चैप्टर 33 : गबन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद | Chapter 33 Gaban Novel By Munshi Premchand

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चैप्टर 23 : मेरी ज़ात ज़र्रा-ए-बेनिशान नॉवेल | Chapter 23 Meri Zaat Zarra-e-Benishan Urdu Novel In Hindi Translation

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चैप्टर 11 नकली नाक : इब्ने सफ़ी का उपन्यास हिंदी में | Chapter 11 Nakli Naak Ibne Safi Novel In Hindi

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चैप्टर 32 : गबन उपन्यास मुंशी प्रेमचंद | Chapter 32 Gaban Novel By Munshi Premchand

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चैप्टर 1 सूरज का सातवां घोड़ा : धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 1 Suraj Ka Satvan Ghoda Novel By Dharmveer Bharti Read Online

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चैप्टर 6 काली घटा : गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 6 Kali Ghata Novel By Gulshan Nanda Online Reading

Chapter 6 Kali Ghata Novel By Gulshan Nanda

Chapter 6 Kali Ghata Novel By Gulshan Nanda

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जब दोनों ड्योढ़ी पारकर के आंगन में पहुंचे, तो शाम अपने पंख फैला चुकी थी। दोनों चुप थे और अभी ही उन्हें सुध आई थी कि वह दिन भर बाहर रहे हैं। डर रहे थे कि वासुदेव क्या सोचेगा?

आहट सुनकर गंगा ने बाहर आकर पिकनिक का सामान पकड़ लिया। माधुरी ने धीरे से डरते-डरते पूछा, “वह आ गए क्या?”

“नहीं बीवी जी! अभी तो नहीं लौटे, ना कोई और खबर ही आई है।” गंगा ने गंभीर मुख से कहा और सामान उठाकर भीतर चली गई।

माधुरी ने आँख उठाकर राजेंद्र की ओर देखा और दोनों मुस्कुरा दिये।  उनका भय अकारण ही था।

गोल कमरे में प्रवेश करते ही राजेंद्र ने लैंप जलाने के लिए हाथ बढ़ाया। माधुरी ने उसका हाथ रोक लिया और उसके गालों पर रखते हुए बोली, “रहने दो।”

“क्यों?”

“न जाने क्यों? आज अंधेरा भला सा लग रहा है।”

“अभी तो भला लगता है, किंतु थोड़ी देर बाद यही खाने लगेगा।”

“कैसे?”

“जब रात और बढ़ जायेगी। सन्नाटा छाया जायेगा। मैं अपने कमरे में और तुम अपने कमरे में, दोनों अकेले। तब यही अंधेरा नागिन बन जायेगा।”

“आपने कैसे कहा कि मैं अकेली रहूंगी?”

“वासुदेव अब सवेरे से पहले क्या लौटेगा?”

“आप जो है!” वह उसके कोट के बटनों को प्यार से उंगलियों से मरोड़ते हुए बोली।

“मैं! तुमसे इतनी दूर…!”

“दूरी क्या है? मन में तो अंतर नहीं…राजी! सच पूछो, वो पास भी हों तो, यूं लगता है जैसे कोसों का अंतर हो…और तुम दूर भी हो, तो यूं अनुभव होता है मानो पास बैठे हो।”

“सच माधुरी! न जाने मन का भय क्यों नहीं जाता। सोचता हूँ यदि हमारे प्रेम का राज़ वासुदेव जान गया, तो मैं तो कहीं का ना रहूंगा।”

“प्रेम और कायरता? साहस से काम लेना पड़ेगा।”

“यदि उसने हमें यूं इकट्ठे देख लिया तो…”

“घबराओ नहीं, वह कुछ ना कह सकेंगे। उनमें इतना साहस ही नहीं और संभव है तुम्हें प्रेम करते देखकर ईर्ष्या से स्वयं भी प्रेम करना सीख जायें।”

“तो क्या वास्तव में उसके हृदय नहीं?”

“ऐसा ही समझ लो!”

“उस दिन मस्त घोड़े को उसने कैसे चाबुक से वश में कर लिया था। वह दृश्य सामने आता है, तो मन का कांपने लगता है।”

कुछ क्षण चुप रहने के बाद वह खिसियानी हँसी हँसते हुए बोली, “वह केवल घोड़े को वश में करना जानते हैं, स्त्री को नहीं। प्रेम क्या है? आकांक्षा क्या है? यह वह नहीं जानते। मुझे तो विश्वास नहीं कि भगवान ने उन्हें ह्रदय भी दिया है।”

क्या कहते वह अपने कमरे की हो जाने लगी। राजेंद्र ने उसका हाथ पकड़ते हुए पूछा, “कहाँ?”

“कपड़े बदल कर अभी आयी।”

“कॉफी न पिलाओगी क्या?”

“आप भी कपड़े बदल लें…मैं अभी गंगा से…”

“गंगा से नहीं…तुम्हारे हाथों से…”

“तो थोड़ी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।”

“स्वीकार है।” राजेंद्र ने उसका हाथ छोड़ दिया और वह तेजी से अपने कमरे में चली गई।

राजेश मुँह ही मुँह कुछ गुनगुनाता हुआ लैंप जलाने के लिए मेज की ओर बढ़ा। आज हर्ष में स्वयं ही उसके हृदय से गीत फूट रहे थे।

कमरे में प्रकाश हुआ और वह भौंचक सा रह गया। वासुदेव सामने वाले कोने में दीवार की ओर मुँह किए आराम कुर्सी पर बैठा था। राजेंद्र को समझने में देर न लगी। वासुदेव को देखकर वह सहसा कांप गया और उसका शरीर पसीने से यूं भीग गया, मानो किसी ने घड़ों पानी में नहला दिया हो।

राजेंद्र का मुख पीला पड़ गया। ऑंखें झुक गई और लज्जित होकर वह हाथों की उंगलियाँ तोड़ने लगा। वही कुछ हुआ, जिसका उसे भय था। एक ही क्षण में वह अपने मित्र की दृष्टि से गिर गया था। उसे यूं अनुभव हुआ, मानो किसी ने उसे ऊँचाई से गड्ढे में धकेल दिया हो।

थोड़ी देर के पश्चात उसने वासुदेव को अपने स्थान से उठते देखा। वह उठकर उसके सामने आ खड़ा हुआ और बलपूर्वक होठों पर मुस्कान उत्पन्न करते हुए बोला, “घबराओ नहीं मित्र! माधुरी सच् ही कहती है, मैं केवल घोड़े ही को वश में  ला सकता हूँ, मानव को नहीं…मुझ में यह भावना ही नहीं, मेरा मन पत्थर बन चुका है…मर चुका है…भला मैं तुम लोगों के सामने आने के योग्य ही कहां हूँ? मुझे तो अपनी मित्रता पर गौरव है, जो काम में तीन वर्षों में ना कर सका, मेरे मित्र ने दिनों में कर दिया। विश्वास जानो, मुझे तुमसे घृणा नहीं हुई, बल्कि तुम दोनों के प्रति सहानुभूति और बढ़ गई है।”

वासुदेव की एक-एक बात विष बन कर उसके कानों में उतरती रही। राजेंद्र इससे अधिक सहन ना कर सका और तेज-तेज पांव उठाता अपने कमरे में चला गया। रास्ते में माधुरी के कमरे में गुनगुनाहट की ध्वनि सुनाई दी। अपनी तरंग में उस बिजली से अनभिज्ञ जो अभी-अभी राजेंद्र पर गिरी थी, वह हृदय की ताल पर कोई मधुर गीत गुनगुना रही थी।

राजेंद्र के कानों में वह बातें गूंज रही थी, जो कमरे में प्रकाश होने से पूर्व वह माधुरी से कर रहा था। उस समय वासुदेव के हृदय में जो ज्वाला भड़क रही होगी, उसकी कल्पना से उसकी धमनियों में क्षण भर के लिए लहू सा जम गया।

उसने तुरंत वह स्थान छोड़ने का निर्णय कर लिया। अपना सूटकेस निकाला और इधर-उधर बिखरे हुए कपड़े संभालने लगा। उसके चले जाने के बाद घर में क्या होने वाला है, इसका विचार करके उसका रुआं-रुआं कांप उठा। यदि वासुदेव ने बल का प्रयोग किया तो…उसे सहसा मस्त घोड़े वाली घटना स्मरण हो आई।

अभी वह पूरे कपड़े समेट न पाया था कि किसी ने बढ़कर पीछे से उसका हाथ थाम लिया। वह घबराकर उछला और झट मुड़कर वासुदेव को देखने लगा, जो जोर से उसकी कलाई अपने हाथ में लिया था। दोनों ने उखड़ी हुई दृष्टि से एक-दूसरे को देखा।

“मित्र बनकर आए हो, अब शत्रु बंद करना जाने न दूंगा।” बोझिल हृदय से पीड़ा भरे स्वर में वासुदेव उससे बोला।

“मित्रता क्या और शत्रुता कैसी? अपनी इच्छा से आया था और अपनी इच्छा से जा रहा हूँ।” झटके से अपना हाथ छुड़ाते हुए उसने कहा।

“आग तो लगा चले हो, उसे बुझाएगा कौन?”

राजेंद्र ने वासुदेव की बात सुनकर आश्चर्य में उसे देखा। वासुदेव बात को चालू रखते हुए बोला, “मेरा अभिप्राय माधुरी से था। उसके मन में जो प्रेम की चिंगारी सुलगाई है, उसे क्या यूं ही छोड़ जाओगे?”

“तुम क्या समझते हो मैं तुम से डर गया हूँ, लज्जित हूँ और अपना मुँह छुपा कर दूर भाग रहा हूँ। मित्र मुझे अपने किए पर कोई पछतावा नहीं। संभव है मेरे इस व्यवहार ने तुम्हारी सोई हुई भावनाओं को जागृत कर दिया हो और तुम किसी दूसरे के जीवन से खेलना छोड़ दो।”

यह कहते ही राजेंद्र सूटकेस उठाया और बाहर जाने लगा। वासुदेव ने लपककर उसकी बाँह पकड़ ली और ऊँचे स्वर में बोला, “यह क्या मूर्खता है?”

अभी मैं दोनों आपस में झगड़ ही रहे थे कि सामने से माधुरी को आते देख कर झेंप गये। माधुरी भी उन्हें अचानक देखकर विस्मित रह गई। ‘वासुदेव कब और कैसे आया?’ अभी वह यह सोच भी ना पाई थी कि वातावरण का रंग बदलने के लिए वासुदेव झट से बोला –

“माधुरी! तुम ही समझाओ…यह क्या हठ है?”

“क्या?” वह आँखें फाड़ते हुए बोली।

“रूठ कर जाने को तैयार हो गया है। कहता है दिन भर मेरे बिना मन नहीं लगा। अब तुम ही कहो मैं कैसे ना जाता, उसके तो प्राणों पर बनी थी।”

“कोचवान का क्या हुआ?” माधुरी ने झट पूछा।

“बिचारा मर गया!” उसने धीरे से उत्तर दिया।

यह सुनकर दोनों का कलेजा धक से रह गया। उसी समय ड्योढ़ी से बंधा घोड़ा जोर से हिनहिनाया उसकी। उसके हिनहिनाहट में एक विशेष क्रूरता थी। वासुदेव ने दु:खी मन से कहा, “आज इस पालतू पशु ने घर के व्यक्ति के ही प्राण ले लिये।”

“कॉफी बनी रखी है!” माधुरी ने धीमे स्वर में कहा और बाहर चली गई। वासुदेव ने सूटकेस राजेंद्र के हाथ से लेकर एक ओर रख दिया और उसके कंधे पर हाथ रखते हुए बोला, “एक साथ कॉफी पियेंगे।”

राजेंद्रन अनमना सा विवश वासुदेव के साथ बालकनी में आ गया। माधुरी पहले ही वहाँ कॉफी बना रही थी। दोनों कुर्सियों पर बैठ गये। वासुदेव ने बलपूर्वक हँसते हुए कहा, “थूक दो अब इस क्रोध को राजी! वचन देता हूँ, अब तुम्हें मैं अकेले छोड़कर नहीं जाऊंगा।”

राजेंद्र चुप रहा और कॉफी का प्याला उठाकर पीने लगा। माधुरी ने दूसरा प्याला पति की ओर बढ़ाते हुए पूछा, “आप कब आये?”

“अभी तो चला आ रहा हूँ।”

फिर सब चुप हो गये। माधुरी सोच रही थी शायद राजेंद्र जानबूझकर बन रहा है, इसलिए उसके मौन पर उसने कोई ध्यान ना दिया।

एक ही सांस में कॉफी का पहला समाप्त करके राजेंद्र उठ खड़ा हुआ और बाहर जाने लगा। वासुदेव ने उसे रोकने का प्रयत्न किया, किंतु बिना कोई बात कहे वह लंबे-लंबे डग भरता हुआ नीचे उतर गया और ड्योढ़ी में गंगा से कुछ कहकर बाहर निकल गया।

जब गंगा कॉफी के बर्तन उठाने आई, तो वासुदेव ने पूछा, “क्या कहता था राजेंद्र?”

“रात के खाने को मना ही कर गए हैं।” गंगा ने उत्तर दिया।

वासुदेव चुप हो गया और जब गंगा बर्तन उठा कर चली गई, तो उसने माधुरी से पूछा, “आज दिन भर कैसे कटा?”

“जी!” वह सिर से पांव तक कांप गई।

“मेरा अभिप्राय है, कहीं वह दिन भर अकेला तो नहीं बैठा रहा!”

“नहीं तो! खाना एक साथ खाया था। अब कॉफ़ी भी ला रही थी।”

“बस, एक साथ खाना ही खाया। कहीं घूमने को ले गई होती।”

“दोपहर को तो बस सोये रहे और मैं…”

“और तुम?”

“मैं भला उन्हें क्यों कर ले जाती?”

“यही बात तो तुम स्त्रियों की बुद्धि में नहीं समाती – अच्छा तुम खाना तैयार करो, मैं उसे मना कर लाता हूँ।”

“वह न माने तो?”

“कैसे ना मानेगा? मैं अपने मित्र को भली प्रकार समझता हूँ।” वासुदेव ने सावधानी से उत्तर दिया और उसके पीछे-पीछे घर से बाहर चला आया।

झील के किनारे बहुत दूर तक जाने पर भी राजेंद्र नहीं दिखाई ना दिया। अचानक झील के जल पर उसे पानी के उछलने की आवाज सुनाई दी, जैसे किसी ने मौन जल में पत्थर गिरा कर हलचल मचा दी हो। उसने झट मुड़कर देखा, राजेंद्र नाव से पीठ लगाए कुछ सोच रहा था।

“तुम यहाँ? मैं तो डर रहा था।” वासुदेव ने उसकी ओर देखते हुए पूछा।

“क्यों? यह सोचकर कि कहीं में झील के जल में डूब कर आत्महत्या ना कर लूं।”

“छी छी…आज तुम्हें हो क्या गया है?” वासुदेव राजेंद्र के समीप बैठ गया। राजेंद्र ने गर्दन दूसरी और मोड़ लो और किनारे पर पड़े हुए कंकर उठाकर झील में फेंकने लगा।

कुछ देर दोनों चुपचाप बैठे रहे। राजेंद्र थोड़े थोड़े अंतर के बाद पानी में एक पत्थर फेंकता, हल्का सा धमाका होता और फिर मौन छा जाता। बैठे-बैठे राजेंद्र स्वयं ही कहने लगा, “मैं कल जा रहा हूँ।”

“मुझे मझधार में छोड़कर! क्या इसी दिन के लिए यहाँ आए थे?”

“वासुदेव! मैं विवश हूँ। मैंने जानता था कि मेरा यहाँ आना हम दोनों के लिए इतनी बड़ी समस्या उत्पन्न कर देगा कि जीना दूभर हो जाये।”

“यह तुम क्या सोच रहे हो? तुम नहीं जानते कि मैं तुम्हारा कितना आभारी हूँ। तुमने तो मेरी सोई हुई आकांक्षा को झंझोड़ दिया है। तुमने मेरे नीरस जीवन में रस भर दिया। कुछ दिनों से माधुरी को बदला हुआ पा रहा था। मैं तो धन्यवाद भी नहीं कर पाया।”

राजेंद्र ध्यानपूर्वक वासुदेव की आँखों में झांका। एक-एक शब्द विश्वास बनकर निकल रहा था। उनमें तनिक भी बनावट की झलक न थी। हर बात मन से निकली प्रतीत होती थी। वह सोच भी नहीं सकता था कि कोई पति अपनी पत्नी के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग कर सकता है। उसकी समझ में कुछ ना आ रहा था।

वासुदेव की आँखों में आँसू झलक रहे थे। राजेंद्र ने क्रोध और सहानुभूति के लिए मिश्रित भाव से देखा और बोला –

“उन पतियों का यही अंत होता है, जो अपनी पत्नी की ओर ध्यान नहीं देते, जो उनकी भावना को उभरने से पहले ही दबा देते हैं, अंगारों की सेज पर लिटा देते हैं और फिर पछताते हैं, लज्जित होते हैं, आँसूं बहाते हैं, उन्हें चरित्रहीन और बेवफा ठहराते हैं, जब…” कुछ क्षण के लिए रुक गया फिर धीरे से बोला, “जब किसी जान पहचान के व्यक्ति अथवा किसी नौकर के साथ भाग जाती है।”

अंतिम शब्द उसने कुछ किस दृढ़ता से कहे कि वह वासुदेव के मन में सांप के समान रेंग गये। पलकों पर आये आँसुओं को पीते हुए दुखी मन से उसने उत्तर दिया, “तुम सच कह ते हो राजेंद्र, किंतु मैं विवश हूँ।”

“विवश विवश …विवश क्यों? मैं यह शब्द बड़ी देर से सुन रहा हूँ।”

“राजेंद्र! मेरा आज का विचार था कि स्त्री-पुरुष को एक कर देने वाली सबसे बड़ी शक्ति प्रेम है; कोमल भावनायें हैं, किंतु आज मैं समझ गया यह सब ढोंग है, मिथ्या है, यह मन का सौदा नहीं तन का लेन-देन है। यौवन और शारीरिक सौंदर्य का आकर्षण है। वासना पूर्ति है। भावनायें उभरती हैं, उनकी पूर्ति होती है और फिर शीत पड़ जाती है, यही चक्र फिर चलता है। कोई प्रेम नहीं, कोई चिरस्थाई बंधन नहीं।”

“मैं तो प्रकृति का नियम है। हर भावना कि तृप्ति आवश्यक है। इसी में शांति का रहस्य है। इसी के आधार पर जीवन चलता है। तेरी इच्छा की पूर्ति ना होती रहे, तो मानव उन्नति भी ना कर सके। कामनाओं और अभिलाषाओं के बने रहने का नाम ही जीवन है, यह नहीं तो कुछ नहीं! जीवन से लगाव ही तो प्रेम है।”

“परंतु, उसका जीवन क्या, जिसमें कामनायें तो हो, किंतु अपूर्ण। पंख हो, उड़ने की शक्ति न हो। उसके चारों जीवन का सुख हो और उसके पांव जकड़े हो, हाथ जकड़े हो। तुम ही कहो मैं क्या करूं?”

राजेंद्र ने अनुभव किया, मानो उसके मित्र के जीवन के सब रहस्य उभरकर उसके होठों तक आ गए थे। वह कुछ कहना चाहता था, किंतु उसकी जबान सूख गई थी और शब्द गले कहीं दब कर रह गए थे। उसके रहस्य आँसू बनकर उसकी आँखों में चमके और ढलक गये। इससे अधिक और कह भी क्या सकता था?

राजेंद्र ने उसके कंधे पर हाथ रखा और सहानुभूति से उसकी ओर देखते बोला, “क्या मुझसे मन की बात में कहोगे?”

“किस ज़बान से कहूं।”

“जीवन के कई ऐसे भेद हैं, जो पत्नी से छुपाये जाते हैं, पर मित्रों से नहीं। मित्र नहीं, तो शत्रु समझकर ही कह डालो।”

“सुन सकोगे?

“मित्र का दु:ख न सुन सकूंगा। यह कैसे संभव हो सकता है?”

“तो एक वचन देना होगा। मुझे मझधार में छोड़ कर ना जाना।”

राजेंद्र ने उसका हाथ पकड़ लिया और उसके और समीप हो बैठा।

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चैप्टर 10 नकली नाक : इब्ने सफ़ी का उपन्यास हिंदी में | Chapter 10 Nakli Naak Ibne Safi Novel In Hindi

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