चैप्टर 20 : मेरी ज़ात ज़र्रा-ए-बेनिशान नॉवेल | Chapter 20 Meri Zaat Zarra-e-Benishan Urdu Novel In Hindi Translation

Chapter 20 Meri Zaat Zarra-e-Benishan Novel Chapter 1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 Prev | Next | All Chapters आदिल … Read more

चैप्टर 6 वापसी : गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 6 Vaapsi Novel By Gulshan Nanda Online Reading

Chapter 6 Vaapsi Novel By Gulshan Nanda Chapter 1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 Prev | Next | All Chapters रात के तीन बज रहे थे। सर्वत्र सन्नाटा छाया हुआ था। केवल रणजीत अपनी कोठरी में लेटा जाग … Read more

चैप्टर 23 : गबन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद | Chapter 23 Gaban Novel By Munshi Premchand

Chapter 23 Gaban Novel By Munshi Premchand Chapter 1 | 2 | 3 | 4| 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | … Read more

चैप्टर 19 : मेरी ज़ात ज़र्रा-ए-बेनिशान नॉवेल | Chapter 19 Meri Zaat Zarra-e-Benishan Urdu Novel In Hindi Translation

Chapter 19 Meri Zaat Zarra-e-Benishan Novel Chapter 1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 Prev | Next | All Chapters “अंकल! … Read more

चैप्टर 22 : गबन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद | Chapter 22 Gaban Novel By Munshi Premchand

Chapter 22 Gaban Novel ByMunshi Premchand Chapter 1 | 2 | 3 | 4| 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | … Read more

चैप्टर 10 अदल बदल : आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 10 Adal Badal Novel By Acharya Chatursen Shastri

Chapter 10 Adal Badal Novel By Acharya Chatursen Shastri Chapter 1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 Prev | Next | ALL Chapters क्लब में बड़ी गर्मागर्म बहस चल रही थी। यद्यपि अभी इने-गिने ही सदस्य उपस्थित थे। … Read more

चैप्टर 18 : मेरी ज़ात ज़र्रा-ए-बेनिशान नॉवेल | Chapter 18 Meri Zaat Zarra-e-Benishan Urdu Novel In Hindi Translation

Chapter 18 Meri Zaat Zarra-e-Benishan Novel Chapter 1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 Prev | Next | All Chapters सबा … Read more

चैप्टर 21 : गबन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद | Chapter 21 Gaban Novel By Munshi Premchand

Chapter 21 Gaban Novel By Munshi Premchand

Chapter 21 Gaban Novel By Munshi Premchand

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जब रमा कोठे से धम-धम नीचे उतर रहा था, उस वक्त ज़ालपा को इसकी ज़रा भी शंका न हुई कि वह घर से भागा जा रहा है। पत्र तो उसने पढ़ ही लिया था। जी ऐसा झुंझला रहा था कि चलकर रमा को ख़ूब खरी-खरी सुनाऊं। मुझसे यह छल-कपट! पर एक ही क्षण में उसके भाव बदल गए। कहीं ऐसा तो नहीं हुआ है, सरकारी रूपये ख़र्च कर डाले हों। यही बात है, रतन के रूपये सराफ़ को दिये होंगे। उस दिन रतन को देने के लिए शायद वे सरकारी रूपये उठा लाये थे। यह सोचकर उसे फिर क्रोध आया, यह मुझसे इतना परदा क्यों करते हैं? क्यों मुझसे बढ़-बढ़कर बातें करते थे? क्या मैं इतना भी नहीं जानती कि संसार में अमीर-ग़रीब दोनों ही होते हैं? क्या सभी स्त्रियाँ गहनों से लदी रहती हैं? गहने न पहनना क्या कोई पाप है? जब और ज़रूरी कामों से रूपये बचते हैं, तो गहने भी बन जाते हैं। पेट और तन काटकर, चोरी या बेईमानी करके तो गहने नहीं पहने जाते! क्या उन्होंने मुझे ऐसी गई-गुजरी समझ लिया! उसने सोचा, रमा अपने कमरे में होगा, चलकर पूछूं, कौन से गहने चाहते हैं। परिस्थिति की भयंकरता का अनुमान करके क्रोध की जगह उसके मन में भय का संचार हुआ। वह बड़ी तेज़ी से नीचे उतरी, उसे विश्वास था, वह नीचे बैठे हुए इंतज़ार कर रहे होंगे। कमरे में आई तो उनका पता न था। साइकिल रखी हुई थी, तुरंत दरवाज़े से झांका। सड़क पर भी नहीं। कहाँ चले गए? लड़के दोनों पढ़ने स्कूल गए थे, किसको भेजे कि जाकर उन्हें बुला लाये। उसके ह्रदय में एक अज्ञात संशय अंद्दरित हुआ। फौरन ऊपर गई, गले का हार और हाथ का कंगन उतारकर रूमाल में बांधा, फिर नीचे उतरी, सड़क पर आकर एक तांगा लिया, और कोचवान से बोली, ‘चुंगी कचहरी चलो।‘ वह पछता रही थी कि मैं इतनी देर बैठी क्यों रही। क्यों न गहने उतारकर तुरंत दे दिये। रास्ते में वह दोनों तरफ बड़े ध्यान से देखती जाती थी। क्या इतनी जल्द इतनी दूर निकल आये? शायद देर हो जाने के कारण वह भी आज तांगे ही पर गए हैं, नहीं तो अब तक ज़रूर मिल गए होते। तांगे वाले से बोली, ‘क्यों जी, अभी तुमने किसी बाबूजी को तांगे पर जाते देखा?’

तांगे वाले ने कहा, ‘हाँ माईजी, एक बाबू अभी इधर ही से गये हैं।’

जालपा को कुछ ढाढ़स हुआ, रमा के पहुँचते-पहुँचते वह भी पहुँच जायेगी। कोचवान से बार-बार घोड़ा तेज़ करने को कहती। जब वह दफ्तर पहुँची, तो ग्यारह बज गए थे। कचहरी में सैकड़ों आदमी इधर-उधर दौड़ रहे थे। किससे पूछे? न जाने वह कहाँ बैठते हैं। सहसा एक चपरासी दिखलाई दिया। जालपा ने उसे बुलाकर कहा, ‘सुनो जी, ज़रा बाबू रमानाथ को तो बुला लाओ।‘

परासी बोला, ‘उन्हीं को बुलाने तो जा रहा हूँ। बड़े बाबू ने भेजा है। आप क्या उनके घर ही से आई हैं?’

जालपा – ‘ हाँ, मैं तो घर ही से आ रही हूँ। अभी दस मिनट हुए, वह घर से चले हैं।’

चपरासी – ‘यहाँ तो नहीं आये।’

जालपा बड़े असमंजस में पड़ी। वह यहाँ भी नहीं आये, रास्ते में भी नहीं मिले, तो फिर गए कहाँ? उसका दिल बांसों उछलने लगा। आँखें भर-भर आने लगीं। वहाँ बड़े बाबू के सिवा वह और किसी को न जानती थी। उनसे बोलने का अवसर कभी न पड़ा था, पर इस समय उसका संकोच ग़ायब हो गया। भय के सामने मन के और सभी भाव दब जाते हैं। चपरासी से बोली, ‘ज़रा बड़े बाबू से कह दो – ‘नहीं चलो, मैं ही चलती हूँ। बड़े बाबू से कुछ बातें करनी हैं।‘

जालपा का ठाठ-बाट और रंग-ढंग देखकर चपरासी रोब में आ गया, उल्टे पांव बड़े बाबू के कमरे की ओर चला। जालपा उसके पीछे-पीछे हो ली। बड़े बाबू खबर पाते ही तुरंत बाहर निकल आये।

जालपा ने कदम आगे बढ़ाकर कहा,  ‘क्षमा कीजिए, बाबू साहब, आपको कष्ट हुआ। वह पंद्रह-बीस मिनट हुए घर से चले, क्या अभी तक यहाँ नहीं आये?’

रमेश – ‘अच्छा आप मिसेज रमानाथ हैं। अभी तो यहाँ नहीं आये। मगर दफ्तर के वक्त सैर-सपाटे करने की तो उसकी आदत न थी।’

जालपा ने चपरासी की ओर ताकते हुए कहा, ‘मैं आपसे कुछ अर्ज़ करना चाहती हूँ।’

रमेश- ‘तो चलो अंदर बैठो, यहाँ कब तक खड़ी रहोगी। मुझे आश्चर्य है कि वह गए कहाँ! कहीं बैठे शतरंज खेल रहे होंगे।’

जालपा – ‘नहीं बाबूजी, मुझे ऐसा भय हो रहा है कि वह कहीं और न चले गए हों। अभी दस मिनट हुए, उन्होंने मेरे नाम एक पुरज़ा लिखा था। (जेब से टटोल कर) जी हाँ, देखिए वह पुरज़ा मौजूद है। आप उन पर कृपा रखते हैं, तो कोई परदा नहीं। उनके जिम्मे कुछ सरकारी रूपये तो नहीं निकलते!’

रमेश ने चकित होकर कहा, ‘क्यों? उन्होंने तुमसे कुछ नहीं कहा?’

जालपा – ‘कुछ नहीं! इस विषय में कभी एक शब्द भी नहीं कहा!’

रमेश – ‘कुछ समझ में नहीं आता। आज उन्हें तीन सौ रूपये जमा करना है। परसों की आमदनी उन्होंने जमा नहीं की थी? नोट थे, जेब में डालकर चल दिये। बाज़ार में किसी ने नोट निकाल लिये। (मुस्कराकर) किसी और देवी की पूजा तो नहीं करते?’

जालपा का मुख लज्जा से नत हो गया। बोली, ‘अगर यह ऐब होता, तो आप भी उस इल्ज़ाम से न बचते। जेब से किसी ने निकाल लिए होंगे। मारे शर्म के मुझसे कहा न होगा। मुझसे ज़रा भी कहा होता, तो तुरंत रूपये निकालकर दे देती, इसमें बात ही क्या थी।’
रमेश बाबू ने अविश्वास के भाव से पूछा, ‘क्या घर में रूपये हैं?’

जालपा ने निशंक होकर कहा, ‘तीन सौ चाहिए न, मैं अभी लिये आती हूँ।’

रमेश – ‘अगर वह घर पर आ गए हों, तो भेज देना।’

जालपा आकर तांगे पर बैठी और कोचवान से चौक चलने को कहा। उसने अपना हार बेच डालने का निश्चय कर लिया। यों उसकी कई सहेलियाँ थीं, जिनसे उसे रूपये मिल सकते थे। स्त्रियों में बड़ा स्नेह होता है। पुरूषों की भांति उनकी मित्रता केवल पान-गुटके तक ही समाप्त नहीं हो जाती, मगर अवसर नहीं था। सर्राफे में पहुँचकर वह सोचने लगी, किस दुकान पर जाऊं। भय हो रहा था, कहीं ठगी न जाऊं। इस सिरे से उस सिरे तक चक्कर लगा आई, किसी दुकान पर जाने की हिम्मत न पड़ी। उधर वक्त भी निकला जाता था। आख़िर एक दुकान पर एक बूढ़े सर्राफ को देखकर उसका संकोच कुछ कम हुआ। सर्राफ बड़ा घाघ था, जालपा की झिझक और हिचक देखकर समझ गया, अच्छा शिकार फंसा। जालपा ने हार दिखाकर कहा, ‘आप इसे ले सकते हैं?’

सर्राफ ने हार को इधर-उधर देखकर कहा, ‘मुझे चार पैसे की गुंजाइश होगी, तो क्यों न ले लूंगा। माल चोखा नहीं है।’

जालपा – ‘तुम्हें लेना है, इसलिए माल चोखा नहीं है, बेचना होता, तो चोखा होता। कितने में लोगे?’

सर्राफ – ‘आप ही कह दीजिए।’

सर्राफ ने साढ़े तीन सौ दाम लगाए, और बढ़ते-बढ़ते चार सौ तक पहुँचा। जालपा को देर हो रही थी, रूपये लिये और चल खड़ी हुई। जिस हार को उसने इतने चाव से ख़रीदा था, जिसकी लालसा उसे बाल्यकाल ही में उत्पन्न हो गई थी, उसे आज आधे दामों बेचकर उसे ज़रा भी दुःख नहीं हुआ, बल्कि गर्वमय हर्ष का अनुभव हो रहा था। जिस वक्त रमा को मालूम होगा कि उसने रूपये दे दिये हैं, उन्हें कितना आनंद होगा। कहीं दफ्तर पहुँच गए हों, तो बड़ा मज़ा हो।”

यह सोचती हुई वह फिर दफ्तर पहुँची। रमेश बाबू उसे देखते हुए बोले, ‘क्या हुआ, घर पर मिले?’

जालपा-‘क्या अभी तक यहाँ नहीं आये? घर तो नहीं गये। यह कहते हुए उसने नोटों का पुलिंदा रमेश बाबू की तरफ बढ़ा दिया।

रमेश बाबू नोटों को गिनकर बोले, ‘ठीक है, मगर वह अब तक कहाँ हैं। अगर न आना था, तो एक ख़त लिख देते। मैं तो बड़े संकट में पडा हुआ था। तुम बड़े वक्त से आ गई। इस वक्त तुम्हारी सूझ-बूझ देखकर जी ख़ुश हो गया। यही सच्ची देवियों का धर्म है।’

जालपा फिर तांगे पर बैठकर घर चली, तो उसे मालूम हो रहा था, मैं कुछ ऊँची हो गई हूँ। शरीर में एक विचित्र स्फूर्ति दौड़ रही थी। उसे विश्वास था, वह आकर चिंतित बैठे होंगे। वह जाकर पहले उन्हें खूब आड़े हाथों लेगी, और खूब लज्जित करने के बाद यह हाल कहेगी, लेकिन जब घर में पहुँची, तो रमानाथ का कहीं पता न था।

जागेश्वरी ने पूछा, ‘कहाँ चली गई थीं इस धूप में?’

जालपा – ‘एक काम से चली गई थी। आज उन्होंने भोजन नहीं किया, न जाने कहाँ चले गये।’

जागेश्वरी – ‘दफ्तर गए होंगे।’

जालपा – ‘नहीं, दफ्तर नहीं गये। वहाँ से एक चपरासी पूछने आया था।’

यह कहती हुई वह ऊपर चली गई, बचे हुए रूपये संदूक में रखे और पंखा झलने लगी। मारे गरमी के देह फुंकी जा रही थी, लेकिन कान द्वार की ओर लगे थे। अभी तक उसे इसकी ज़रा भी शंका न थी कि रमा ने विदेश की राह ली है।

चार बजे तक तो जालपा को विशेष चिंता न हुई, लेकिन ज्यों-ज्यों दिन ढलने लगा, उसकी चिंता बढ़ने लगी। आख़िर वह सबसे ऊंची छत पर चढ़ गई, हालांकि उसके जीर्ण होने के कारण कोई ऊपर नहीं आता था, और वहाँ चारों तरफ नज़र दौड़ाई, लेकिन रमा किसी तरफ से आता दिखाई न दिया। जब संध्या हो गई और रमा घर न आया, तो जालपा का जी घबराने लगा। कहाँ चले गए? वह दफ्तर से घर आए बिना कहीं बाहर न जाते थे। अगर किसी मित्र के घर होते, तो क्या अब तक न लौटते? मालूम नहीं, जेब में कुछ है भी या नहीं। बेचारे दिनभर से न मालूम कहाँ भटक रहे होंगे। वह फिर पछताने लगी कि उनका पत्र पढ़ते ही उसने क्यों न हार निकालकर दे दिया। क्यों दुविधा में पड़ गई। बेचारे शर्म के मारे घर न आते होंगे। कहाँ जाये? किससे पूछे?

चिराग़ जल गए, तो उससे न रहा गया। सोचा, शायद रतन से कुछ पता चले। उसके बंगले पर गई तो मालूम हुआ, आज तो वह इधर आए ही नहीं। जालपा ने उन सभी पार्को और मैदानों को छान डाला, जहाँ रमा के साथ वह बहुधा घूमने आया करती थी, और नौ बजते-बजते निराश लौट आई। अब तक उसने अपने आँसुओं को रोका था, लेकिन घर में कदम रखते ही जब उसे मालूम हो गया कि अब तक वह नहीं आए, तो वह हताश होकर बैठ गई। उसकी यह शंका अब दृढ़ हो गई कि वह ज़रूर कहीं चले गए। फिर भी कुछ आशा थी कि शायद मेरे पीछे आये हों और फिर चले गए हों। जाकर जागेश्वरी से पूछा, ‘वह घर आए थे, अम्मांजी?’

जागेश्वरी – ‘यार-दोस्तों में बैठे कहीं गपशप कर रहे होंगे। घर तो सराय है। दस बजे घर से निकले थे, अभी तक पता नहीं।’

जालपा – ‘दफ्तर से घर आकर तब वह कहीं जाते थे। आज तो आए नहीं। कहिए तो गोपी बाबू को भेज दूं। जाकर देखें, कहाँ रह गये।’

जागेश्वरी – ‘लड़के इस वक्त कहाँ देखने जायेंगे। उनका क्या ठीक है। थोड़ी देर और देख लो, फिर खाना उठाकर रख देना। कोई कहाँ तक इंतज़ार करे।’

जालपा ने इसका कुछ जवाब न दिया। दफ्तर की कोई बात उनसे न कही। जागेश्वरी सुनकर घबड़ा जाती, और उसी वक्त रोना-पीटना मच जाता। वह ऊपर जाकर लेट गई और अपने भाग्य पर रोने लगी। रह-रहकर चित्त ऐसा विकल होने लगा, मानो कलेजे में शूल उठ रहा हो बार-बार सोचती, अगर रातभर न आये, तो कल क्या करना होगा? जब तक कुछ पता न चले कि वह किधर गए, तब तक कोई जाये, तो कहाँ जाये! आज उसके मन ने पहली बार स्वीकार किया कि यह सब उसी की करनी का फल है। यह सच है कि उसने कभी आभूषणों के लिए आग्रह नहीं किया, लेकिन उसने कभी स्पष्ट रूप से मना भी तो नहीं किया। अगर गहने चोरी जाने के बाद इतनी अधीर न हो गई होती, तो आज यह दिन क्यों आता। मन की इस दुर्बल अवस्था में जालपा अपने भार से अधिक भाग अपने ऊपर लेने लगी। वह जानती थी, रमा रिश्वत लेता है, नोच-खसोटकर रूपये लाता है। फिर भी कभी उसने मना नहीं किया। उसने ख़ुद क्यों अपनी कमली के बाहर पांव फैलाया? क्यों उसे रोज़ सैर-सपाटे की सूझती थी? उपहारों को ले-लेकर वह क्यों फूली न समाती थी? इस जिम्मेदारी को भी इस वक्त ज़ालपा अपने ही ऊपर ले रही थी। रमानाथ ने प्रेम के वश होकर उसे प्रसन्न करने के लिए ही तो सब कुछ करते थे। युवकों का यही स्वभाव है। फिर उसने उनकी रक्षा के लिए क्या किया? क्यों उसे यह समझ न आई कि आमदनी से ज्यादा ख़र्च करने का दंड एक दिन भोगना पड़ेगा। अब उसे ऐसी कितनी ही बातें याद आ रही थीं, जिनसे उसे रमा के मन की विकलता का परिचय पा जाना चाहिए था, पर उसने कभी उन बातों की ओर ध्यान न दिया।

जालपा इन्हीं चिंताओं में डूबी हुई न जाने कब तक बैठी रही। जब चौकीदारों की सीटियों की आवाज़ उसके कानों में आई, तो वह नीचे जाकर जागेश्वरी से बोली, ‘वह तो अब तक नहीं आये। आप चलकर भोजन कर लीजिये।’

जागेश्वरी बैठे-बैठे झपकियाँ ले रही थी। चौंककर बोली, ‘कहाँ चले गए थे? ‘

जालपा – ‘वह तो अब तक नहीं आये।’

जागेश्वरी – ‘अब तक नहीं आये? आधी रात तो हो गई होगी। जाते वक्त तुमसे कुछ कहा भी नहीं?’
जालपा – ‘कुछ नहीं।’

जागेश्वरी – ‘तुमने तो कुछ नहीं कहा?’

जालपा – ‘मैं भला क्यों कहती।’

जागेश्वरी- ‘तो मैं लालाजी को जगाऊं?’

जालपा – ‘इस वक्त ज़गाकर क्या कीजयेगा? आप चलकर कुछ खा लीजिए न।’

जागेश्वरी – ‘मुझसे अब कुछ न खाया जायेगा। ऐसा मनमौजी लड़का है कि कुछ कहा न सुना, न जाने कहाँ जाकर बैठ रहा। कम-से-कम कहला तो देता कि मैं इस वक्त न आऊंगा।’

जागेश्वरी फिर लेट रही, मगर जालपा उसी तरह बैठी रही। यहाँ तक कि सारी रात गुज़र गई, पहाड़-सी रात जिसका एक-एक पल एक-एक वर्ष के समान कट रहा था।

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