चढ़ा दिमाग सुभद्रा कुमारी चौहान की कहानी | Chadha Dimag Subhadra Kumari Chauhan

चढ़ा-दिमाग सुभद्रा कुमारी चौहान की कहानी (Chadha Dimag Subhadra Kumari Chauhan Ki Kahani Hindi Short Story)

Chadha Dimag Subhadra Kumari Chauhan

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Chadha Dimag Subhadra Kumari Chauhan

शीला स्वभावतः कवि थी। वह कभी-कभी कहानियां भी लिखा करती थी । उसकी रचनाएं अनेक पत्रों में छपी और उनकी खूब प्रशंसा हुई। साहित्य संसार ने उसे बहुत सम्मान दिया, और अंत में उसको सर्वश्रेष्ठ लेखिका होने के उपलक्ष्य में साहित्य-मंडल द्वारा सरस्वती-पारितोषिक दिया गया। अब क्या था, प्रत्येक समाचार-पत्र और मासिक पत्र में उसके सचित्र जीवन-चरित्र छपे और उसकी रचनाओं पर आलोचनात्मक लेख लिखे जाने लगे, जिनके कारण उसकी ख्याति और भी बढ़ गई । वह एक साधारण महिला से बहुत ऊपर पहुंच गई। उसको स्थान-स्थान से, कवि-समाजों से निमंत्रण आने लगे, वह अनेक साहित्यिक संस्थाओं की अध्यक्षा भी चुनी गई। मासिक-पत्र-पत्रिकाओं के कृपालु संपादकों ने उसकी रचनाओं के लिए तकाजे-पर-तकाजे आरंभ कर दिए। अनेक सहृदय पाठकों ने परिचय प्राप्त करने के लिए उसको पत्र लिखे। परिणाम यह हुआ कि शीला के पास आने वाली डाक का परिमाण बहुत बढ़ गया। उसका छोटा सा घर ऐसा मालूम होता, जैसे किसी समाचार-पत्र का आफिस हो । वह बेचारी इस असीम सहानुभूति के भार से दब-सी गई। पत्र-प्रेषक उससे उत्तर की आशा करते थे, और यह आशा स्वाभाविक भी थी। परन्तु वह उत्तर किस-किस को देती ? आखिर पत्र भेजने में भी तो खर्च लगता ही है, और वह तो निर्धन थी।

शीला के पति जेल में थे । सत्याग्रह-संग्राम प्रारंभ होते ही वह गिरफ्तार करके साल भर के लिए श्रीकृष्ण- मंदिर में बंद कर दिए गए थे, साथ ही २०० /- जुर्माना भी हुआ था ! इन सब कठिनाइयों को वह धैर्यपूर्वक सह रही थी। फिर भी वह बहुत परेशान-सी रहा करती थी।

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मैं शीला को बहुत दिनों से जानता था, जानता ही न था, वह सगी बहिन की तरह मुझ पर स्नेह करती थी और मैं अपनी ही बहिन की तरह उसका आदर करता था। इघर कुछ निजी झंझटों के कारण मैं बहुत दिनों से शीला के घर न जा सका था। एक दिन शाम को पोस्टमैन ने मुझे एक लिफ़ाफ़ा दिया। खोलकर देखा, तो पत्र मेरा नहीं, किन्तु शीला का था। ‘कल्पलता’ मासिक पत्रिका के संपादक महोदय ने बड़े आग्रह के साथ शीला को कोई रचना भेजने के लिए लिखा था। वह पत्रिका का कोई विशेषांक निकाल रहे थे। पत्र समाप्त करते-करते उन्होंने यह भी लिखा था कि उसकी रचना के बिना उनका विशेषांक अधूरा ही रह जायगा; उस जैसी विदुषियों के सहयोग से वह कल्पलता के विशेषांक को सफल बना सकेंगे।

पत्र को उलट-पलट कर देखा, मालूम होता था, संपादक महोदय ने भूल से लिफाफे पर मेरा पता लिख दिया था, क्योंकि मैं भी कभी-कभी ‘कल्पलता’ में अपनी तुकबन्दियां भेज दिया करता था।

जैसा कि मैंने पहले ही कहा है, मैं बहुत दिनों से शीला के घर न जा सका था और अब अकस्मात् ही यह पत्र उसे देने का प्रसंग आ गया, इसलिये दूसरे ही दिन प्रातः काल मैं उसके घर गया।

शीला का घर छोटा-सा था; और गृहस्थी भी थोड़ी- सी। घर में कोई पुरुष नहीं था, उसकी बूढ़ी सास थी और एक नन्हा-सा बच्चा था। ये शीला की ही संरक्षक्ता पर निर्भर थे। अपने पति की अनुपस्थिति में भी वह गृहस्थी को सुचारु रूप से चलाए जा रही थी। उसके इस असीम धैर्य और साहस की मैंने मन ही मन प्रशंसा की।

जब मैं वहां पहुंचा, वह आंगन में बैठी कुछ लिख रही थी। मैंने देखा, उसका छोटा सा बच्चा दौड़ता हुआ आया और किलकारी मार कर पीछे से उसकी पीठ पर चढ़ गया, साथ ही उसके लिखने में फुलस्टाप लग गया।

मैंने पूछा, “क्या लिख रही हो?”

“कल्पलता” के लिये एक कहानी लिख रही थी,” वह मुस्कुरा कर बोली, “पर जब यह लिखने दे तब न?” उसने वाक्य को पूरा किया।

मैंने पूछा-‘कितनी बाकी है !’

‘कहानी तो पूरी हो गई, पर इसके साथ उन्हें एक पत्र भी तो लिखना पड़ेगा’ शीला ने कहा।

मैंने उस कहानी को लेने के लिये हाथ बढ़ाया, पर वह मुझे बीच में ही रोक कर मुस्कुराती हुई बोली, “लो पहले इसे तो पढ़ लो, फिर कहानी पढ़ना ।” कहते हुए उसने एक लिफाफा मेरी ओर बढ़ा दिया। 

लिफ़ाफ़े पर पता शीला का और पत्र मेरा था। ‘कल्पलता’ के संपादक महोदय ने मुझसे भी शोला की कोई रचना भिजवाने के लिए आग्रह किया था, साथ ही उलाहना भी दिया था, कि उन्होंने शीला को कई पत्र लिखे, किन्तु उसने एक का भी उत्तर नहीं दिया, और अंत में बहुत क्षुब्ध होकर उन्होंने लिखा था, ‘इस चढ़े दिमाग का कुछ ठिकाना भी है!’

 मैंने पत्र समाप्त करके शीला की ओर देखा। वह मुस्कुरा रही थी, किन्तु उस मुस्कुराहट में ही उसकी आंतरिक वेदना छिपी थी। उसकी असमर्थता की सीमा निहित थी। कदाचित् उन्हें छिपाने के ही लिए प्रहरी की तरह मुस्कुराहट उसके ओठों पर खेल रही थी। कुछ क्षण तक चुप रहने के बाद मैंने पूछा, “क्या लिख दूं संपादकजी को?”

‘लिखोगे क्या? उन्हें यह कहानी भेज दो।” उसने उसी मुस्कुराहट के साथ उत्तर दिया।

‘पर उन्हें ऐसा न लिखना चाहिये था।’ मैंने सिर नीचा किये हुए ही कहा।

“उन्होंने कुछ अनुचित तो लिखा नहीं।’ उसने गंभीर होकर कहा, “कई पत्रों का लगातार उत्तर न पाने पर लोगों की यह धारणा हो जाना अस्वाभाविक नहीं है। उनकी जगह पर क्षण भर के लिये मुझे या स्वयं अपने को समझ लो, फिर सोचो लगातार तीन-चार चिट्ठियां भेजने पर भी यदि कोई तुम्हें उत्तर न दे, तो फिर उसके बारे में क्या सोचोगे? यही न कि बड़ा घमंडी है। चिट्ठियों का उत्तर नहीं देता।’

मैं निरुत्तर हो गया। दोनों चिट्ठियां मेरे हाथ में थीं। दोनों की तारीखें एक थीं। मैं समझ गया कि जल्दी जल्दी में संपादक महोदय ने मेरा पत्र शीला के लिफ़ाफ़े में और उसका मेरे लिफाफे में रख दिया। मुझे कुछ हंसी आ गई । मैंने शीला का पत्र उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘लो यह पत्र तुम्हारा है, मेरे पास उसी तरह चला आया, जिस तरह मेरा पत्र तुम्हारे पास आ गया है !’

वह पत्र पढ़ने लगी। मैंने उसकी कहानी उठा ली ।

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इसी समय बाहर कुछ कोलाहल सुन पड़ा। मैंने बाहर जाकर देखा तहसील के दो चपरासी ऊँचे ऊँचे लट्ठ लिये खड़े थे। पूछने पर मालूम हुआ कि शीला के पति पर जो २००/- का जुर्माना हुआ था, उसे वसूल करने के लिए कुर्की आई है। मैंने उन्हें समझ-बुझा कर घर बिना कुर्क किये ही वापिस भेजने का प्रयत्न किया, पर वे भला क्यों मानने लगे। कदाचित् नगद नारायण से उनकी पूजा होती, तो देवता कुछ ठंडे पड़ जाते; पर वहां न तो शीला के ही पास कुछ था, और न मेरे आखिर कुर्की शुरू हुई ।

वे लोग घर के अंदर से सामान ला-लाकर बाहर रखने लगे, बक्स, मेज, कुर्सियां, आलमारी, तस्वीरें, बर्तन इत्यादि। तात्पर्य यह कि जो कुछ भी सामान था, एक-एक करके सब बाहर आ गया और सब चीजों की एक दुकान सी लग गई । शीला शांतिपूर्वक यह सब देख रही थी, किन्तु उस शांति के नीचे प्रचंड विषाद छिपा था। मुझसे उसके चेहरे की ओर नहीं देखा जाता था। मैं अपने भाईपन को मन-ही-मन धिक्कार रहा था। मेरे सामने ही मेरी बहिन की लुटिया-थाली नीलाम होने जा रही थी, किन्तु मैं कुछ कर न सकता था। खैर, उन सब वस्तुओं की एक सूची तैयार करके चपरासी सामान ठेले पर लाद कर ले जाने लगे। सामान में बच्चों की एक ट्राइसिकल भी थी। शीला का बच्चा ब्रजेश ‘अमाली तायकिल’ कहके मचल पड़ा। शीला कुछ भी न कह सकी, बच्चे को जबरन गोद में उठा कर वह दूसरी ओर चली गई।

सामान चला गया। मैंने अंदर जाकर देखा, वह बैठी बच्चे को कुछ खिला रही थी। उसने मेरी ओर देखा, उसकी आँखे सजल थीं। मैंने सांत्वना के स्वर में कहा, ‘बहिन, देशभक्तों की यही तो अग्नि परीक्षा है। थोड़ी देर बाद उसकी कहानी लेकर मैं घर लौटा।

घर आकर मैंने वह कहानी पढ़ी और उसी प्रकार ‘कल्पलता’ के संपादक के पास भेज दी।

कहानी का शीर्षक था, “चढ़ा दिमाग” 

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