ था. साथ में कई डोलियाँ थीं, जिनके चारों तरफ बहुत से प्यादे तोड़ेदार बंदूकें लिए चले आते थे.

दोनों आदमियों ने जिन्होंने चंपा का पीछा किया था, पुकार कर कहा, “इस औरत ने हमारे दो आदमियों को जख्मी किया है.”

जब तक कुछ और कहे, तब तक कई आदमियों ने चंपा को घेर लिया और खंजर छीन हथकड़ी-बेड़ी डाल दी.

उस बूढ़े सवार ने जिसके बारे में कह सकते हैं कि शायद सभी का सरदार होगा, दो-एक आदमियों की तरफ देख कर कहा, “हम लोगों का डेरा इसी जंगल में पड़े. यहाँ आदमियों की आमदरफ्त कम मालूम होती है, क्योंकि कोई निशान पगडंडी का जमीन पर दिखाई नहीं देता.”डे

डेरा पड़ गया. एक बड़ी रावटी में कई औरतें कैद की गईं, जो डोलियों पर थीं. चंपा बेचारी भी उन्हीं में रखी गई. सूरज अस्त हो गया, एक चिराग उस रावटी में जलाया गया, जिसमें कई औरतों के साथ चंपा भी थी. दो लौडियाँ आईं, जिन्होंने औरतों से पूछा कि तुम लोग रसोई बनाओगी या बना-बनाया खाओगी?

सभी ने कहा, “हम बना-बनाया खाएंगे.”

मगर दो औरतों ने कहा, “हम कुछ न खाएंगे.”

जिसके जवाब में वे दोनों लौंडियाँ यह कह कर चली गईं कि देखें कब तक भूखी रहती हो. इन दोनों औरतों में से एक तो बेचारी आफ़त की मारी चंपा ही थी और दूसरी एक बहुत ही नाज़ुक और ख़ूबसूरत औरत थी, जिसकी आँखों से आँसू जारी थे और जो थोड़ी-थोड़ी देर पर लंबी-लंबी साँस ले रही थी. चंपा भी उसके पास बैठी हुई थी.

पहर रात चली गई, सभी के वास्ते खाने को आया, मगर उन दोनों के वास्ते नहीं, जिन्होंने पहले इंकार किया था. आधी रात बीतने पर सन्नाटा हुआ, पैरों की आवाज डेरे के चारों तरफ मालूम होने लगी, जिससे चंपा ने समझा कि इस डेरे के चारों तरफ पहरा घूम रहा है. धीरे-धीरे चंपा ने अपने बगल वाली ख़ूबसूरत नाज़ुक औरत से बातें करना शुरू किया.

चंपा – “आप कौन हैं और इन लोगों के हाथ क्यों कर फंस गईं?”

औरत – “मेरा नाम कलावती है. मैं महाराज शिवदत्त की रानी हूँ. महाराज लड़ाई पर गए थे. उनके वियोग में जमीन पर सो रही थी. मुझको कुछ मालूम नहीं, जब आँख खुली अपने को इन लोगों के फंदे में पाया. बस और क्या कहूँ? तुम कौन हो?”

चंपा – ‘हैं, आप चुनारगढ़ की महारानी हैं. हा, आपकी यह दशा. वाह विधाता तू धन्य है. मैं क्या बताऊं? जब आप महाराज शिवदत्त की रानी हैं, तो कुमारी चंद्रकांता को भी ज़रूर जानती होंगी. मैं उन्हीं की सखी हूँ. उन्हीं की खोज में मारी-मारी फिरती थी कि इन लोगों ने पकड़ लिया.

ये दोनों आपस में धीरे-धीरे बातें कर रही थीं कि बाहर से एक आवाज आई, “कौन है? भागा, भागा, निकल गया.”

महारानी डरीं, मगर चंपा को कुछ खौफ़ न मालूम हुआ. बात ही बात में रात बीत गई, दोनों में से किसी को नींद न आई. कुछ-कुछ दिन भी निकल आया, वही दोनों लौंडियाँ जो भोजन कराने आई थीं, इस समय फिर आईं. तलवार दोनों के हाथ में थी. इन दोनों ने सभी से कहा, “चलो पारी-पारी से मैदान हो आओ.”

कुछ औरतें मैदान गईं, मगर ये दोनों अर्थात महारानी और चंपा उसी तरह बैठी रहीं, किसी ने जिद्द भी न की. पहर दिन चढ़ आया होगा कि इस काफ़िले का बूढ़ा सरदार एक बूढ़ी औरत को लिए इस डेरे में आया, जिसमें सब औरतें कैद थीं.

बुढ़िया – “इतनी ही हैं या और भी?”

सरदार – “बस इस वक्त तो इतनी ही हैं, अब तुम्हारी मेहरबानी होगी तो और हो जाएंगी.”

बुढ़िया – “देखिए तो सही, मैं कितनी औरतें फंसा लाती हूँ. हाँ, अब बताइए किस मेल की औरत लाने पर कितना इनाम मिलेगा?”

सरदार – “देखो ये सब एक मेल में हैं. इस किस्म की अगर लाओगी, तो दस रुपए मिलेंगे. (चंपा की तरफ इशारा करके) अगर इस मेल की लाओगी, तो पूरे पचास रुपए. (महारानी की तरफ बता कर) अगर ऐसी ख़ूबसूरत हो, तो पूरे सौ रुपए मिलेंगे, समझ गईं.”

बुढ़िया – “हाँ अब मैं बिल्कुल समझ गई, इन सभी को आपने कैसे पाया?”

सरदार – “यह जो सबसे खूबसूरत है, इसको तो एक खोह में पाया था. बेहोश पड़ी थी और यह कल इसी जगह पकड़ी गई है, इसने दो आदमी मेरे मार डाले हैं, बड़ी बदमाश है.”

बुढ़िया – “इसकी चितवन ही से बदमाशी झलकती है. ऐसी-ऐसी अगर तीन-चार आ जाएं, तो आपका काफ़िला ही बैकुंठ चला जाए.”

सरदार – “इसमें क्या शक है. और वे सब जो हैं, कई तरह से पकड़ी गई हैं. एक तो वह बंगाल की रहने वाली है. इसके पड़ोस ही में मेरे लड़के ने डेरा डाला था, अपने पर आशिक करके निकाल लाया. ये चारों रुपए की लालच में फंसी हैं, और बाकी सभी को मैंने उनकी माँ, नानी या वारिसों से खरीद लिया है. बस चलो, अब अपने डेरे में बातचीत करेंगे. मैं बूढ़ा आदमी बहुत देर तक खड़ा नहीं रह सकता.”

बुढ़िया – “चलिए.”

दोनों उस डेरे से रवाना हुए. इन दोनों के जाने के बाद सब औरतों ने खूब गालियाँ दीं, “मुए को देखो, अभी और औरतों को फंसाने की फ़िक्र में लगा है? न मालूम यह बुढ़िया इसको कहाँ से मिल गई, बड़ी शैतान मालूम पड़ती है. कहती है, देखो मैं कितनी औरतें फंसा लाती हूँ. हे परमेश्वर! इन लोगों पर तेरी भी कृपा बनी रहती है? न मालूम यह डायन कितने घर चौपट करेगी?”

चंपा ने उस बुढ़िया को ख़ूब गौर करके देखा और आधे घंटे तक कुछ सोचती रही, मगर महारानी को सिवाय रोने के और कोई धुन न थी, “हाय, महाराज की लड़ाई में क्या दशा हुई होगी? वे कैसे होंगे? मेरी याद करके कितने दु:खी होते होंगे?” धीरे-धीरे यही कह के रो रही थीं.

चंपा उनको समझाने लगी, “महारानी, सब्र करो, घबराओ मत. मुझे पूरी उम्मीद हो गई, ईश्वर चाहेगा, तो अब हम लोग बहुत जल्दी छूट जाएंगे. क्या करूं, मैं हथकड़ी-बेड़ी में पड़ी हूँ, किसी तरह यह खुल जातीं, तो इन लोगों को मजा चखाती. लाचार हूँ कि यह मजबूत बेड़ी सिवाय कटने के दूसरी तरह खुल नहीं सकती और इसका कटना यहाँ मुश्किल है.”

इसी तरह रोते-कलपते आज का दिन भी बीता. शाम हो गई. बूढ़ा सरदार फिर डेरे में आ पहुँचा, जिसमें औरतें कैद थीं. साथ में सवेरे वाली बुढ़िया, आफत की पुड़िया एक जवान ख़ूबसूरत औरत को लिए हुए थी.

बुढ़िया – “मिला लीजिए, अव्वल नंबर की है या नहीं?”

सरदार – “अव्वल नंबर की तो नहीं, हाँ दूसरे नंबर की ज़रूर है. पचास रुपए की आज तुम्हारी बोहनी हुई, इसमें शक नहीं.”

बुढ़िया –“खैर, पचास ही सही, यहाँ कौन गिरह की जमा लगती है, कल फिर लाऊंगी, चलिए.”

इस समय इन दोनों की बातचीत बहुत धीरे-धीरे हुई, किसी ने सुना नहीं मगर होठों के हिलने से चंपा कुछ-कुछ समझ गई. वह नई औरत, जो आज आई बड़ी ख़ुश दिखाई देती थी. हाथ-पैर खुले थे. तुरंत ही इसके वास्ते खाने को आया. इसने भी खूब लंबे-चौड़े हाथ लगाए, बेखटके उड़ा गई. दूसरी औरतों को सुस्त और रोते देख हँसती और चुटकियाँ लेती थी.

चंपा ने जी में सोचा, “यह तो बड़ी भारी बला है, इसको अपने कैद होने और फंसने की कोई फ़िक्र ही नहीं. मुझे तो कुछ खुटका मालूम होता है.

बयान – 16

कल की तरह आज की रात भी बीत गई. लोंडियों के साथ सुबह को सब औरतें पारी-पारी मैदान भेजी गई. महारानी और चंपा आज भी नहीं गईं.

चंपा ने महारानी से पूछा, “आप जब से इन लोगों के हाथ फंसी हैं, कुछ भोजन किया या नहीं.”

उन्होंने जवाब दिया, “महाराज से मिलने की उम्मीद में जान बचाने के लिए दूसरे-तीसरे कुछ खा लेती हूँ, क्या करूं, कुछ बस नहीं चलता.”

थोड़ी देर बाद दो आदमी इस डेरे में आए.

महारानी और चंपा से बोले , “तुम दोनों बाहर चलो. आज हमारे सरदार का हुक्म है कि सब औरतें मैदान में पेड़ों के नीचे बैठाई जाएं, जिससे मैदान की हवा लगे और तंदुरुस्त में फ़र्क न पड़ने पाए.”

यह कह दोनों को बाहर ले गए. वे औरतें जो मैदान में गई थीं, बाहर ही एक बहुत घने महुए के तले बैठी हुई थीं. ये दोनों भी उसी तरह जा कर बैठ गई. चंपा चारों तरफ निगाह दौड़ा कर देखने लगी.

दो पहर दिन चढ़ आया होगा. वही बुढ़िया, जो कल एक औरत ले आई थी, आज फिर एक जवान औरत कल से भी ज्यादा ख़ूबसूरत लिए हुए पहुँची. उसे देखते ही बूढ़े मियाँ ने बड़ी खातिर से अपने पास बैठाया और उस औरत को उस जगह भेज दिया, जहाँ सब औरतें बैठी हुई थीं. चंपा ने आज इस औरत को भी बारीक निगाह से देखा.

आखिर उससे न रहा गया, ऊपर की तरफ मुँह करके बोली, “मी सगमता.” (हम पहचान गए) वह औरत जो आई थी, चंपा का मुँह देखने लगी.

थोड़ी देर के बाद वह भी अपने पैर के अँगूठे की तरफ देख और हाथों से उसे मलती हुई बोली , “चपकलाछटमे बापरोफस.” (चुप रहोगी तो तुम्हारी जान जाएगी) फिर दोनों में से कोई न बोली.

शाम हो गई. सब औरतें उस रावटी में पहुँच गईं. रात को खाने का सामान पहुँचा. महारानी और चंपा के सिवाय सभी ने खाया. उन दोनों औरतों ने तो ख़ूब ही हाथ फेरे जो नई फंस कर आई थीं.

रात बहुत चली गई, सन्नाटा हो गया, रावटी के चारों तरफ पहरा फिरने लगा. रावटी में एक चिराग जल रहा है. सब औरतें सो गई, सिर्फ चार जाग रही हैं. महारानी, चंपा और वे दोनों जो नई आई हैं.

चंपा ने उन दोनों की तरफ देख कर कहा, “कड़ाक भी टेटी, नो से पारो फेसतो.” (मेरी बेड़ी तोड़ दो, नहीं तो गुल मचा कर गिरफ्तार करा दूंगी)

एक ने जवाब दिया, “तीमसे को?” (तुम्हारी क्या दशा होगी?)

फिर चंपा ने कहा, “रानी की सेगी.” रानी का साथ दूंगी)

उन दोनों औरतों ने अपनी कमर से कोई तेज औजार निकाला और धीरे से चंपा की हथकड़ी और बेड़ी काट दी. अब चंपा लापरवाह हो गई, उसके होठों पर मुस्कुराहट मालूम होने लगी.

दो पहर रात बीत गई. यकायक उस रावटी को चारों तरफ से बहुत से आदमियों ने घेर लिया. शोर-गुल की आवाज आने लगी, “मारो-पकड़ो” की आवाज सुनाई देने लगी. बंदूक की आवाज कान में पड़ी. अब सब औरतों को यकीन हो गया कि डाका पड़ा और लड़ाई हो रही है. खलबली मच गई. रावटी में जितनी औरतें थीं, इधर-उधर दौड़ने लगीं. महारानी घबरा कर ‘चंपा-चंपा’ पुकारने लगीं, मगर कहीं पता नहीं, चंपा दिखाई न पड़ी.

वे दोनों औरतें जो नई आई थीं, आ कर कहने लगीं, “मालूम होता है, चंपा निकल गई. मगर आप मत घबराइए, यह सब आप ही के नौकर हैं, जिन्होंने डाका मारा ह. मैं भी आप ही का ताबेदार हूँ, औरत न समझिए.  मैं जाती हूँ. आपके वास्ते कहीं डोली तैयार होगी, ले कर आता हूँ.” यह कह दोनों ने रास्ता लिया.

जिस रावटी में औरतें थीं, उसके तीन तरफ आदमियों की आवाज कम हो गई. सिर्फ चौथी तरफ जिधर और बहुत से डेरे थे, लड़ाई की आहट मालूम हो रही थी. दो आदमी जिनका मुँह कपड़े या नकाब से ढ़का हुआ था, डोली लिए हुए पहुँचे और महारानी को उस पर बैठा कर बाहर निकल गए. रात बीत गई, आसमान पर सफेदी दिखाई देने लगी. चंपा और महारानी तो चली गई थीं, मगर और सब औरतें उसी रावटी में बैठी हुई थीं. डर के मारे चेहरा जर्द हो रहा था. एक का मुँह एक देख रही थीं।. इतने में पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल एक डोली, जिस पर किमख्वाब का पर्दा पड़ा हुआ था, लिए हुए उस रावटी के दरवाजे पर पहुँचे. डोली बाहर रख दी, आप अंदर गए और सब औरतों को अच्छी तरह देखने लगे, फिर पूछा, “तुम लोगों में से दो औरतें दिखाई नहीं देती, वे कहाँ गई?”

सब औरतें डरी हुई थीं, किसी के मुँह से आवाज न निकली.

पन्नालाल ने फिर कहा, “तुम लोग डरो मत, हम लोग डाकू नहीं हैं. तुम्हीं लोगों को छुड़ाने के लिए इतनी धूमधाम हुई है. बताओ वे दोनों औरतें कहाँ हैं?”

 अब उन औरतों का जी कुछ ठिकाने हुआ.

एक ने कहा, “दो नहीं, बल्कि चार औरतें गायब हैं, जिनमें दो औरतें तो वे हैं, जो कल और परसों फंस के आई थीं.  वे दोनों तो एक औरत को यह कह के चली गईं कि आप डरिए मत, हम लोग आपके ताबेदार हैं. डोली ले कर आते हैं, तो आपको ले चलते हैं. इसके बाद डोली आई, जिस पर चढ़ के वह चली गई, और चौथी तो सब के पहले ही निकल गई थी.”

पन्नालाल के तो होश उड़ गए, रामनारायण और चुन्नीलाल के मुँह की तरफ देखने लगे.

रामनारायण ने कहा, “ठीक है, हम दोनों महारानी को ढांढ़स दे कर तुम्हारी खोज में डोली लेने चले गए, जफील बजा कर तुमसे मुलाकात की और डोली ले कर चले आ रहे हैं. मगर दूसरा कौन डोली ले कर आया, जो महारानी को ले कर चला गय. इन लोगों का यह कहना भी ठीक है कि चंपा पहले ही से गायब है. जब हम लोग औरत बने हुए इस रावटी में थे और लड़ाई हो रही थी, महारानी ने डर के चंपा-चंपा पुकारा, तभी उसका पता न था. मगर यह मामला क्या है, कुछ समझ में नहीं आता. चलो बाहर चल कर इन बुर्दाफरोशों की डोलियों को गिनें उतनी ही हैं या कम? इन औरतों को भी बाहर निकालो.”

सब औरतें उस डेरे के बाहर की गईं. उन्होंने देखा कि चारों तरफ खून ही खून दिखाई देता है, कहीं-कहीं लाश भी नज़र आती है. काफिले का बूढ़ा सरदार और उसका खूबसूरत लड़का जंजीरों से जकड़े एक पेड़ के नीचे बैठे हुए हैं. दस आदमी नंगी तलवारें लिए उनकी निगहबानी कर रहे हैं और सैकड़ों आदमी हाथ-पैर बँधे दूसरे पेड़ों के नीचे बैठाए हुए हैं. रावटियाँ और डेरे सब उजड़े पड़े हैं.

पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल उस जगह गए, जहाँ बहुत-सी डोलियाँ थीं.

रामनारायण ने पन्नालाल से कहा, “देखो यह सोलह डोलियाँ हैं, पहले हमने सत्रह गिनी थीं. इससे मालूम होता है कि इन्हीं में की वह डोली थी, जिसमें महारानी गई हैं. मगर उनको ले कौन गया? चुन्नीलाल जाओ तुम दीवान साहब को यहाँ बुला लाओ, उस तरफ बैठे हैं, जहाँ फौज खड़ी है.”

दीवान साहब को लिए हुए चुन्नीलाल आए.

पन्नालाल ने उनसे कहा, “देखिए हम लोगों की चार दिन की मेहनत बिल्कुल खराब गई. विजयगढ़ से तीन मंजिल पर इन लोगों का डेरा था. इस बूढ़े सरदार को हम लोगों ने औरतों की लालच दे कर रोका कि कहीं आगे न चला जाए और आपको खबर दी. आप भी पूरे सामान से आए, इतना खून-खराबा हुआ, मगर महारानी और चंपा हाथ न आईं. भला चंपा तो बदमाशी करके निकल गई. उसने कहा कि हमारी बेड़ी काट दो, नहीं तो हम सब भेद खोल देंगे कि मर्द हो, धोखा देने आए हो, पकड़े जाओगे, लाचार हो कर उसकी बेड़ी काट दी और वह मौका पा कर निकल गई. मगर महारानी को कौन ले गया?”

दीवान साहब की अक्ल हैरान थी कि क्या हो गया? बोले, “इन बदमाशों को बल्कि इनके बूढ़े मियाँ सरदार को मार-पीट कर पूछो, कहीं इन्हीं लोगों की बदमाशी तो नहीं है.”

पन्नालाल ने कहा, “जब सरदार ही आपकी कैद में है, तो मुझे यकीन नहीं आता कि उसके सबब से महारानी गायब हो गई हैं. आप इन बुर्दाफरोशों को और फौज को ले कर जाइए और राज्य का काम देखिए. हम लोग फिर महारानी की टोह लेने जाते हैं, इसका तो बीड़ा ही उठाया है.”

दीवान साहब बुर्दाफरोशों कैदियों को मय उनके माल-असबाब के साथ ले चुनारगढ़ की तरफ रवाना हुए. पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल महारानी की खोज में चले, रास्ते में आपस में यों बातें करने लगे –

“पन्नालाल, देखो आजकल चुनारगढ़ राज्य की क्या दुर्दशा हो रही है. महाराज उधर फंसे, महारानी का पता नहीं, पता लगा मगर फिर भी कोई उस्ताद हम लोगों को उल्लू बना कर उन्हें ले ही गया.

रामनारायण – “भाई बड़ी मेहनत की थी, मगर कुछ न हुआ. किस मुश्किल से इन लोगों का पता पाया, कैसी-कैसी तरकीबों से दो दिन तक इसी जंगल में रोक रखा, कहीं जाने न दिया, दौड़ा-दौड़ चुनारगढ़ से सेना सहित दीवान साहब को लाए, लड़े-भिड़े, अपनी तरफ के कई आदमी भी मरे, मगर मिला क्या, वही हार और शर्मिंदगी.”

चुन्नीलाल – “हम तो बड़े खुश थे कि चंपा भी हाथ आएगी. मगर वह तो और आफत निकली, कैसा हम लोगों को पहचाना और बेबस करके धमाका के अपनी बेड़ी कटवा ही ली. बड़ी चालाक है, कहीं उसी का तो यह फसाद नहीं है.”

पन्नालाल – “नहीं जी, अकेली चंपा डोली में बैठा के महारानी को नहीं ले जा सकती.”

रामनारायण – “हम तीनों को महारानी की खोज में भेजने के बाद अहमद और नाज़िम को साथ ले कर पंडित बद्रीनाथ महाराज को कैद से छुड़ाने गए हैं, देखें वह क्या जस लगा कर आते हैं.”

पन्नालाल –  “भला हम लोगों का मुँह भी तो हो कि चुनारगढ़ जा कर उनका हाल सुनें और क्या जस लगा कर आते हैं इसको देखें, अगर महारानी न मिलीं, तो कौन मुँह ले के चुनारगढ़ जाएंगे?”

रामनारायण –  “बस मालूम हो गया कि आज जो शख्स महारानी को इस फुर्ती से चुरा ले गया, वह हम लोगों का ठीक उस्ताद है. अब तो इसी जंगल में खेती करो, लड़के-बाले ले कर आ बसो, महारानी का मिलना मुश्किल है.”

पन्नालाल –  “वाह रे तेरा हौसला. क्या पिनिक के औतार हुए हैं?”

थोड़ी दूर जा कर ये लोग आपस में कुछ बातें कर मिलने का ठिकाना ठहरा, अलग हो गए.

बयान – 17

एक बहुत बड़े नाले में जिसके चारों तरफ बहुत ही घना जंगल था, पंडित जगन्नाथ ज्योतिषी के साथ तेज सिंह बैठे हैं. बगल में साधारण-सी डोली रखी हुई है, पर्दा उठा हुआ है, एक औरत उसमें बैठी तेज सिंह से बातें कर रही है. यह औरत चुनारगढ़ के महाराज शिवदत्त की रानी कलावती कुँवर है. पीछे की तरफ एक हाथ डोली पर रखे चंपा भी खड़ी है.

महारानी –  “मैं चुनारगढ़ जाने में राजी नहीं हूँ. मुझको राज्य नहीं चाहिए, महाराज के पास रहना मेरे लिए स्वर्ग है. अगर वे कैद हैं, तो मेरे पैर में भी बेड़ी डाल दो, मगर उन्हीं के चरणों में रखो.”

तेज सिंह –  “नहीं, मैं यह नहीं कहता कि ज़रूर आप भी उसी कैदखाने में जाइए, जिसमें महाराज हैं. आपकी खुशी हो, तो चुनारगढ़ जाइए, हम लोग बड़ी हिफ़ाज़त से पहुँचा देंगे. कोई ज़रूरत आपको यहाँ लाने की नहीं थी. ज्योतिषी जी ने कई दफ़ा आपके पतिव्रत धर्म की तारीफ की थी और कहा था कि महाराज की जुदाई में महारानी को बड़ा ही दुख होता होगा. यह जान हम लोग आपको ले आए थे, नहीं तो खाली चंपा को ही छुड़ाने गए थे. अब आप कहिए तो चुनारगढ़ पहुँचा दें, नहीं तो महाराज के पास ले जाएं, क्योंकि सिवाय मेरे और किसी के ज़रिए आप महाराज के पास नहीं पहुँच सकतीं, और फिर महाराज क्या जाने कब तक कैद रहें.”

महारानी –  “तुम लोगों ने मेरे ऊपर बड़ी कृपा की. सचमुच मुझे महाराज से इतनी जल्दी मिलाने वाला और कोई नहीं जितनी जल्दी तुम मिला सकते हो. अभी मुझको उनके पास पहुँचाओ, देर मत करो, मैं तुम लोगों का बड़ा जस मानूंगी.”

तेज सिंह – “तो इस तरह डोली में आप नहीं जा सकतीं, मैं बेहोश करके आपको ले जा सकता हूँ.”

महारानी – “मुझको यह भी मंजूर है, किसी तरह वहाँ पहुँचाओ.”

तेज सिंह – “अच्छा तब लीजिए, इस शीशी को सूंघिए.”

महारानी को अपने पति के साथ बड़ी ही मुहब्बत थी. अगर तेज सिंह उनको कहते कि तुम अपना सिर दे दो, तब महाराज से मुलाकात होगी, तो वह उसको भी कबूल कर लेतीं.

महारानी बेखटके शीशी सूंघ कर बेहोश हो गईं.

ज्योतिषी जी ने कहा, “अब इनको ले जाइए, उसी तहखाने में छोड़ आइए. जब तक आप न आएंगे, मैं इसी जगह में रहूँगा. चंपा को भी चाहिए कि विजयगढ़ जाए, हम लोग तो कुमारी चंद्रकांता की खोज में घूम ही रहे हैं, ये क्यों दुख उठाती है.”

तेज सिंह ने कहा, “चंपा, ज्योतिषी जी ठीक कहते हैं, तुम जाओ, कहीं ऐसा न हो कि फिर किसी आफत में फंस जाओ.”

चंपा ने कहा, “जब तक कुमारी का पता न लगेगा, मैं विजयगढ़ कभी न जाऊंगी. अगर मैं इन बुर्दाफरोशों के हाथ फंसी, तो अपनी ही चालाकी से छूट भी गई, आप लोगों को मेरे लिए कोई तकलीफ़ न करनी पड़ी.”

तेज सिंह ने कहा – “तुम्हारा कहना ठीक है, हम यह नहीं कहते कि हम लोगों ने तुमको छुड़ाया. हम लोग तो कुमारी चंद्रकांता को ढूंढते हुए यहाँ तक पहुँच गए और उन्हीं की उम्मीद में बुर्दाफराशों के डेरे देख डाले. उनको तो न पाया, मगर महारानी और तुम फंसी हुई दिखाई दीं, छुड़ाने की फ़िक्र हुई. पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल को महारानी को छुड़ाने के लिए कोशिश करते देख, हम लोग यह समझ कर अलग हो गए कि मेहनत वे लोग करें, मौके में मौका हम लोगों को भी काम करने का मिल ही जाएगा. सो ऐसा ही हुआ भी. तुम अपनी ही चालाकी से छूट कर बाहर निकल गईं. हमने महारानी को गायब किया. खैर, इन सब बातों को जाने दो, तुम यह बताओ कि घर न जाओगी तो क्या करोगी?  कहाँ ढूंढोगी? कहीं ऐसा न हो कि हम लोग तो कुमारी को खोज कर विजयगढ़ ले जाएं और तुम महीनों तक मारी-मारी फिरो.”

चंपा ने कहा, “मैं एकदम से ऐसी बेवकूफ नहीं, आप बेफ़िक्र रहें.”

तेज सिंह को लाचार हो कर चंपा को उसकी मर्जी पर छोड़ना पड़ा और ज्योतिषी जी को भी उसी जंगल में छोड़ महारानी की गठरी बांधकर कैदखाने वाले खोह की तरफ रवाना हुए, जिसमें महाराज बंद थे. चंपा भी एक तरफ को रवाना हो गई.

बयान – 18

तेज सिंह के जाने के बाद ज्योतिषी जी अकेले पड़ गए, सोचने लगे कि रमल के जरिए पता लगाना चाहिए कि चंद्रकांता और चपला कहाँ हैं? बस्ता खोल पटिया निकाल रमल फेंक गिनने लगे. घड़ी भर तक खूब गौर किया. यकायक ज्योतिषी जी के चेहरे पर ख़ुशी झलकने लगी और होंठों पर हँसी आ गई. झटपट रमल और पटिया बांध उसी तहखाने की तरफ दौड़े, जहाँ तेज सिंह, महारानी को लिए जा रहे थे. ऐयार तो थे ही, दौड़ने में कसर न की, जहाँ तक बन पड़ा तेजी से दौड़े.

तेज सिंह कदम-कदम झपटे हुए चले जा रहे थे. लगभग पाँच कोस गए होंगे कि पीछे से आवाज आई – “ठहरो-ठहरो.”

फिर के देखा तो ज्योतिषी जगन्नाथ जी बड़ी तेजी से चले आ रहे हैं, ठहर गए, जी में खुटका हुआ कि यह क्यों दौड़े आ रहे हैं.

जब पास पहुँचे इनके चेहरे पर कुछ हँसी देख तेज सिंह का जी ठिकाने हुआ. पूछा, “क्यों क्या है, जो आप दौड़े आए हैं?”

ज्योतिषी जी – “है क्या, बस हम भी आपके साथ उसी तहखाने में चलेंगे.”

तेज सिंह – “सो क्यों?”

ज्योतिषी जी – “इसका हाल भी वहीं मालूम होगा, यहाँ न कहेंगे.”

तेज सिंह – “तो वहाँ दरवाजे पर पट्टी भी बांधनी पड़ेगी, क्योंकि पहले वाले ताले का हाल जब से कुमार को धोखा दे कर बद्रीनाथ ने मालूम कर लिया, तब से एक और ताला हमने उसमें लगाया है, जो पहले ही से बना हुआ था मगर आलकस से उसको काम में नहीं लाते थे क्योंकि खोलने और बंद करने में जरा देर लगती है. हम यह निश्चय कर चुके हैं कि इस ताले का भेद किसी को न बताएंगे.”

ज्योतिषी जी – “मैं तो अपनी आँखों पर पट्टी न बंधाऊंगा और उस तहखाने में भी ज़रूर जाऊंगा. तुम झख मारोगे और ले चलोगे.”

तेज सिंह – “वाह क्या खूब? भला कुछ हाल तो मालूम हो?”

ज्योतिषी जी –  “हाल क्या, बस पौ बारह है. कुमारी चंद्रकांता को वहीं दिखा दूंगा.”

तेज सिंह – “हाँ? सच कहो.”

ज्योतिषी जी –  “अगर झूठ निकले, तो उसी तहखाने में मुझको हलाल करके मार डालना.”

तेज सिंह – “खूब कही, तुम्हें मार डालूंगा, तो तुम्हारा क्या बिगड़ेगा? बह्महत्या तो मेरे सिर चढ़ेगी.”

ज्योतिषी जी –  “इसका भी ढंग मैं बता देता हूँ, जिसमें तुम्हारे ऊपर ब्रह्महत्या न चढ़े.”

तेज सिंह – “वह क्या?”

ज्योतिषी जी –  “कुछ मुश्किल नहीं है. पहले मुसलमान कर डालना, तब हलाल करना.”

ज्योतिषी जी की बात पर तेज सिंह हँस पड़े और बोले, “अच्छा भाई चलो, क्या करें, आपका हुक्म मानना भी ज़रूरी है.”

दूसरे दिन शाम को ये लोग उस तहखाने के पास पहुँचे. ज्योतिषी जी के सामने ही तेज सिंह ताला खोलने लगे. पहले उस शेर के मुँह में हाथ डाल के उसकी जुबान बाहर निकाली, इसके बाद दूसरा ताला खोलने लगे.

दरवाजे के दोनों तरफ दो पत्थर संगमरमर के दीवार के साथ जड़े थे. दाहिनी तरफ के संगमरमर वाले पत्थर पर तेज सिंह ने जोर से लात मारी, साथ ही एक आवाज हुई और वह पत्थर दीवार के अंदर घुस कर जमीन के साथ सट गया. छोटे से हाथ भर के चबूतरे पर एक साँप चक्कर मारे बैठा देखा, जिसकी गर्दन पकड़ कर कई दफ़ा पेंच की तरह घुमाया, दरवाजा खुल गया. महारानी की गठरी लिए तेज सिंह और ज्योतिषी जी अंदर गए, भीतर से दरवाजा बंद कर लिया. भीतर दरवाजे के बाएँ तरफ की दीवार में एक सूराख हाथ जाने लायक था, उसमें हाथ डाल के तेज सिंह ने कुछ किया, जिसका हाल ज्योतिषी जी को मालूम न हो सका.

ज्योतिषी जी ने पूछा – “इसमें क्या है?”

तेज सिंह ने जवाब दिया, “इसके भीतर एक किल्ली है, जिसके घुमाने से वह पत्थर बंद हो जाता है, जिस पर बाहर मैंने लात मारी और जिसके अंदर साँप दिखाई पड़ा था. इस सूराख से सिर्फ उस पत्थर के बंद करने का काम चलता है, खुल नहीं सकता. खोलते समय इधर भी वही तरकीब करनी पड़ेगी, जो दरवाजे के बाहर की गई थी.”

दरवाजा बंद कर ये लोग आगे बढ़े. मैदान में जा कर महारानी की गठरी खोल उन्हें होश में लाए और कहा, “हमारे साथ-साथ चली आइए, आपको महाराज के पास पहुँचा दें.”

महरानी इन लोगों के साथ-साथ आगे बढ़ीं.

तेज सिंह ने ज्योतिषी जी से पूछा, “बताइए चंद्रकांता कहाँ हैं?”

ज्योतिषी जी ने कहा, “मैं पहले कभी इसके अंदर आया नहीं, जो सब जगहें मेरी देखी हों, आप आगे चलिए, महाराज शिवदत्त को दूंढ़िए, चंद्रकांता भी दिखाई दे जाएगी.”

घूमते-फिरते महाराज शिवदत्त को ढूंढ़ते ये लोग उस नाले के पास पहुँचे, जिसका हाल पहले भाग में लिख चुके हैं. यकायक सभी की निगाह महाराज शिवदत्त पर पड़ी, जो नाले के उस पार एक पत्थर के ढोंके पर खड़े ऊपर की तरफ मुँह किए कुछ देख रहे थे.

महारानी तो महाराज को देख दीवानी-सी हो गईं. किसी से कुछ न पूछा कि इस नाले में कितना पानी है या उस पार कैसे जाना होगा, झट कूद पड़ीं. पानी थोड़ा ही था, पार हो गईं और दौड़ कर रोती महाराज शिवदत्त के पैरों पर गिर पड़ीं. महाराज ने उठा कर गले से लगा लिया. तब तक तेज सिंह और ज्योतिषी जी भी नाले के पार हो महाराज शिवदत्त के पास पहुँचे.

ज्योतिषी जी को देखते ही महाराज ने पूछा, “क्योंजी, तुम यहाँ कैसे आए? क्या तुम भी तेज सिंह के हाथ फंस गए.”

ज्योतिषी जी ने कहा, “नहीं तेज सिंह के हाथ क्यों? हाँ उन्होंने कृपा करके मुझे अपनी मंडली में मिला लिया है, अब हम वीरेंद्र सिंह की तरफ हैं, आपसे कुछ वास्ता नहीं.”

ज्योतिषी जी की बात सुन कर महाराज को बड़ा गुस्सा आया, लाल-लाल आँखें कर उनकी तरफ देखने लगे.

ज्योतिषी जी ने कहा, “अब आप बेफायदा गुस्सा करते हैं, इससे क्या होगा? जहाँ जी में आया तहाँ रहे, जो अपनी इज्जत करे, उसी के साथ रहना ठीक है. आप खुद सोच लीजिए और याद कीजिए कि मुझको आपने कैसी-कैसी कड़ी बातें कही थीं. उस वक्त यह भी न सोचा कि ब्राह्मण है. अब क्यों मेरी तरफ लाल-लाल आँखें करके देखते हैं.”

ज्योतिषी जी की बातें सुन कर शिवदत्त ने सिर नीचा कर लिया और कुछ जवाब न दिया. इतने में एक बारीक आवाज आई, “तेज सिंह.”

तेज सिंह ने सिर उठा कर उधर देखा, जिधर से आवाज आई थी, चंद्रकांता पर नज़र पड़ी, जिसे देखते ही इनकी आँखों से आँसू निकल पड़े. हाय, क्या सूरत हो रही है, सिर के बाल खुले हैं, गुलाब-सा मुँह कुम्हला गया, बदन पर मैल चढ़ा हुआ है, कपड़े फटे हुए हैं, पहाड़ के ऊपर एक छोटी-सी गुफा के बाहर खड़ी ‘तेज सिंह-तेज सिंह’, पुकार रही है.

तेज सिंह उस तरफ दौड़े और चाहा कि पहाड़ पर चढ़ कर कुमारी के पास पहुँच जाएं, मगर न हो सका, कहीं रास्ता न मिला. बहुत परेशान हुए, लेकिन कोई काम न चला. लाचार हो कर ऊपर चढ़ने के लिए कमंद फेंकी, मगर वह चौथाई दूर भी न गई. ज्योतिषी जी से कमंद ले कर अपने कमंद में जोड़ कर फिर फेंकी, आधी दूर भी न पहुँची. हर तरह की तरकीबें की, मगर कोई मतलब न निकला. लाचार हो कर आवाज दी और पूछा, “कुमारी, आप यहाँ कैसे आईं?”

तेज सिंह की आवाज कुमारी के कान तक बखूबी पहुँची, मगर कुमारी की आवाज जो बहुत ही बारीक थी, तेज सिंह के कानों तक पूरी-पूरी न आई. कुमारी ने कुछ जवाब दिया, साफ-साफ तो समझ में न आया, हाँ इतना समझ पड़ा, “किस्मत…आई…तरह…निकालो…”

हाय-हाय कुमारी से अच्छी तरह बात भी नहीं कर सकते. यह सोच तेज सिंह बहुत घबराए, मगर इससे क्या हो सकता था?  कुमारी ने कुछ और कहा, जो बिल्कुल समझ में न आया. हाँ, यह मालूम हो रहा था कि कोई बोल रहा है. तेज सिंह ने फिर आवाज दी और कहा, “आप घबराइए नहीं, कोई तरकीब निकालता हूँ जिससे आप नीचे उतर आएं.“

इसके जवाब में कुमारी मुँह से कुछ न बोली, उसी जगह एक जंगली पेड़ था, जिसके पत्ते जरा बड़े और मोटे थे, एक पत्ता तोड़ लिया और एक छोटे नुकीले पत्थर की नोक से उस पत्ते पर कुछ लिखा, अपनी धोती में से थोड़ा-सा कपड़ा फाड़ उसमें वह पत्ता और एक छोटा-सा पत्थर बांध इस अंदाज से फेंका कि नाले के किनारे कुछ जल में गिरा.

तेज सिंह ने उसे ढूंढ कर निकाला, गिरह खोली, पत्तो पर गोर से निगाह डाली, लिखा था, “तुम जा कर पहले कुमार को यहाँ ले आओ.”

तेज सिंह ने ज्योतिषी जी को वह पत्ता दिखलाया और कहा, “आप यहाँ ठहरिए, मैं जा कर कुमार को बुला लाता हूँ. तब तक आप भी कोई तरकीब सोचिए, जिससे कुमारी नीचे उतर सकें.”

ज्योतिषी जी ने कहा, “अच्छी बात है, तुम जाओ, मैं कोई तरकीब सोचता हूँ.”

इस कैफ़ियत को महारानी ने भी बखूबी देखा, मगर यह जान न सकी कि कुमारी ने पत्तों पर क्या लिख कर फेंका और तेज सिंह कहाँ चले गए? तो भी महारानी को चंद्रकांता की बेबसी पर रुलाई आ गई और उसी तरफ टकटकी लगा कर देखती रहीं. तेज सिंह वहाँ से चल कर फाटक खोल खोह के बाहर हुए और फिर दोहरा ताला लगा विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए.

बयान – 19

जब से कुमारी चंद्रकांता विजयगढ़ से गायब हुईं और महाराज शिवदत्त से लड़ाई लगी, तब से महाराज जय सिंह और महल की औरतें तो उदास थीं ही, उनके सिवाय कुल विजयगढ़ की रियाया भी उदास थी, शहर में गम छाया हुआ था.

जब तेज सिंह और ज्योतिषी जी को कुमारी की खोज में भेज, वीरेंद्र सिंह लौट कर मय देवी सिंह के विजयगढ़ आए, तब सभी को यह आशा हुई कि राजकुमारी चंद्रकांता भी आती होंगी. लेकिन जब कुमार की जुबानी महाराज जय सिंह ने पूरा-पूरा हाल सुना, तो तबीयत और परेशान हुई. महाराज शिवदत्त के गिरफ्तार होने का हाल सुन कर तो ख़ुशी हुई, मगर जब नाले में से कुमारी का फिर गायब हो जाना सुना, तो पूरी नाउम्मीदी हो गई.

दीवान हरदयाल सिंह वगैरह ने बहुत समझाया और कहा कि कुमारी अगर पाताल में भी गई होंगी, तो तेज सिंह खोज निकालेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं, फिर भी महाराज के जी को भरोसा न हुआ. महल में महारानी की हालत तो और भी बुरी थी, खाना-पीना, बोलना बिल्कुल छूट गया था, सिवाय रोने और कुमारी की याद करने के दूसरा कोई काम न था.

कई दिन तक कुमार विजयगढ़ में रहे, बीच में एक दफ़ा नौगढ़ जा कर अपने माता-पिता से भी मिल आए, मगर तबीयत उनकी बिल्कुल नहीं लगती थी, जिधर जाते थे, उदासी ही दिखाई देती थी.

एक दिन रात को कुमार अपने कमरे में सोए हुए थे, दरवाजा बंद था, रात आधी से ज्यादा जा चुकी थी. चंद्रकांता की जुदाई में पड़े-पड़े क़ुछ सोच रहे थे, नींद बिल्कुल नहीं आ रही थी, दरवाजे के बाहर किसी के बोलने की आहट मालूम पड़ी बल्कि किसी के मुँह से ‘कुमारी’ ऐसा सुनने में आया. झट पलंग पर से उठ दरवाजे के पास आए और किवाड़ के साथ कान लगा सुनने लगे, इतनी बातें सुनने में आईं –

“मैं सच कहता हूँ, तुम मानो चाहे न मानो. हाँ पहले मुझे ज़रूर यकीन था कि कुमारी पर कुँवर वीरेंद्र सिंह का प्रेम सच्चा है, मगर अब मालूम हो गया कि यह सिवाय विजयगढ़ का राज्य चाहने के, कुमारी से मुहब्बत नहीं रखते, अगर सच्ची मुहब्बत होती तो ज़रूर खोज….”

इतनी बात सुनी थी कि दरबानों को कुछ चोर की आहट मालूम पड़ी, बातें करना छोड़ पुकार उठे, “कौन है?”

मगर कुछ मालूम न हुआ. बड़ी देर तक कुमार दरवाजे के पास बैठे रहे, परंतु फिर कुछ सुनने में न आया, हाँ इतना मालूम हुआ कि दरबानों में बातचीत हो रही थी.

कुमार और भी घबरा उठे, सोचने लगे कि जब दरबानों और सिपाहियों को यह विश्वास है कि कुमार चंद्रकांता के प्रेमी नहीं हैं, तो ज़रूर महाराज का भी यही ख़याल होगा, बल्कि महल में महारानी भी यही सोचती होगी. अब विजयगढ़ में मेरा रहना ठीक नहीं, नौगढ़ जाने को भी जी नहीं चाहता क्योंकि वहाँ जाने से और भी लोगों के जी में बैठ जाएगा कि कुमार की मुहब्बत नकली और झूठी थी. तब कहाँ जाएं? क्या करें? इन्हीं सब बातों को सोचते, सवेरा हो गया.

आज कुमार ने स्नान-पूजा और भोजन से जल्दी ही छुट्टी कर ली. पहर दिन चढ़ा होगा, अपनी सवारी का घोड़ा मंगवाया और सवार हो किले के बाहर निकले. कई आदमी साथ हुए, मगर कुमार के मना करने से रुक गए. लेकिन देवी सिंह ने साथ न छोड़ा. इन्होंने हजार मना किया, पर एक न माना, साथ चले ही गए. कुमार ने इस नीयत से घोड़ा तेज किया, जिससे देवी सिंह पीछे छूट जाए और इनका भी साथ न रहे, मगर देवी सिंह ऐयारी में कुछ कम न थे, दौड़ने की आदत भी ज्यादा थी, अस्तु घोड़े का संग न छोड़ा. इसके सिवाय पहाड़ी जंगल की ऊबड़-खाबड़ जमीन होने के सबब कुमार का घोड़ा भी उतना तेज नहीं जा सकता था, जितना कि वे चाहते थे.

देवी सिंह बहुत थक गए, कुमार को भी उन पर दया आ गई. जी में सोचने लगे कि यह मुझसे बड़ी मुहब्बत रखता है. जब तक इसमें जान है, मेरा संग न छोड़ेगा, ऐसे आदमी को जान-बूझ कर दुख देना मुनासिब नहीं. कोई गैर तो नहीं कि साथ रखने में किसी तरह की कबाहट हो, आखिर कुमार ने घोड़ा रोका और देवी सिंह की तरफ देख कर हँसे.

हाँफते-हाँफते देवी सिंह ने कहा, “भला कुछ यह भी तो मालूम हो कि आप का इरादा क्या है, कहीं सनक तो नहीं गए?”

कुमार घोड़े पर से उतर पड़े और बोले, “अच्छा इस घोड़े को चरने के लिए छोड़ो, फिर हमसे सुनो कि हमारा क्या इरादा है.”

 देवी सिंह ने जीनपोश कुमार के लिए बिछा कर घोड़े को चरने के वास्ते छोड़ दिया और उनके पास बैठ कर पूछा,  “अब बताइए, आप क्या सोच कर विजयगढ़ से बाहर निकले.”

इसके जवाब में कुमार ने रात का बिल्कुल किस्सा कह सुनाया और कहा कि कुमारी का पता न लगेगा तो मैं विजयगढ़ या नौगढ़ न जाऊंगा.”

देवी सिंह ने कहा, “यह सोचना बिल्कुल भूल है. हम लोगों से ज्यादा आप क्या पता लगाएंगे? तेज सिंह और ज्योतिषी जी खोजने गए ही हैं, मुझे भी हुक्म हो तो जाऊं. आपके किए कुछ न होगा. अगर आपको बिना कुमारी का पता लगाए विजयगढ़ जाना पसंद नहीं, तो नौगढ़ चलिए, वहाँ रहिए, जब पता लग जाएगा, विजयगढ़ चले जाइएगा. अब आप अपने घर के पास भी आ पहुँचे हैं.”

कुमार ने सोच कर कहा, “यहाँ से मेरा घर बनिस्बत विजयगढ़ के दूर होगा कि नजदीक? मैं तो बहुत आगे बढ़ आया हूँ.”

देवी सिंह ने कहा, “नहीं, आप भूलते हैं, न मालूम किस धुन में आप घोड़ा फेंके चले आए, पूरब-पश्चिम का ध्यान तो रहा ही नहीं, मगर मैं खूब जानता हूँ कि यहाँ से नौगढ़ केवल दो कोस है और वह देखिए वह बड़ा-सा पीपल का पेड़ जो दिखाई देता है, वह उस खोह के पास ही है, जहाँ महाराज शिवदत्त कैद हैं. (तेज सिंह को आते देख कर) हैं, “यह तेज सिंह कहाँ से चले आ रहे हैं? देखिए कुछ न कुछ पता जरूर लगा होगा।.”

तेज सिंह दूर से दिखाई पड़े, मगर कुमार से न रहा गया, खुद उनकी तरफ चले.

तेज सिंह ने भी इन दोनों को देखा और कुमार को अपनी तरफ आते देख दौड़ कर उनके पास पहुँचे. बेसब्री के साथ पहले कुमार ने यही पूछा, “क्यों, कुछ पता चला?”

तेज सिंह – “हाँ.”

कुमार – “कहाँ?”

तेज सिंह – “चलिए दिखाए देता हूँ.”

इतना सुनते ही कुमार तेज सिंह से लिपट गए और बड़ी खुशी के साथ बोले – “चलो देखें.”

तेज सिंह – “घोड़े पर सवार हो लीजिए, आप घबराते क्यों हैं, मैं तो आप ही को बुलाने जा रहा था, मगर आप यहाँ आ कर क्यों बैठे हैं?”

कुमार – “इसका हाल देवी सिंह से पूछ लेना, पहले वहाँ तो चलो.”

देवी सिंह ने घोड़ा तैयार किया, कुमार सवार हो गए. आगे-आगे तेज सिंह और देवी सिंह, पीछे-पीछे कुमार रवाना हुए और थोड़ी ही देर में खोह के पास जा पहुँचे.

तेज सिंह ने कहा, “लीजिए अब आपके सामने ही ताला खोलता हूँ, क्या करूँ, मगर होशियार रहिएगा, कहीं ऐयार लोग आपको धोखा दे कर इसका भी पता न लगा लें.”

ताला खोला गया और तीनों आदमी अंदर गए. जल्दी-जल्दी चल कर उस चश्मे के पास पहुँचे, जहाँ ज्योतिषी जी बैठे हुए थे, उंगली के इशारे से बता कर तेज सिंह ने कहा, “देखिए वह ऊपर चंद्रकांता खड़ी हैं.”

कुमारी चंद्रकांता ऊँची पहाड़ी पर थीं,  दूर से कुमार को आते देख मिलने के लिए बहुत घबरा गई. यही कैफ़ियत कुमार की भी थी, रास्ते का ख़याल तो किया नहीं, ऊपर चढ़ने को तैयार हो गए, मगर क्या हो सकता था?

तेज सिंह ने कहा, “आप घबराते क्यों हैं? ऊपर जाने के लिए रास्ता होता, तो आपको यहाँ लाने की ज़रूरत ही क्या थी, कुमारी ही को न ले जाते?”

दोनों की टकटकी बंध गई, कुमार वीरेंद्र सिंह कुमारी को देखने लगे और वह इनको. दोनों ही की आँखों से आँसू की नदी बह चली. कुछ करते नहीं बनता, हाय क्या टेढ़ा मामला है? जिसके वास्ते घर-बार छोड़ा, जिसके मिलने की उम्मीद में पहले ही जान से हाथ धो बैठे, जिसके लिए हजारों सिर कटे, जो महीनों से गायब रह कर आज दिखाई पड़ी, उससे मिलना तो दूर रहा अच्छी तरह बातचीत भी नहीं कर सकते. ऐसे समय में उन दोनों की क्या दशा थी वे ही जानते होंगे.

तेज सिंह ने ज्योतिषी जी की तरफ देख कर पूछा, “क्यों आपने कोई तरकीब सोची?”

ज्योतिषी जी ने जवाब दिया, “अभी तक कोई तरकीब नहीं सूझी, मगर मैं इतना जरूर कहूंगा कि बिना कोई भारी कारवाई किए कुमारी का ऊपर से उतरना मुश्किल है. जिस तरह से वे आई हैं, उसी तरह से बाहर होंगी, दूसरी तरकीब कभी पूरी नहीं हो सकती. मैंने रमल से भी राय ली थी, वह भी यही कहता है, सो अब जिस तरह हो सके कुमारी से यह पूछें और मालूम करें कि वह किस राह से यहाँ तक आईं?  तब हम लोग ऊपर चल कर कोई काम करें, यह मामला तिलिस्म का है, खेल नहीं है.”

तेज सिंह ने इस बात को पसंद किया, कुमारी से पुकार कर कहा, “आप घबराएं नहीं, जिस तरह से पहले आपने पत्तों पर लिख कर फेंका था, उसी तरह अब फिर मुख्तसर में यह लिख कर फेंकिए कि आप किस राह से वहाँ पहुँची हैं.”

बयान – 20

चपला तहखाने में उतरी. नीचे एक लंबी-चौड़ी कोठरी नजर आई, जिसमें चौखट के सिवाय किवाड़ के पल्ले नहीं थे. पहले चपला ने उसे खूब गौर करके देखा, फिर अंदर गई. दरवाजे के भीतर पैर रखते ही ऊपर वाले चौखटे के बीचों-बीच से लोहे का एक तख्ता बड़े जोर के साथ गिर पड़ा. चपला ने चौंक कर पीछे देखा, दरवाजा बंद पाया. सोचने लगी – ‘यह कोठरी है कि मूसेदानी? दरवाजा इसका बिल्कुल चूहेदानी की तौर पर है. अब क्या करें? और कोई रास्ता कहीं जाने का मालूम नहीं पड़ता, बिल्कुल अंधेरा हो गया, हाथ को हाथ दिखाई नहीं पड़ता.”

चपला अंधेरे में चारों तरफ घूमने और टटोलने लगी.

घूमते-घूमते चपला का पैर एक गड्ढे में जा पड़ा, साथ ही इसके कुछ आवाज हुई और दरवाजा खुल गया, कोठरी में चाँदना भी पहुँच गया. यह वह दरवाजा नहीं था, जो पहले बंद हुआ था, बल्कि एक दूसरा ही दरवाजा था. चपला ने पास जा कर देखा, इसमें भी कहीं किवाड़ के पल्ले नहीं दिखाई पड़े.

आखिर उस दरवाजे की राह से कोठरी के बाहर हो एक बाग में पहुँची. देखा कि छोटे-छोटे फूलों के पेड़ों में रंग-बिरंगे फूल खिले हुए हैं, एक तरफ से छोटी नहर के जरिए से पानी अंदर पहुँच कर बाग में छिड़काव का काम कर रहा है, मगर क्यारियाँ इसमें की कोई भी दुरुस्त नहीं हैं. सामने एक बारहदरी नजर आई, धीरे-धीरे घूमती वहाँ पहुँची.

यह बारहदरी बिल्कुल स्याह पत्थर से बनी हुई थी. छत, जमीन, खंबे सब स्याह पत्थर के थे. बीच में संगमरमर के सिंहासन पर हाथ भर का एक सुर्ख चौखूटा पत्थर रखा हुआ था. चपला ने उसे देखा, उस पर यह खुदा हुआ था – ‘यह तिलिस्म है, इसमें फंसने वाला कभी निकल नहीं सकता. हाँ, अगर कोई इसको तोड़े, तो सब कैदियों को छुड़ा ले और दौलत भी उसके हाथ लगे. तिलिस्म तोड़ने वाले के बदन में खूब ताकत भी होनी चाहिए, नहीं तो मेहनत बेफ़ायदा है.”

चपला को इसे पढ़ने के साथ ही यकीन हो गया कि अब जान गई, जिस राह से मैं आई हूँ, उस राह से बाहर जाना कभी नहीं हो सकता. कोठरी का दरवाजा बंद हो गया, बाहर वाले दरवाजे को कमंद से बांधना व्यर्थ हुआ, मगर शायद वह दरवाजा खुला हो, जिससे इस बाग में आई हूँ. यह सोच कर चपला फिर उसी दरवाजे की तरफ गई, मगर उसका कोई निशान तक नहीं मिला, यह भी नहीं मालूम हुआ कि किस जगह दरवाजा था. फिर लौट कर उसी बारहदरी में पहुँची और सिंहासन के पास गई. जी में आया कि इस पत्थर को उठा लूं, अगर किसी तरह बाहर निकलने का मौका मिले, तो इसको भी साथ लेती जाऊंगी, लोगों को दिखाऊंगी. पत्थर उठाने के लिए झुकी, मगर उस पर हाथ रखा ही था, कि बदन में सनसनाहट पैदा हुई और सिर घूमने लगा, यहाँ तक कि बेहोश हो कर जमीन पर गिर पड़ी.

जब तक दिन बाकी था चपला बेहोश पड़ी रही, शाम होते-होते होश में आई. उठ कर नहर के किनारे गई, हाथ-मुँह धोए, जी ठिकाने हुआ. उस बाग में अंगूर बहुत लगे हुए थे, मगर उदासी और घबराहट के सबब चपला ने एक दाना भी न खाया, फिर उसी बारहदरी में पहुँची. रात हो गई, और धीरे-धीरे वह बारहदरी चमकने लगी. जैसे-जैसे रात बीतती जाती थी, बारहदरी की चमक भी बढ़ती थी. छत, दीवार, जमीन और खंबे सब चमक रहे थे, कोई जगह उस बारहदरी में ऐसी न थी, जो दिखाई न देती हो, बल्कि उसकी चमक से सामने वाला थोड़ा हिस्सा बाग का भी चमक रहा था.

यह चमक काहे की है, इसको जानने के लिए चपला ने जमीन, दीवार और खंबों पर हाथ फेरा मगर कुछ समझ में न आया. ताज्ज़ुब, डर और नाउम्मीदी ने चपला को सोने न दिया, तमाम रात जागते ही बीती. कभी दीवार टटोलती, कभी उस सिंहासन के पास जा उस पत्थर को गौर से देखती, जिसके छूने से बेहोश हो गई थी.

सवेरा हुआ, चपला फिर बाग में घूमने लगी. उस दीवार के पास पहुँची, जिसके नीचे से बाग में नहर आई थी. सोचने लगी – ‘दीवार बहुत चौड़ी नहीं है, नहर का मुँह भी खुला है, इस राह से बाहर हो सकती हूँ, आदमी के जाने लायक रास्ता बखूबी है,”

बहुत सोचने-विचारने के बाद चपला ने वही किया, कपड़े सहित नहर में उतर गई, दीवार से उस तरफ हो जाने के लिए गोता मारा, काम पूरा हो गया अर्थात उस दीवार के बाहर हो गई. पानी से सिर निकाल कर देखा, तो नहर को बाग के भीतर की बनिस्बत चौड़ी पाया. पानी के बाहर निकली और देखा कि दूर सब तरफ ऊँचे-ऊँचे पहाड़ दिखाई देते हैं, जिनके बीचो-बीच से यह नहर आई है और दीवार के नीचे से होकर बाग के अंदर गई है.

चपला ने अपने कपड़े धूप में सुखाए, ऐयारी का बटुआ भीगा न था क्योंकि उसका कपड़ा रोगनी था. जब सब तरह से लैस हो चुकी, वहाँ से सीधे रवाना हुई. दोनों तरफ ऊँचे-ऊँचे पहाड़, बीच में नाला, किनारे पारिजात के पेड़ लगे हुए, पहाड़ के ऊपर किसी तरफ चढ़ने की जगह नहीं, अगर चढ़े भी तो थोड़ी दूर ऊपर जाने के बाद फिर उतरना पड़े. चपला नाले के किनारे रवाना हुई. दो पहर दिन चढ़े तक लगभग तीन कोस चली गई. आगे जाने के लिए रास्ता न मिला, क्योंकि सामने से भी एक पहाड़ ने रास्ता रोक रखा था, जिसके ऊपर से गिरने वाला पानी का झरना नीचे नाले में आ कर बहता था. पहाड़ी के नीचे एक दालान था, जो अंदाज में दस गज लंबा और गज भर चौड़ा होगा. गौर के साथ देखने से मालूम होता था कि पहाड़ काट के बनाया गया है. इसके बीचोबीच पत्थर का एक अजदहा (अजगर) था, जिसका मुँह खुला हुआ था और आदमी उसके पेट में बखूबी जा सकता था. सामने एक लंबा-चौड़ा संगमरमर का साफ चिकना पत्थर भी जमीन पर जमाया हुआ था.

अजदहे को देखने के लिए चपला उसके पास गई. संगमरमर के पत्थर पर पैर रखा ही था कि धीरे-धीरे अजदहे ने दम खींचना शुरू किया, और कुछ ही देर बाद यहाँ तक खींचा कि चपला का पैर न जम सका, वह खिंच कर उसके पेट में चली गई साथ ही बेहोश भी हो गई. जब चपला होश में आई, उसने अपने को एक कोठरी में पाया, जो बहुत तंग सिर्फ दस-बारह आदमियों के बैठने लायक होगी. कोठरी के बगल में ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई थीं. चपला थोड़ी देर तक अचंभे में भरी हुई बैठी रही, तरह-तरह के ख़याल उसके जी में पैदा होने लगे, अक्ल चकरा गई कि यह क्या मामला है?

आखिर चपला ने अपने को संभाला और सीढ़ी के रास्ते छत पर चढ़ गई, जाते ही सीढ़ी का दरवाजा बंद हो गया. नीचे उतरने की जगह न थी, इधर-उधर देखने लगी. चारों तरफ ऊँचे-ऊँचे पहाड़, सामने एक छोटा-सी खोह नजर पड़ी, जो बहुत अँधेरी न थी क्योंकि आगे की तरफ से उसमें रोशनी पहुँच रही थी.

चपला लाचार हो कर उस खोह में घुसी. थोड़ी ही दूर जा कर एक छोटा-सा दालान मिला, यहाँ पहुँच कर देखा कि कुमारी चंद्रकांता बहुत से बड़े-बड़े पत्ते आगे रखे हुए बैठी है और पत्तों पर पत्थर की नोक से कुछ लिख रही है. नीचे झांककर देखा, तो बहुत ही ढालवीं पहाड़ी, उतरने की जगह नहीं, उसके नीचे कुँवर वीरेंद्र सिंह और ज्योतिषी जी खड़े ऊपर की तरफ देख रहे हैं.

कुमारी चंद्रकांता के कान में चपला के पैर की आहट पहुँची, फिर के देखा, पहचानते ही उठ खड़ी हुई और बोली, “वाह सखी, खूब पहुँची. देख सब कोई नीचे खड़े हैं, कोई ऐसी तरकीब नजर नहीं आती कि मैं उन तक पहुँचूं. उन लोगों की आवाज मेरे कान तक पहुँचती है, मगर मेरी कोई नहीं सुनता.”

तेज सिंह ने पूछा है कि तुम किस राह से यहाँ आई हो? उसी का जवाब इस पत्तों पर लिख रही हूँ, इसे नीचे फेकूंगी.”

चपला ने पहले खूब ध्यान करके चारों तरफ देखा, नीचे उतरने की कोई तरकीब नजर न आई, तब बोली, “कोई ज़रूरत नहीं है, पत्तों पर लिखने की. मैं पुकार के कहे देती हूँ, मेरी आवाज वे लोग बखूबी सुनेंगे. पहले यह बताओ तुमको बगुला निगल गया था या किसी दूसरी राह से आई हो?”

कुमारी ने कहा, “हाँ मुझको वही बगुला निगल गया था, जिसको तुमने उस खंडहर में देखा होगा, शायद तुमको भी वही निगल गया हो.”

चपला ने कहा, “नहीं मैं दूसरी राह से आई हूँ. पहले उस खंडहर का पता इन लोगों को दे लूं, तब बातें करूं, जिससे ये लोग भी कोई बंदोबस्त हम लोगों के छुड़ाने का करें. जहाँ तक मैं सोचती हूँ, मालूम होता है कि हम लोग कई दिनों तक यहाँ फंसे रहेंगे, खैर, जो होगा देखा जाएगा.”

बयान – 21

कुमारी के पास आते हुए चपला को नीचे से कुँवर वीरेंद्र सिंह वगैरह सभी ने देखा.

ऊपर से चपला पुकार कर कहने लगी, “जिस खोह में हम लोगों को शिवदत्त ने कैद किया था, उसके लगभग सात कोस दक्षिण एक पुराने खंडहर में एक बड़ा भारी पत्थर का करामाती बगुला है, वही कुमारी को निगल गया था. वह तिलिस्म किसी तरह टूटे, तो हम लोगों की जान बचे. दूसरी कोई तरकीब हम लोगों के छूटने की नहीं हो सकती. मैं बहुत संभल कर उस तिलिस्म में गई थी, पर तो भी फंस गई. तुम लोग जाना, तो बहुत होशियारी के साथ उसको देखना. मैं यह नहीं जानती कि वह खोह चुनारगढ़ से किस तरफ है, हम लोगों को दुष्ट शिवदत्त ने कैद किया था.”

चपला की बात बखूबी सभी ने सुनी, कुमार को महाराज शिवदत्त पर बड़ा ही गुस्सा आया. सामने मौजूद ही थे, कहीं ढूंढने जाना तो था ही नहीं, तलवार खींच मारने के लिए झपटे.

महाराज शिवदत्त की रानी जो उन्हीं के पास बैठी सब तमाशा देखती और बातें सुनती थीं, कुँवर वीरेंद्र सिंह को तलवार खींच के महाराज शिवदत्त की तरफ झपटते देख दौड़ कर कुमार के पैरों पर गिर पड़ीं और बोलीं, “पहले मुझको मार डालिए, क्योंकि मैं विधवा होकर मुर्दों से बुरी हालत में नहीं रह सकती.”

तेज सिंह ने कुमार का हाथ पकड़ लिया और बहुत कुछ समझा-बुझा कर ठंडा किया.

कुमार ने तेज सिंह से कहा, “अगर मुनासिब समझो और हर्ज़ न हो, तो कुमारी के माँ-बाप को भी यहाँ ला कर कुमारी का मुँह दिखला दो, भला कुछ उन्हें भी तो ढांढ़स हो.”

तेज सिंह ने कहा, “यह कभी नहीं हो सकता, इस तहखाने को आप मामूली न समझिए, जो कुछ कहना होगा मुँहजबानी सब हाल उनको समझा दिया जाएगा. अब यह फ़िक्र करनी चाहिए, जिससे कुमारी की जान छूटे. चलिए सब कोई महाराज जय सिंह को यह हाल कहते हुए उस खंडहर तक चलें, जिसका पता चपला ने दिया है.”

यह कह कर तेज सिंह ने चपला को पुकार कर कहा, “देखो हम लोग उस खंडहर की तरफ जाते हैं. क्या जाने कितने दिन उस तिलिस्म को तोड़ने में लगे. तुम राजकुमारी को ढांढ़स देती रहना, किसी तरह की तकलीफ न होने पाए. क्या करें, कोई ऐसी तरकीब भी नज़र नहीं आती कि कपड़े या खाने-पीने की चीजें तुम तक पहुँचाई जाएं.”

चपला ने ऊपर से जवाब दिया, “कोई हर्ज़ नहीं, खाने-पीने की कुछ तकलीफ न होगी क्योंकि इस जगह बहुत से मेवों के पेड़ हैं, और पत्थरों में से छोटे-छोटे कई झरने पानी के जारी हैं. आप लोग बहुत होशियारी से काम कीजिएगा. इतना मुझे मालूम हो गया कि बिना कुमार के यह तिलिस्म नहीं टूटने का, मगर तुम लोग भी इनका साथ मत छोड़ना, बड़ी हिफ़ाजत रखना.”

महाराज शिवदत्त और उनकी रानी को उसी तहखाने में छोड़ कुँवर वीरेंद्र सिंह, तेज सिंह, देवी सिंह और ज्योतिषी जी चारों आदमी वहाँ से बाहर निकले. दोहरा ताला लगा दिया. इसके बाद सब हाल कहने के लिए कुमार ने देवी सिंह को नौगढ़ अपने माँ-बाप के पास भेज दिया और यह भी कह दिया कि “नौगढ़ से होकर कल ही तुम लौट के विजयगढ़ आ जाना, हम लोग वहाँ चलते हैं, तुम आओगे तब कहीं जाएँगे.”

यह सुन देवी सिंह नौगढ़ की तरफ रवाना हुए।

सवेरे ही से कुँवर वीरेंद्र सिंह विजयगढ़ से गायब थे, बिना किसी से कुछ कहे ही चले गए थे, इसलिए महाराज जय सिंह बहुत ही उदास हो कई जासूसों को चारों तरफ खोजने के लिए भेज चुके थे. शाम होते-होते ये लोग विजयगढ़ पहुँचे और महाराज से मिले. महाराज ने कहा, “कुमार तुम इस तरह बिना कहे-सुने जहाँ जी में आता है, चले जाते हो, हम लोगों को इससे तकलीफ होती है, ऐसा न किया करो.”

इसका जवाब कुमार ने कुछ न दिया मगर तेज सिंह ने कहा, “महाराज, ज़रूरत ही ऐसी थी कि कुमार को बड़े सवेरे यहाँ से जाना पड़ा. उस वक्त आप आराम में थे, इसलिए कुछ कह न सके.”

इसके बाद तेज सिंह ने कुल हाल, लड़ाई से चुनारगढ़ जाना, महाराज शिवदत्त की रानी को चुराना, खोह में कुमारी का पता लगाना, ज्योतिषी जी की मुलाकात, बुर्दाफरोशों की कैफियत, उस तहखाने में कुमारी और चपला को देख उनकी जुबानी तिलिस्म का हाल आदि सब-कुछ हाल पूरा-पूरा ब्यौरेवार कह सुनाया. आखिर में यह भी कहा कि अब हम लोग तिलिस्म तोड़ने जाते हैं.

इतना लंबा-चौड़ा हाल सुन कर महाराज हैरान हो गए. बोले, “तुम लोगों ने बड़ा ही काम किया, इसमें कोई शक नहीं. हद के बाहर काम किया, अब तिलिस्म तोड़ने की तैयारी है, मगर वह तिलिस्म दूसरे के राज्य में है. चाहे वहाँ का राजा तुम्हारे यहाँ कैद हो, तो भी पूरे सामान के साथ तुम लोगों को जाना चाहिए, मैं भी तुम लोगों के साथ चलूं, तो ठीक हो.”

तेज सिंह ने कहा, “आपको तकलीफ करने की कोई जरूरत नहीं है, थोड़ी फौज साथ जाएगी वही बहुत है.”

महाराज ने कहा, “ठीक है, मेरे जाने की कोई ज़रूरत नहीं, मगर इतना होगा कि चल कर उस तिलिस्म को मैं भी देख आऊंगा.”

तेज सिंह ने कहा – “जैसी मर्ज़ी.”

महाराज ने दीवान हरदयाल सिंह को हुक्म दिया, “हमारी आधी फौज और कुमार की कुल फौज रात-भर में तैयार हो जाए, कल यहाँ से चुनारगढ़ की तरफ कूच होगा.”

बमूजिब हुक्म के सब इंतज़ाम दीवान साहब ने कर दिया. दूसरे दिन नौगढ़ से लौट कर देवी सिंह भी आ गए. बड़ी तैयारी के साथ चुनारगढ़ की तरफ तिलिस्म तोड़ने के लिए कूच हुआ. दीवान हरदयाल सिंह विजयगढ़ में छोड़ दिए गए.

बयान – 22

चार दिन रास्ते में लगे, पाँचवे दिन चुनारगढ़ की सरहद में फौज पहुँची. महाराज शिवदत्त के दीवान ने यह खबर सुनी तो घबरा उठे, क्योंकि महाराज शिवदत्त तो कैद हो ही चुके थे, लड़ने की ताकत किसे थी. बहुत-सी नजर वगैरह ले कर महाराज जय सिंह से मिलने के लिए हाज़िर हुआ.

खबर पा कर महाराज ने कहला भेजा, “मिलने की कोई ज़रूरत नहीं, हम चुनारगढ़ फतह करने नहीं आए हैं, क्योंकि जिस दिन तुम्हारे महाराज हमारे हाथ फंसे, उसी रोज चुनारगढ़ फतह हो गया. हम दूसरे काम से आए हैं, तुम और कुछ मत सोचो.”

लाचार हो कर दीवान साहब को वापस जाना पड़ा, मगर यह मालूम हो गया कि फलाने काम के लिए आए हैं. आज तक इस तिलिस्म का हाल किसी को भी मालूम न था, बल्कि किसी ने उस खंडहर को देखा तक न था. आज यह मशहूर हो गया कि इस इलाके में कोई तिलिस्म है, जिसको कुँवर वीरेंद्र सिंह तोड़ेंगे. उस तिलिस्मी खंडहर का पता लगाने के लिए बहुत से जासूस इधर-उधर भेजे गए. तेज सिंह और ज्योतिषी जी भी गए. आखिर उसका पता लग ही गया. दूसरे दिन मय फौज के सभी का डेरा उसी जंगल में जा लगा, जहाँ वह तिलिस्मी खंडहर था.

बयान – 23

महाराज जय सिंह, कुँवर वीरेंद्र सिंह, तेज सिंह, देवी सिंह और ज्योतिषी जी खंडहर की सैर करने के लिए उसके अंदर गए. जाते ही यकीन हो गया कि बेशक यह तिलिस्म है. हर एक तरफ वे लोग घुसे और एक-एक चीज को अच्छी तरह देखते-भालते बीच वाले बगुले के पास पहुँचे. चपला की जुबानी यह तो सुन ही चुके थे कि यही बगुला कुमारी को निगल गया था, इसलिए तेज सिंह ने किसी को उसके पास जाने न दिया, खुद गए. चपला ने जिस तरह इस बगुले को आजमाया था, उसी तरह तेज सिंह ने भी आज़माया.

महाराज इस बगुले का तमाशा देख कर बहुत हैरान हुए. इसका मुँह खोलना, पर फैलाना और अपने पीछे वाली चीज को उठा कर निगल जाना, सभी ने देखा और अचंभे में आ कर बनाने वाले की तारीफ़ करने लगे.

इसके बाद उस तहखाने के पास आए, जिसमें चपला उतरी थी. किवाड़ के पल्ले को कमंद से बंधा देख तेज सिंह को मालूम हो गया कि यह चपला की कार्रवाई है और ज़रूर यह कमंद भी चपला की ही है, क्योंकि इसके एक सिरे पर उसका नाम खुदा हुआ है, मगर इस किवाड़ का बांधना बेफ़ायदे हुआ क्योंकि इसमें घुस कर चपला निकल न सकी.

कुएं को भी बखूबी देखते हुए उस चबूतरे के पास आए, जिस पर पत्थर का आदमी हाथ में किताब लिए सोया हुआ था. चपला की तरह तेज सिंह ने भी यहाँ धोखा खाया. चबूतरे के ऊपर चढ़ने वाली सीढ़ी पर पैर रखते ही उसके ऊपर का पत्थर आवाज दे कर पल्ले की तरह खुला और तेज सिंह धम्म से जमीन पर गिर पड़े.

इनके गिरने पर कुमार को हँसी आ गई, मगर देवी सिंह बड़े गुस्से में आए. कहने लगे, “सब शैतानी इसी आदमी की है, जो इस पर सोया है, ठहरो मैं इसकी खबर लेता हूँ.”

 यह कह कर उछल कर बड़े जोर-से एक धौल उसके सिर पर जमाई, धौल का लगना था कि वह पत्थर का आदमी उठ बैठा, मुँह खोल दिया, भाथी (चमड़े की धौंकनी) की तरह उसके मुँह से हवा निकलने लगी. मालूम होता था कि भूकंप आया है, सभी की तबीयत घबरा गई.

ज्योतिषी जी ने कहा, “जल्दी इस मकान से बाहर भागो ठहरने का मौका नहीं है.”

इस दालान से दूसरे दालान में होते हुए सब के सब भागे. भागने के वक्त जमीन हिलने के सबब से किसी का पैर सीधा नहीं पड़ता था. खंडहर के बाहर हो दूर से खड़े हो कर उसकी तरफ देखने लगे. पूरे मकान को हिलते देखा. दो घंटे तक यही कैफ़ियत रही और तब तक खंडहर की इमारत का हिलना बंद न हुआ.

तेज सिंह ने ज्योतिषी जी से कहा, “आप रमल और नज़ूम से पता लगाइए कि यह तिलिस्म किस तरह और किसके हाथ से टूटेगा?”

ज्योतिषी जी ने कहा, “आज दिन भर आप लोग सब्र कीजिए और जो कुछ सोचना हो सोचिए, रात को मैं सब हाल रमल से दरियाफ्त कर लूंगा. फिर कल जैसा मुनासिब होगा किया जाएगा. मगर यहाँ कई रोज लगेगे, महाराज का रहना ठीक नहीं है, बेहतर है कि वे विजयगढ़ जाएं.”

इस राय को सभी ने पसंद किया.

कुमार ने महाराज से कहा, “आप सिर्फ इस खंडहर को देखने आए थे, सो देख चुके. अब जाइए. आपका यहाँ रहना मुनासिब नहीं.”

महाराज विजयगढ़ जाने पर राजी न थे, मगर सभी के ज़िद करने से कबूल किया. कुमार की जितनी फौज थी, उसको और अपनी जितनी फौज साथ आई थी, उसमें से भी आधी फौज साथ ले विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए.

बयान – 24

रात-भर जगन्नाथ ज्योतिषी रमल फेंकने और विचार करने में लगे रहे. कुँवर वीरेंद्र सिंह, तेज सिंह और देवी सिंह भी रात-भर पास ही बैठे रहे.

सब बातों को देख-भाल कर ज्योतिषी जी ने कहा, “रमल से मालूम होता है कि इस तिलिस्म के तोड़ने की तरकीब एक पत्थर पर खुदी हुई है और वह पत्थर भी इसी खंडहर में किसी जगह पड़ा हुआ है. उसको तलाश करके निकालना चाहिए, तब सब पता चलेगा. स्नान-पूजा से छुट्टी पा कुछ खा-पी कर इस तिलिस्म में घूमना चाहिए, ज़रूर उस पत्थर का भी पता लगेगा.”

सब कामों से छुट्टी पा कर दोपहर को सब लोग खंडहर में घुसे. देखते-भालते उसी चबूतरे के पास पहुँचे, जिस पर पत्थर का वह आदमी सोया हुआ था, जिसे देवी सिंह ने धौल जमाई थी. उस आदमी को फिर उसी तरह सोता पाया.

ज्योतिषी जी ने तेज सिंह से कहा, “यह देखो ईंटों का ढेर लगा हुआ है, शायद इसे चपला ने इकट्ठा किया हो और इसके ऊपर चढ़ कर इस आदमी को देखा हो. तुम भी इस पर चढ़ के खूब गौर से देखो, तो सही किताब में जो इसके हाथ में है क्या लिखा है?”

तेज सिंह ने ऐसा ही किया और उस ईंट के ढेर पर चढ़ कर देखा. उस किताब में लिखा था –

8 पहल – 5 – अंक

6 हाथ – 3 – अंगुल

जमा पूंजी – 0 – जोड़, ठीक माप तोड़.

तेज सिंह ने ज्योतिषी जी को समझाया कि इस पत्थर की किताब में ऐसा लिखा है, मगर इसका मतलब क्या है, कुछ समझ में नहीं आता.

ज्योतिषी जी ने कहा, “मतलब भी मालूम हो जाएगा, तुम एक कागज पर इसकी नकल उतार लो.”

तेज सिंह ने अपने बटुए में से कागज-कलम-दवात निकाल उस पत्थर की किताब में जो लिखा था, उसकी नकल उतार ली.

ज्योतिषी जी ने कहा, “अब घूम कर देखना चाहिए कि इस मकान में कहीं आठ पहल का कोई खंबा या चबूतरा किसी जगह पर है या नहीं.”

 सब कोई उस खंडहर में घूम-घूम कर आठ पहल का खंबा या चबूतरा तलाश करने लगे. घूमते-घूमते उस दालान में पहुँचे, जहाँ तहखाना था. एक सिरा कमंद का तहखाने की किवाड़ के साथ और दूसरा सिरा जिस खंबे के साथ बंधा हुआ था, उसी खंबे को आठ पहल का पाया, उस खंबे के ऊपर कोई छत न थी.

ज्योतिषी जी ने कहा, “इसकी लंबाई हाथ से नापनी चाहिए.”

तेज सिंह ने नापा, 6 हाथ 7 अंगुल हुआ, देवी सिंह ने नापा 6 हाथ 5 अंगुल हुआ, बाद इसके ज्योतिषी जी ने नापा, 6 हाथ 10 अंगुल पाया, सब के बाद कुँवर वीरेंद्र सिंह ने नापा, 6 हाथ 3 अंगुल हुआ.

ज्योतिषी जी ने ख़ुश हो कर कहा, “बस यही खंबा है, इसी का पता इस किताब में लिखा है, इसी के नीचे ‘जमा पूंजी’ यानी वह पत्थर, जिसमें तिलिस्म तोड़ने की तरकीब लिखी हुई है गड़ा है. यह भी मालूम हो गया कि यह तिलिस्म कुमार के हाथ से ही टूटेगा, क्योंकि उस किताब में जिसकी नकल कर लाए हैं, उसका नाप 6 हाथ 3 अंगुल लिखा है, जो कुमार ही के हाथ से हुआ, इससे मालूम होता है कि यह तिलिस्म कुमार ही के हाथ से फतह भी होगा. अब इस कमंद को खोल डालना चाहिए, जो इस खंबे और किवाड़ के पल्ले में बंधी हुई है.”

तेज सिंह ने कमंद खोल कर अलग किया. ज्योतिषी जी ने तेज सिंह की तरफ देख के कहा, “सब बातें तो मिल गईं, आठ पहल भी हुआ और नाप से 6 हाथ 3 अंगुल भी है, यह देखिए, इस तरफ 5 का अंक भी दिखाई देता है, बाकी रह गया, ठीक नाप तोड़, सो कुमार के हाथ से इसका नाप भी ठीक हुआ, अब यही इसको तोड़े.”

कुँवर वीरेंद्र सिंह ने उसी जगह से एक बड़ा भारी पत्थर (चूने का ढोंका) ले लिया, जिसका मसाला सख्त और मजबूत था. इसी ढोंके को ऊँचा करके जोर से उस खंबे पर मारा, जिससे वह खंबा हिल उठा.  दो-तीन दफ़ा में बिल्कुल कमजोर हो गया, तब कुमार ने बगल में दबा कर जोर दिया और जमीन से निकाल डाला.

खंबा उखाड़ने पर उसके नीचे एक लोहे का संदूक निकला, जिसमें ताला लगा हुआ था. बड़ी मुश्किल से इसका भी ताला तोड़ा. भीतर एक और संदूक निकला, उसका भी ताला तोड़ा और एक संदूक निकला. इसी तरह दर्जे-ब-दर्जे सात संदूक उसमें से निकले. सातवें संदूक में एक पत्थर निकला, जिस पर कुछ लिखा हुआ था. कुमार ने उसे निकाल लिया और पढ़ा. यह लिखा हुआ था –

‘संभाल के काम करना, तिलिस्म तोड़ने में जल्दी मत करना, अगर तुम्हारा नाम वीरेंद्र सिंह है, तो यह दौलत तुम्हारे ही लिए है.’

बगुले के मुँह की तरफ जमीन पर जो पत्थर संगमरमर का जड़ा है, वह पत्थर नहीं मसाला जमाया हुआ है. उसको उखाड़ कर सिरके में खूब महीन पीस कर बगुले के सारे अंग पर लेप कर दो. वह भी मसाले ही का बना हुआ है, दो घंटे में बिल्कुल गल कर बह जाएगा. उसके नीचे जो कुछ तार-चर्खे पहिये पुर्जे हो, सब तोड़ डालो. नीचे एक कोठरी मिलेगी, जिसमें बगुले के बिगड़ जाने से बिल्कुल उजाला हो गया होगा. उस कोठरी से एक रास्ता नीचे उस कुएं में गया है, जो पूरब वाले दालान में है. वहाँ भी मसाले से बना एक बूढ़ा आदमी हाथ में किताब लिए दिखाई देगा. उसके हाथ से किताब ले लो, मगर एकाएक मत छीनो, नहीं तो धोखा खाओगे. पहले उसका दाहिना बाजू पकड़ो, वह मुँह खोल देगा. उसका मुँह काफूर से खूब भर दो, थोड़ी ही देर में वह भी गल के बह जाएगा. तब किताब ले लो. उसके सब पन्ने भोजपत्र के होंगे, जो कुछ उसमें लिखा हो, वैसा करो.

-विक्रम.”

कुमार ने पढ़ा, सभी ने सुना. घंटे भर तक तो सिवाय तिलिस्म बनाने वाले की तारीफ के किसी की जुबान से दूसरी बात न निकली. बाद इसके यह राय ठहरी कि अब दिन भी थोड़ा रह गया है, डेरे में चल कर आराम किया जाए, कल सवेरे ही कुल कामों से छुट्टी पा कर तिलिस्म की तरफ झुकें.

यह खबर चारों तरफ मशहूर हो गई कि चुनारगढ़ के इलाके में कोई तिलिस्म है, जिसमें कुमारी चंद्रकांता और चपला फंस गई हैं. उनको छुड़ाने और तिलिस्म तोड़ने के लिए कुँवर वीरेंद्र सिंह ने मय फौज के उस जगह डेरा डाला है.

तिलिस्म किसको कहते हैं? वह क्या चीज है? उसमें आदमी कैसे फंसता है? कुँवर वीरेंद्र सिंह उसे क्यों कर तोड़ेंगे? इत्यादि बातों को जानने और देखने के लिए दूर-दूर के बहुत से आदमी उस जगह इकट्ठे हुए, जहाँ कुमार का लश्कर उतरा हुआ था, मगर खौफ के मारे खंडहर के अंदर कोई पैर नहीं रखता था, बाहर से ही देखते थे.

कुमार के लश्कर वालों ने घूमते-फिरते कई नकाबपोश सवारों को भी देखा, जिनकी खबर उन लोगों ने कुमार तक पहुँचाई.

पंडित बद्रीनाथ, अहमद और नाज़िम को साथ ले कर महाराज शिवदत्त को छुड़ाने गए थे, तहखाने में शेर के मुँह से जुबान खींच, किवाड़ खोलना चाहा मगर न खुल सका, क्योंकि यहाँ तेज सिंह ने दोहरा ताला लगा दिया था. जब कोई काम न निकला, तब वहाँ से लौट कर विजयगढ़ गए. ऐयारी की फ़िक्र में थे कि यह खबर कुँवर वीरेंद्र सिंह की इन्होंने भी सुनी. लौट कर इसी जगह पहुँचे. पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल भी उसी ठिकाने जमा हुए और इन सभी की यह राय होने लगी कि किसी तरह तिलिस्म तोड़ने में बाधा डालनी चाहिए. इसी फ़िक्र में ये लोग भेष बदल कर इधर-उधर तथा लश्कर में घूमने लगे.

बयान – 25

दूसरे दिन स्नान-पूजा से छुट्टी पा कर कुँवर वीरेंद्र सिंह, तेज सिंह, देवी सिंह और ज्योतिषी जी फिर उस खंडहर में घुसे, सिरका साथ में लेते गए. कल जो पत्थर निकला था, उस पर जो कुछ लिखा था, फिर पढ़ के याद कर लिया और उसी लिखे के बमूजिब काम करने लगे. बाहर दरवाजे पर, बल्कि खंडहर के चारों तरफ पहरा बैठा हुआ था.

बगुले के पास गए, उसके सामने की तरफ जो सफेद पत्थर जमीन में गड़ा हुआ था, जिस पर पैर रखने से बगुला मुँह खोल देता था, उखाड़ लिया. नीचे एक और पत्थर कमानी पर जड़ा हुआ पाया. सफेद पत्थर को सिरके में खूब बारीक पीस कर बगुले के सारे बदन में लगा दिया. देखते-देखते वह पानी होकर बहने लगा, साथ ही इसके एक खूशबू-सी फैलने लगी. दो घंटे में बगुला गल गया. जिस खंबे पर बैठा था, वह भी बिल्कुल पिघल गया.  नीचे की कोठरी दिखाई देने लगी, जिसमें उतरने के लिए सीढ़ियाँ थीं और इधर-उधर बहुत से तार और कलपुर्जे वगैरह लगे हुए थे. सभी को तोड़ डाला और चारों आदमी नीचे उतरे, भीतर-ही-भीतर उस कुएं में जा पहुँचे, जहाँ हाथ में किताब लिए बूढ़ा आदमी बैठा था, सामने एक पत्थर की चौकी पर पत्थर ही के बने रंग-बिरंगे फूल रखे हुए देखे.

बाजू पकड़ते ही बूढ़े ने मुँह खोल दिया, तेज सिंह से काफूर ले कर कुमार ने उसके मुँह में भर दिया. घंटे-भर तक ये लोग उसी जगह बैठे रहे. तेज सिंह ने एक मशाल खूब मोटी पहले ही से जला ली थी. जब बूढ़ा गल गया, किताब जमीन पर गिर पड़ी, कुमार ने उठा लिया. उसकी जिल्द भी, जिस पर कुछ लिखा हुआ था, भोजपत्र ही की थी. कुमार ने पढ़ा, उस पर यह लिखा हुआ पाया –

‘इन फूलों को भी उठा लो, तुम्हारे ऐयारों के काम आएंगे. इनके गुण भी इसी किताब में लिखे हुए हैं, इस किताब को डेरे में ले जा कर पढ़ो, आज और कोई काम मत करो.’

तेज सिंह ने बड़ी ख़ुशी से उन फूलों को उठा लिया, जो गिनती में छः थे. उस कुएं में से कोठरी में आ कर ये लोग ऊपर निकले और धीरे-धीरे खंडहर के बाहर हो गए.

थोड़ा दिन बाकी था, जब कुँवर वीरेंद्र सिंह अपने डेरे में पहुँचे. यह राय ठहरी कि रात में इस किताब को पढ़ना चाहिए, मगर तेज सिंह को यह जल्दी थी कि किसी तरह फूलों के गुण मालूम हों.

कुमार से कहा, “इस वक्त इन फूलों के गुण पढ़ लीजिए, बाकी रात को पढ़िएगा.”

कुमार ने हँस कर कहा, “जब कुल तिलिस्म टूट लेगा, तब फूलों के गुण पढ़े जाएंगे.”

तेज सिंह ने बड़ी ख़ुशामद की, आखिर लाचार हो कर कुमार ने जिल्द खोली. उस वक्त सिवाय इन चारों आदमियों के उस खेमे में और कोई न था, सब बाहर कर दिए गए. कुमार पढ़ने लगे –

फुलों के गुण

  1. गुलाब का फूल – अगर पानी में घिस कर किसी को पिलाया जाए, तो उसे सात रोज तक किसी तरह की बेहोशी असर न करेगी.
  2. मोतिए का फूल – अगर पानी में थोड़ा-सा घिस कर किसी कुएं में डाल दिया जाए, तो चार पहर तक उस कुएं का पानी बेहोशी का काम देगा, जो पिएगा बेहोश हो जाएगा, इसकी बेहोशी आधा घंटे बाद चढ़ेगी.

दो ही फूलों के गुण पढ़े थे कि तीनों ऐयार मारे खुशी के उछल पड़े, कुमार ने किताब बंद कर दी और कहा, “बस अब न पढ़ेंगे.”

अब तेज सिंह हाथ जोड़ रहे हैं, कसमें देते जाते हैं कि किसी तरह परमेश्वर के वास्ते पढ़िए, आखिर यह सब आप ही के काम आएगा, हम लोग आप ही के तो ताबेदार हैं. थोड़ी देर तक दिल्लगी करके कुमार ने फिर पढ़ना शुरू किया –

  1. ओरहुर का फूल – पानी में घिस कर पीने से चार रोज तक भूख न लगे.
  2. कनेर का फूल – पानी में घिस कर पैर धो ले, तो थकावट या राह चलने की सुस्ती निकल जाए.
  3. गुलदाऊदी का फूल – पानी में घिस कर आँखों में अंजन करे, तो अंधेरे में दिखाई दे.
  4. केवड़े का फूल – तेल में घिस कर लगावे, तो सर्दी असर न करे, कत्थे के पानी में घिस कर किसी को पिलाए, तो सात रोज तक किसी किस्म का जोश उसके बदन में बाकी न रहे.

इन फूलों को बड़ी ख़ुशी से तेज सिंह ने अपने बटुए में डाल लिया, देवी सिंह और ज्योतिषी जी मांगते ही रहे, मगर देखने को भी न दिया.

बयान – 26

इन फूलों को पा कर तेज सिंह जितने ख़ुश हुए,  शायद अपनी उम्र में आज तक कभी ऐसे ख़ुश न हुए होंगे. एक तो पहले ही ऐयारी में बढ़े-चढ़े थे, आज इन फूलों ने इन्हें और बढ़ा दिया. अब कौन है, जो इनका मुकाबला करे?  हाँ, एक चीज की कसर रह गई, लोपांजन या कोई गुटका इस तिलिस्म में से इनको ऐसा न मिला, जिससे ये लोगों की नजरों से छिप जाते. और अच्छा ही हुआ जो न मिला, नहीं तो इनकी ऐयारी की तारीफ न होती, क्योंकि जिस आदमी के पास कोई ऐसी चीज हो, जिससे वह गायब हो जाए, तो फिर ऐयारी सीखने की जरूरत ही क्या रही? गायब हो कर जो चाहा, कर डाला.

आज की रात इन चारों को जागते ही बीती. तिलिस्म की तारीफ, फूलों के गुण, तिलिस्मी किताब के पढ़ने, सवेरे फिर तिलिस्म में जाने आदि की बातचीत में रात बीत गई. सवेरा हुआ, जल्दी-जल्दी स्नान-पूजा से चारों ने छुट्टी पा ली और कुछ भोजन करके तिलिस्म में जाने को तैयार हुए.

कुमार ने तेज सिंह से कहा, “हमारे पलंग पर से तिलिस्मी किताब उठा के तुम लेते चलो, वहाँ फिर एक दफ़ा पढ़ के तब कोई काम करेंगे.”

तेज सिंह तिलिस्मी किताब लेने गए, मगर किताब नजर न पड़ी, चारपाई के नीचे हर तरफ देखा, कहीं पता नहीं, आखिर कुमार से पूछा, “किताब कहाँ है? पलंग पर तो नहीं है?”

सुनते ही कुमार के होश उड़ गए, जी सन्न हो गया, दौड़े हुए पलंग के पास आए. खूब ढूंढा, मगर कहीं किताब हो, तब तो मिले.

कुमार ‘हाय’ करके पलंग के ऊपर गिर पड़े, बिल्कुल हौसला टूट गया, कुमारी चंद्रकांता के मिलने से नाउम्मीद हो गए, अब तिलिस्मी किताब कहाँ है, जिसमें तिलिस्म तोड़ने की तरकीब लिखी है.

तेज सिंह, देवी सिंह, और जगन्नाथ ज्योतिषी भी घबरा उठे. दो घड़ी तक किसी के मुँह से आवाज तक न निकली, बाद इसके तलाश होने लगी. लश्कर भर में खूब शोर मचा कि कुमार के डेरे से तिलिस्मी किताब गायब हो गई, पहरे वालों पर सख्ती होने लगी, चारों तरफ चोर की तलाश में लोग निकले.

तेज सिंह ने कुमार से कहा, “आप जी मत छोटा कीजिए, मैं वादा करता हूँ कि चोर जरूर पकडूंगा, आपके सुस्त हो जाने से सभी का जी टूट जाएगा, कोई काम करते न बन पड़ेगा.”

बहुत समझाने पर कुमार पलंग से उठे, उसी वक्त एक चोबदार ने आ कर अजीब खबर सुनाई. हाथ जोड़ कर अर्ज़ किया कि तिलिस्म के फाटक पर पहरे के लिए जो लोग मुस्तैद किए गए हैं, उनमें से एक पहरे वाला हाजिर हुआ है और कहता है कि तिलिस्म के अंदर कई आदमियों की आहट मिली है, किसी को अंदर जाने का हुक्म तो है नहीं, जो ठीक मालूम करें, अब जैसा हुक्म हो किया जाए.”

इस खबर को सुनते ही तेज सिंह पता लगाने के लिए तिलिस्म में जाने को तैयार हुए.

देवी सिंह से कहा, “तुम भी साथ चलो, देख आएं, क्या मामला है?”

ज्योतिषी जी बोले, “हम भी चलेंगे.”

कुमार भी उठ खड़े हुए. आखिर ये चारों तिलिस्म में चले. बाहर फतह सिंह सेनापति मिले, कुमार ने उनको भी साथ ले लिया. दरवाजे के अंदर जाते ही इन लोगों के कान में भी चिल्लाने की आवाज आई, आगे बढ़ने से मालूम हुआ कि इसमें कई आदमी हैं. आवाज की धुन पर ये लोग बराबर बढ़ते चले गए. उस दालान में पहुँचे, जिसमें चबूतरे के ऊपर हाथ में किताब लिए पत्थर का आदमी सोया था.

देखा कि पत्थर वाला आदमी उठ के बैठा हुआ पंडित बद्रीनाथ ऐयार को दोनों हाथों से दबाए है और वह चिल्ला रहे हैं. पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल छुड़ाने की तरकीब कर रहे हैं, मगर कोई काम नहीं निकलता.

तिलिस्मी किताब के खो जाने का इन लोगों को बड़ा भारी गम था, मगर इस वक्त पंडित बद्रीनाथ ऐयार की यह दशा देख सभी को हँसी आ गई, एकदम खिलखिला के हँस पड़े. उन ऐयारों ने पीछे फिर कर देखा, तो कुँवर वीरेंद्र सिंह मय तीनों ऐयारों के खड़े हैं, साथ में फतह सिंह सेनापति हैं.

तेज सिंह ने ललकार कर कहा, “वाह खूब, जैसी जिसकी करनी होती है, उसको वैसा ही फल मिलता है, इसमें कोई शक नहीं. बेचारे कुँवर वीरेंद्र सिंह को बेकसूर तुम लोगों ने सताया, इसी की सजा तुम लोगों को मिली. परमेश्वर भी बड़ा इंसाफ करने वाला है. क्यों पन्नालाल तुम लोग जान-बूझ कर क्यों फंसते हो? तुम लोगों को तो किसी ने पकड़ा नहीं है, फिर बद्रीनाथ के पीछे क्यों जान देते हो? इनको इसी तरह छोड़ दो, तुम लोग जाओ, हवा खाओ.”

पन्नालाल ने कहा, “भला इनको ऐसी हालत में छोड़ के हम लोग कहीं जा सकते हैं? अब तो आपके जो जी में आए सो कीजिए, हम लोग हाज़िर हैं.”

तेज सिंह ने पंडित बद्रीनाथ के पास जा कर कहा, “पंडित जी प्रणाम. क्यों, मिजाज़ कैसा है? क्या आप तिलिस्म तोड़ने को आए थे? अपने राजा को तो पहले छुड़ा लिए होते?  खैर, शायद तुमने यह सोचा कि हम ही तिलिस्म तोड़ कर कुल खजाना ले लें और खुद चुनारगढ़ के राजा बन जाएं.”

देवी सिंह ने भी आगे बढ़ के कहा, “बद्रीनाथ भाई, तिलिस्म तोड़ना तो उसमें से कुछ मुझे भी देना, अकेले मत उड़ा जाना.”

 ज्योतिषी जी ने कहा, “बद्रीनाथ जी, अब तो तुम्हारे ग्रह बिगड़े हैं. खैरियत तभी है कि वह तिलिस्मी किताब हमारे हवाले करो, जिसे आप लोगों ने रात को चुराया है.”

बद्रीनाथ सबकी सुनते मगर सिवाय जमीन देखने के जवाब किसी को नहीं देते थे. पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल पंडित बद्रीनाथ को छोड़ अलग हो गए और कुमार से बोले, “ईश्वर के वास्ते किसी तरह बद्रीनाथ की जान बचाइए.”

कुमार ने कहा, “भला हम क्या कर सकते हैं, कुल हाल तिलिस्म का मालूम नहीं, जो किताब तिलिस्म से मुझको मिली थी, जिसे पढ़ कर तिलिस्म तोड़ते, वह तुम लोगों ने गायब कर ली. अगर मेरे पास होती, तो उसमें देख कर कोई तरकीब इनके छुड़ाने की करता. हाँ, अगर तुम लोग वह किताब मुझे दे दो, तो जरूर बद्रीनाथ इस आफ़त से छूट सकते हैं.”

यह सुन कर पन्नालाल ने तिरछी निगाहों से बद्रीनाथ की तरफ देखा, उन्होंने भी कुछ इशारा किया.

पन्नालाल ने कुमार से कहा, “हम लोगों ने किताब नहीं चुराई है, नहीं तो ऐसी बेबसी की हालत में ज़रूर दे देते. या तो किसी तरह से पंडित बद्रीनाथ को छुड़ाइए या हम लोगों के वास्ते यह हुक्म दीजिए कि बाहर जा कर इनके लिए कुछ खाने का सामान ला कर खिलावें, बल्कि जब तक आपकी किताब न मिले, आप तिलिस्म न तोड़ लें और बद्रीनाथ उसी तरह बेबस रहें, तब तक हम लोगों में से किसी को खिलाने-पिलाने के लिए यहाँ आने-जाने का हुक्म हो.”

देवी सिंह ने कहा, “पन्नालाल, भला यह तो कहो कि अगर कई रोज तक बद्रीनाथ इसी तरह कैद रह गए, तो खाने-पीने का बंदोबस्त तो तुम कर लोगे, जा कर ले आओगे, लेकिन अगर इनको दिशा मालूम पड़ेगी, तो क्या उपाय करोगे? उसको कहाँ ले जा कर फेंकोगे? या इसी तरह इनके नीचे ढेर लगा रहेगा?”

इसका जवाब पन्नालाल ने कुछ न दिया.

तेज सिंह ने कहा, “सुनो जी, ऐयारों को ऐयार लोग खूब पहचानते हैं. अगर तुम्हारे आने-जाने के लिए कुमार हुक्म नहीं देते तो हम हुक्म देते हैं कि आया करो और जिस तरह बने बद्रीनाथ की हिफाजत करो. तुम लोगों ने हमारा बड़ा हर्ज़ किया, तिलिस्मी किताब चुरा ली और अब मुकरते हो. इस वक्त हमारे अख्तियार में सब कोई हो, जिसके साथ जो चाहे करूं, सीधी तरह से न दो, तो डंडों के जोर से किताब ले लूं. मगर नहीं, छोड़ देता हूँ और खूब होशियार कर देता हूँ, किताब संभाल के रखना, मैं बिना लिए न छोडूंगा और तुम लोगों को गिरफ्तार भी न करूंगा.”

तेज सिंह की बात सुन कर पंडित बद्रीनाथ लाल हो गए और बोले, “इस वक्त हमको बेबस देख के शेखी करते हो. यह हिम्मत तो तब जानें कि हमारे छूटने पर कह-बद के कोई ऐयारी करो और जीत जाओ. क्या तुम ही एक दुनिया में ऐयार हो? हम भी जोर दे कर कहते हैं कि हम ही ने तुम्हारी तिलिस्मी किताब चुराई है, मगर हम लोगों में से किसी को कैद किए या सताए बिना तुम नहीं पा सकते. यह शेखी तुम्हारी न चलेगी कि ऐयारों को गिरफ्तार भी न करो, बल्कि आने-जाने के लिए छुट्टी दे दो और किताब भी ले लो. ऐसा कर तो लो उसी दिन से हम लोग तुम्हारे गुलाम हो जाएं और महाराज शिवदत्त को छोड़ कर कुमार की ताबेदारी करें. मैं बता देता हूँ कि किताब भी न दूंगा और यहाँ से छूट के भी निकल जाऊंगा.”

तेज सिंह ने कहा, “मैं भी कसम खा कर कहता हूँ कि बिना तुम लोगों को कैद किए अगर किताब न ले लूं, तो फिर ऐयारी का नाम न लूं और सिर मुड़ा के दूसरे देश में निकल जाऊं. मुझको भी तुम लोगों से एक ही दफ़ा में फैसला कर लेना है.”

इस बात पर तेज सिंह और बद्रीनाथ दोनों ने कसमें खाईं. बेचारे कुँवर वीरेंद्र सिंह सभी का मुँह देखते थे, कुछ कहते बन नहीं पड़ता था. तेज सिंह ने देवी सिंह और ज्योतिषी जी को अलग ले जा कर कान में कुछ कहा और दोनों उसी वक्त तिलिस्म के बाहर हो गए.

फिर तेज सिंह बद्रीनाथ के पास आ कर बोले, “हम लोग जाते हैं, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल को जहाँ जी चाहे भेजो और अपने छुड़ाने की जो तरकीब सूझे करो. पहरे वालों को कह दिया जाता है, वे तुम्हारे साथियों को आते-जाते न रोकेंगे.”

कुमार को लिए हुए तेज सिंह अपने डेरे में पहुँचे. देखा तो ज्योतिषी जी बैठे हैं.

तेज सिंह ने पूछा, “क्यों ज्योतिषी जी देवी सिंह गए?”

ज्योतिषी – “हाँ, वह तो गए.”

तेज सिंह – “आपने अभी कुछ देखा कि नहीं?”

ज्योतिषी –  “हाँ पता लगा, पर आफ़त पर आफ़त नज़र आती है.”

तेज सिंह – “वह क्या?”

ज्योतिषी – ‘रमल से मालूम होता है कि उन लोगों के हाथ से भी किताब निकल गई और अभी तक कहीं रखी नहीं गई. देखें देवी सिंह क्या करके आते हैं, हम भी जाते तो अच्छा होता.”

तेज सिंह – “तो फिर आप राह क्यों देखते हैं? जाइए, हम भी अपनी धुन में लगते हैं.”

यह सुन ज्योतिषी जी तुरंत वहाँ से चले गए.

कुमार ने कहा, “भला कुछ हमें भी तो मालूम हो कि तुम लोगों ने क्या सोचा, क्या कर रहे हो और क्या समझ के तुमने उन लोगों को छोड़ दिया? मैं तो जरूर यही कहूंगा कि इस वक्त तुम्हीं ने शेखी में आ कर काम बिगाड़ दिया, नहीं तो वे लोग हमारे हाथ फंस चुके थे.”

तेज सिंह ने कहा, “मेरा मतलब आप अभी तक नहीं समझे, किताब तो मैं उनसे ले ही लूंगा. मगर जहाँ तक बने उन सभी को एक ही दफ़ा में अपना चेला भी करूं, नहीं तो यह रोज-रोज की ऐयारी से कहाँ तक होशियारी चलेगी? सिवाय जिद्द और बदाबदी के ऐयार कभी ताबेदारी कबूल नहीं करते, चाहे जान चली जाए, मालिक का संग कभी न छोड़ेंगे.”

कुमार ने कहा, “इससे तो हमको और आश्चर्य हुआ? ईश्वर न करे, कहीं तुम हार गए और बद्रीनाथ छूट के निकल गए तो क्या तुम हमारा भी संग छोड़ दोगे?”

तेज सिंह – “बेशक छोड़ दूंगा, फिर अपना मुँह न दिखाऊंगा.”

कुमार – “तो तुम आप भी गए और मुझे भी मारा, अच्छी दोस्ती अदा की. हाय अब क्या करूं? भला यह तो बताओ कि देवी सिंह और ज्योतिषी जी कहाँ गए?”

तेजसिंह – “अभी न बताऊंगा, पर आप डरिए मत. ईश्वर चाहेगा, तो सब काम ठीक होगा और मेरा आपका साथ भी न छूटेगा. आप बैठिए, मैं दो घंटे के लिए कहीं जाता हूँ.”

कुमार – “अच्छा जाओ.”

तेज सिंह वहाँ से चले गए, फतह सिंह को भी कुमार ने विदा किया, अब देखना चाहिए ये लोग क्या करते हैं और कौन जीतता है?

बयान – 27

तेज सिंह, देवी सिंह और ज्योतिषी जी के चले जाने पर कुमार बहुत देर तक सुस्त बैठे रहे. तरह-तरह के ख़याल पैदा होते रहे. जरा खटका हुआ और दरवाजे की तरफ देखने लगते कि शायद तेज सिंह या देवी सिंह आते हों. जब किसी को नहीं देखते, तो फिर हाथ पर गाल रख कर सोच-विचार में पड़ जाते. पहर भर दिन बाकी रह गया पर तीनों ऐयारों में से कोई भी लौट कर न आया, कुमार की तबीयत और भी घबराई, बैठा न गया, डेरे के बाहर निकले.

कुमार को डेरे के बाहर होते देख बहुत से मुलाज़िम सामने आ खड़े हुए. बगल ही में फतह सिंह सेनापति का डेरा था, सुनते ही कपड़े बदल हरबों को लगा कर वह भी बाहर निकल आए और कुमार के पास आ कर खड़े हो गए.

कुमार ने फतह सिंह से कहा, “चलो जरा घूम आएं,  मगर हमारे साथ और कोई न आए.”

यह कह आगे बढ़े.

फतह सिंह ने सभी को मना कर दिया, लाचार कोई साथ न हुआ. ये दोनों धीरे-धीरे टहलते हुए डेरे से बहुत दूर निकल गए, तब कुमार ने फतह सिंह का हाथ पकड़ लिया और कहा, “सुनो फतह सिंह तुम भी हमारे दोस्त हो, साथ ही पढ़े और बड़े हुए, तुमसे हमारी कोई बात छिपी नहीं रहती. तेज सिंह भी तुमको बहुत मानते हैं. आज हमारी तबीयत बहुत उदास हो गई, अब हमारा जीना मुश्किल समझो, क्योंकि आज तेज सिंह को न मालूम क्या सूझी कि बद्रीनाथ से जिद्द कर बैठे, हाथों में फंसे हुए चोर को छोड़ दिया, न जाने अब क्या होता है? किताब हाथ लगे या न लगे, तिलिस्म टूटे या न टूटे, चंद्रकांता मिले या तिलिस्म ही में तड़प-तड़प कर मर जाए.”

फतह सिंह ने कहा, “आप कुछ सोच न कीजिए. तेज सिंह ऐसे बेवकूफ नहीं हैं, उन्होंने जिद्द किया तो अच्छा ही किया. सब ऐयार एकदम से आपकी तरफ हो जाएंगे. आज का भी बिल्कुल हाल मुझको मालूम है, इंतज़ाम भी उन्होंने अच्छा किया है. मुझको भी एक काम सुपुर्द कर गए हैं. वह भी बहुत ठीक हो गया है, देखिए तो क्या होता है?”

बातचीत करते दोनों बहुत दूर निकल गए, यकायक इन लोगों की निगाह कई औरतों पर पड़ी जो इनसे बहुत दूर न थीं. इन्होंने आपस में बातचीत करना बंद कर दिया और पेड़ों की आड़ से औरतों को देखने लगे.

अंदाज से बीस औरतें होंगी, अपने-अपने घोड़ों की बाग थामे, धीरे-धीरे उसी तरफ आ रही थीं. एक औरत के हाथ में दो घोड़ों की बाग थी. यों तो सभी औरतें एक-से-एक खूबसूरत थीं, मगर सभी के आगे-आगे जो आ रही थी, बहुत ही ख़ूबसूरत और नाज़ुक थी. उम्र करीब पंद्रह वर्ष की होगी, पोशाक और जेवरों के देखने से यही मालूम होता था कि ज़रूर किसी राजा की लड़की है. सिर से पांव तक जवाहरात से लदी हुई, हर एक अंग उसके सुंदर और सुडौल, गुलाब-सा चेहरा दूर से दिखाई दे रहा था. साथ वाली औरतें भी एक-से-एक ख़ूबसूरत बेशकीमती पोशाक पहने हुई थीं.

कुँवर वीरेंद्र सिंह एकटक उसी औरत की तरफ देखने लगे, जो सभी के आगे थी. ऐसे आश्चर्य की हालत में भी कुमार के मुँह से निकल पड़ा, “वाह क्या सुडौल हाथ-पैर हैं. बहुत-सी बातें कुमारी चंद्रकांता की इसमें मिलती हैं, नज़ाकत और चाल भी उसी ढंग की है. हाथ में कोई किताब है, जिससे मालूम होता है कि पढ़ी-लिखी भी है.”

वे औरतें और पास आ गईं. अब कुमार को बखूबी देखने का मौका मिला. जिस जगह पेड़ों की आड़ में ये दोनों छिपे हुए थे ,किसी की निगाह नहीं पड़ सकती थी. वह औरत, जो सबों के आगे-आगे आ रही थी, जिसको हम राजकुमारी कह सकते हैं, चलते-चलते अटक गई. उस किताब को खोल कर देखने लगी, साथ ही इसके दोनों आँखों से आँसू गिरने लगे.

कुमार ने पहचाना कि यह वही तिलिस्मी किताब है, क्योंकि इसकी जिल्द पर एक तरफ मोटे-मोटे सुनहरे हरफों में ‘तिलिस्म’ लिखा हुआ है.

सोचने लगे – ‘इस किताब को तो ऐयार लोग चुरा ले गए थे. तेज सिंह इसकी खोज में गए हैं. इसके हाथ यह किताब क्यों कर लगी? यह कौन है और किताब देख कर रोती क्यों है?’

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