बंटवारा विष्णु प्रभाकर की कहानी | Bantwara Vishnu Prabhakar Ki Kahani

बंटवारा विष्णु प्रभाकर की कहानी (Bantwara Vishnu Prabhakar Ki Kahani Short Story In Hindi)

Bantwara Vishnu Prabhakar Story 

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Bantwara Vishnu Prabhakar Story

नंदा जब से घर में आई है, उसका मन एक गहरे अवसाद से भरा रहता है। उसे लगता है, जैसे वह एक नई दुनिया में आ पहुँची है, जहाँ सब उसके परिचित होकर भी अपरिचित हैं। वह जानती है कि जिन्हें पीछे छोड़ आई है, वे केवल दो प्राणी हैं, देवर और देवरानी। देवर को उसने गोद में खिलाकर पाला है। आपद-विपद में वह माँ के समान उस पर छाई रही है। देवरानी को एक दिन अपनी बहू की तरह घर में लाई थी, जिसके ऊपर निछावर करने को उसने कुछ नहीं बचा रखा था। इन्हीं दो प्राणियों को पीछे छोड़कर, वह निपट खाली जान पड़ती है। उसके पति, पुत्र, पुत्रियाँ सदा की भांति आज भी उसके साथ हैं, परंतु उनके कोलाहल में उसे जीवन नहीं मालूम देता। लगता है, जैसे सब दीवार के चित्र की तरह मौन नृत्य कर रहे हैं। भाव होते हैं, पर स्पंदन कहाँ होता है इन चित्रों में ?

उसे इस घर में आए अभी एक सप्ताह ही हुआ है, परंतु मालूम होता है, जैसे युग बीत गए हैं, जैसे महाकाल ने सदा के लिए दोनों भाइयों को अलग कर दिया है। सहसा वह घर का काम करते-करते ठिठक जाती है। कोई चिरपरिचित स्वर सुनाई देता है, मानो कोई उसे पुकार रहा है, ‘‘भाभी !’’

लेकिन अर्द्ध-चेतना की दशा भंग होती है, तो देखती है कि उसका छोटा लड़का गौरा खड़ा हुआ कह रहा है ‘‘भाभी ! सुना नहीं तुमने ? स्कूल को देर हो गई। रोटी दो मुझे !’’

वह कांप उठती है। देवेन भी कभी ऐसे ही आकर पुकारता था। वही देवेन आज मुझसे अलग हो गया है। लेकिन यह ठीक ही हुआ। वह बुद्धिमान है, खूब कमाता है। इसीलिए कुछ दिन से यह बात उसके मस्तिष्क में समा रही थी कि कुटुंब का जीवन उसकी कमाई पर अवलंबित है, परंतु शासन करती हैं भाभी ! और शायद यह भी सोचा था कि भाभी का परिवार बड़ा है। मूर्ख कहीं का ! विवाह करते ही उसने अपने को परिवार से अलग कर लिया।

‘‘मैंने अच्छा ही किया। कल को महाभारत मचता। रही-सही मुहब्बत भी मिट जाती। गलती मेरी भी है। वह जवान हो गया था, और मैं उसे निपट अजान बालक ही समझती रही। पर मैं क्या करूं? मेरी आँखें तो उसी को देखती हैं, जो कभी स्कूल से पिटकर सिसकता हुआ आकर मेरी गोद में चिपट जाता था और सुबकियाँ लेता हुआ कहता था, ‘‘भाभी, मैं कल से स्कूल नहीं जाऊंगा ! मुझे सबक याद नहीं होता !’’ उसके भाई क्रुद्ध होकर चिल्ला उठते, ‘‘सबक याद नहीं होता, हरामखोर ! क्या कुलीगीरी करेगा ?’’

मैं कहती, ‘‘देखो जी, उसे गाली मत दो ! कुलीगीरी करेगा या कुछ भी करेगा, तुम्हारे आगे हाथ पसारने नहीं आएगा !’’

वह माथा ठोक लेते। कहते, ‘‘तुम इसका सर्वनाश करके रहोगी !’’

‘‘लेकिन, भगवान् की माया कि वही सर्वनाशी बालक आज उनके कान काटता है ! वह उसके इशारों पर नाचते हैं। सारा व्यापार उसी के कंधों पर ठहरा है।’’

नंदा इसी तरह सोचती रहती है। आज भी सोच रही है। रात काफी बीत चुकी है, परंतु रामदास अभी तक मंदिर से नहीं लौटे। गौरी और शीला दोनों सो गए थे। छोटा बच्चा उसी के पलंग पर शांत, निश्चिंत नींद की परियों से खेल रहा था। वह कई क्षण उसे देखती रही। मानो बच्चे की निश्चिंतता ने माँ को बल दिया। वह मुग्ध हो उठी। सहसा तभी किसी ने द्वार खटखटाया। वह उठी, और किवाड़ खोले। देखा, सामने देवेन खड़ा है।

अचकचाकर बोली, ‘‘अरे देवेन !…कैसे आया इस वक्त ?’’

देवेन मुस्कराया। कहा, ‘‘अपने घर आने के लिए भी वक्त देखना होता है, यह आज जाना है भाभी !’’

नंदा अप्रतिभ हुई। बोली कुछ नहीं।

तब देवेन ने पूछा, ‘‘भइया नहीं आए ?’’

नंदा ने कहा, ‘‘दस बजे से पहले वह कभी नहीं लौटते।’’

देवेन यह जानता था, इसलिए चुप रहा।

अब वे आग के पास आ बैठे थे। नंदा ने देखा, कोयले बुझ चले हैं। उन्हीं को इधर-उधर करके वह बोली, ‘‘उनसे कुछ काम था ?’’

‘‘हाँ।’’

‘‘बहुत ज़रूरी ?’’

देवेन ने अस्थिर होकर कहा, ‘‘भाभी, आज पहली तारीख है न !’’

‘‘हाँ !…तो ?’’

‘‘गोपाल को रुपये भेजने हैं।’’

‘‘तो फिर ?’’

‘‘वही रुपये लाया हूँ !’’

नंदा अचरज से भर आई। बोली, ‘‘रुपए लाया है ? क्या उन्होंने मांगे थे ?’’

देवेन चौंका। बोला, ‘‘मांगते क्यों ? ये बीस रुपए मैं बराबर देता आ रहा हूँ।’’

नंदा बोली, ‘‘जानती हूँ, देवेन, तुम सदा बीस रुपए देते आए हो। पर वक्त क्या हमेशा एक-सा रहता है ? कल हम एक थे ? आज अलग हैं। अब तेरे देने की बात नहीं उठती।’’

देवेन हठात् कांप सा उठा! क्षण भर उसे ढूंढे शब्द भी नहीं मिले। फिर साहस करके बोला, “यह तुमने क्या कहा, भाभी! दुकान तो सदा दो रही हैं। घर बंट जाने से क्या हम भाई-भाई भी नहीं रहे?’

नंदा तनिक भी नहीं झिझकी। बोली, “मैं यह कब कहती हूँ? भाई का रिश्ता तो विधाता भी नहीं तोड़ सकता, परंतु बात यह नहीं है। जब साथ थे, तो दुनिया के लिए एक थे। तू तीन सौ कमाता था और वह तीस, परंतु दोनों पर मेरा एक सा अधिकार था, लेकिन आज तेरे तीन सौ पर मेरा कोई अधिकार नहीं है। यह सीधी सी बात है। इससे भाई-भाई का नाता नहीं टूट सकता।”

देवेन जानता है कि भाभी से बातों में कोई नहीं जीत सकता, परंतु ऐसा तर्क वह कर सकती है, यह उसने नहीं सोचा था। उसने फिर कहा, “भाभी! मेरी आय पर तुम्हारा अधिकार न हो, पर गोपाल का तो है। उसका चाचा तो मैं रहूंगा ही।”

कहते-कहते देवेन द्रवित हो आया।

नंदा के मर्म को भी इस बात ने छुआ। वह बोली, “गोपाल तेरा ही है, देवेन, परंतु इससे क्या होता है। उसे पालने का जिम्मा तो हमारा है। हम यदि अपाहिज हों, तो तेरे देने की बात पैदा होती है, वरना नहीं। जब बहुत थे, तो बहुत खर्च करके अपना सिर ऊँचा रखा। आज कम हैं, तो क्या सिर झुकाना होगा? नहीं देवेन, भाभी के जीते-जी ऐसा नहीं होगा। आज तुझसे लेंगे, तो कल लौटाने की बात उठेगी। इतनी शक्ति क्या तेरे भैया में है? नहीं। जाने क्या हो। भाई-भाई में जो प्यार बचा है, संभव है, उसे भी खोना पड़े। तब दुनिया हँसेगी। इसीलिए कहती हूँ-देवेन, तू लेने-देने की बात मत कर।”

देवेन व्यापार में पारंगत है, परंतु आज भाभी के सामने उसकी सदा चेतन बुद्धि कुंठित हो चली। और कुछ कह सकने में असमर्थ हो वह बोल उठा, “तो जाऊं, भाभी?जेड

“हाँ, अब जाना ही चाहिए। रात बढ़ रही है और घर में बहू अकेली है।”

देवेन बरबस उठा। उसकी आँखों में सहज ही पानी नहीं आता, पर आज जैसे वे खुलकर रोने को आतुर हो उठीं, लेकिन दु:ख के साथ-साथ क्रोध भी उसे कम नहीं आया है। इसीलिए रुलाई रोककर तीखे स्वर में उसने कहा, “भाभी, तुम्हारे दरवाजे पर आकर आज मैं पहली बार निराश लौटा हूँ। याद रखना, इस बात को भूलूंगा नहीं।” इतना कहकर वह चला गया।

भाभी नंदा हठात् चकित सी उस अभेद्य अंधकार में दूर तक उसे देखती रही, फिर जोर से किवाड़ बंद करती हुई बोली, “पगला कहीं का। भाभी को कंगाल समझता है।”

* * * * * * *

धीरे-धीरे बात पुरानी पड़ गई। दुनिया भूल गई कि दीवान घराने के दोनों भाई कभी अलग हुए थे। ऐसा लगा, मानो वे दोनों सदा से ऐसे ही रहते आए हैं। काम-काज, सुख-दुःख में आनाजाना होने लगा। देवेन सदा की भांति कमाने के लिए दिलावर जाता, तब गौरी बहुत दिनों तक चाची के पास जाकर सोता।

एक दिन बड़े लड़के गोपाल ने कॉलेज की पढ़ाई समाप्त कर ली। उसे साइन्स में विशेष योग्यता का प्रमाण-पत्र मिला। उसने माँ को लिख भेजा, “मैं डॉक्टरी पढ़ने जाऊंगा।”

नंदा ने गदगद होकर अपने पति से कहा, “सुनते हो? गोपाल डॉक्टरी में जाना चाहता है।”

रामदास ने सुन लिया। उनका भी मन गद्गद हो उठा, परंतु मार्ग को रोककर जो चट्टान उनके सामने पड़ी है, वह क्या सरलता से हटाई जा सकती है? इसीलिए कहा, “जाने के लिए मैं मना नहीं करता, परंतु पैसे के अभाव में काम कैसे चलेगा?”

नंदा बोली, “रुपए नहीं हैं, यह कहकर क्या लड़के की जिंदगी बिगाड़ी जा सकेगी? पैसे जुटाने के लिए परमात्मा ने बुद्धि सभी को दी है।”

पुत्र का पक्ष लेकर नंदा ने पति पर जो चोट की, उससे रामदास तनिक भी विचलित नहीं हुए। वह धर्मपरायण व्यक्ति की तरह मान बैठे हैं कि विधाता जो कुछ करते हैं, ठीक करते हैं, परंतु नंदा का विधाता पर इतना गहरा विश्वास नहीं है। इसीलिए वह धीमे पड़कर बोला, “एक बात मुझे सूझती है।”

“क्या?”

“मेरे पास जो गहने हैं, उन्हें बेच दीजिए। उनसे लगभग दो हजार रुपए आपको मिल सकते हैं। बाकी आपकी दुकान है। उसे गिरवी रख दो। धीरे-धीरे छुड़ा लेंगे।”

रामदास सहसा चिंहुक उठे। कहा, “क्या कहती हो तुम?”

नंदा समझ गई कि दुकान की बात ने मर्म पर चोट की है। बोली, “और रास्ता ही क्या है?”

रामदास ने उसी तरह दुःखी मन से कहा, “मैं कुछ नहीं जानता। बाप-दादों की जायदाद को छूने का मुझे कोई अधिकार नहीं है।”

अब नंदा का नारीत्व जाग उठा। क्रुद्ध स्वर में बोली, “तो लड़के का गला घोंटकर मार डालने का अधिकार तो तुम्हें मिला होगा न? उसी को पूरा कर लो। हाय रे भाग्य! कैसे कुल में जन्म लिया उसने, जहाँ उसे जीने का हक भी नहीं है।”

लेकिन क्रोध में इतना कहकर दूसरे ही क्षण उसे अपने ऊपर ग्लानि हो आई। उसने देखा, रामदास बेबस-से उसे देखने लगे हैं। उसका मन छटपटा उठा, आखिर वह करें भी क्या? वह गोपाल के पिता हैं। उसका उज्ज्वल भविष्य उनके बुढ़ापे का एकमात्र अवलंब है, परंतु पैतृक संपत्ति की ममता उसकी समझ में ठीक-ठीक नहीं आई। उसने कुछ सोचकर धीरे से कहा, “तो एक काम करो।”

“क्या ?”

“मैं देवेन को बुलाती हूँ। आप उससे कहना-दुकान रखकर मुझे रुपए दे दो। इस प्रकार बाप-दादों की जायदाद कुटुंब से बाहर नहीं जाएगी।” और फिर उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना लड़के को पुकारा, “गौरी! ओ गौरी! जा, अपने चाचा को बुला ला। कहना, भाभी बुला रही हैं अभी।”

लेकिन गौरी जाए, इससे पहले देवेन आप-ही-आप उधर आ निकला। बोला, “भाभी, सुना है, गोपाल डॉक्टरी पढ़ना चाहता है?”

“हाँ, भइया, वही बात सोच रहे हैं।”

“बड़ी सुंदर बात है, भाभी! भगवान् की कृपा से चार साल के बाद हमारे कुटुंब में भी एक बड़ा आदमी हो जाएगा।”

भाभी और भइया दोनों गद्गद हो आए।

भाभी बोली, “तेरे मुँह में घी-शक्कर, देवेन! पर बात रुपए पर आकर अटक गई है। इसीलिए तुझे बुलाने भेज रही थी।”

देवेन हठात् चौंका, “मुझसे कुछ काम था?…कहो, भाभी!”

नंदा ने रामदास की ओर देखा, मानो कहा, “मेरा जो काम था, वह मैं कर चुकी। अब आप कहो।”

रामदास को बेबस बोलना पड़ा। धीरे-धीरे अटक-अटककर कहा, “देवेन, गोपाल के लिए रुपए चाहिए, इसीलिए तू मेरी दुकान गिरवी रख ले।”

देवेन ने सुन लिया। सुनकर सन्न सा रह गया। वाणी अवरुद्ध हो उठी।

नंदा ने उसे देखा। वह समझ गई कि जिस व्यथा के कारण देवेन सन्न रह गया, वह आकस्मिक अधिक है। इसीलिए समझाकर बोली, “देवेन, बात असल में इतनी है कि हम नहीं चाहते कि कल को दुनिया कहे कि माँ-बाप ने जायदाद के मोह में पड़कर औलाद का गला घोंट दिया। और फिर, यह भी बुरा होगा कि बाप-दादा की जायदाद गैर लोगों के हाथों पड़े। इसीलिए तू उसे ले ले। हम न भी छुड़ा सके, तो अपने ही घर रहेगी।”

देवेन को अब वाणी मिली। बोला, “भाभी, तुम ठीक कहती हो। ये व्यवहार की बातें हैं, और व्यवहारकुशल आदमी बहुत दूर की सोचता है, परंतु कभी-कभी जो अपने सबसे पास है, उसपर उसकी दृष्टि नहीं पड़ती।”

नंदा नहीं समझी। वह फिर बोला, “सोचूँगा, भाभी! ऐसे कामों में जल्दी करना अच्छा नहीं होता।”

देवेन की इस बात से भाभी और भइया-दोनों अनमने हो गए। सच तो यह है कि उन्हें यह स्वर अच्छा नहीं लगा।

देवेन चला गया।

नंदा की मुद्रा जटिल हो चली। प्रश्न हल करने का जो गुर उसने ढूँढ़ निकाला था, उसने तो प्रश्न को और भी जटिल कर दिया, लेकिन अब वह क्या करे। तीर कमान से निकल चुका है। उनका डर सच निकला। संध्या होते-होते देवेन ने कहला भेजा, “मैं दुकान नहीं रख सकूंगा।”

* * * * * * *

तीन दिनों के बाद।

देवेन जब परदेस जाने की तैयारी कर रहा था तो उसकी पत्नी विद्या घबराई हुई आई, बोली, “अजी, तुमने कुछ सुना?”

“क्या?”

“जिज्जीजी ने अपना सब जेवर बेच दिया।”

सुनकर सहज भाव से देवेन ने कहा, “जानता हूँ। भाभी गोपाल को डॉक्टरी पढ़ाने भेज रही हैं। जेवर का इससे अच्छा इस्तेमाल और क्या हो सकता है।”

विद्या उसी तरह बोली, “और आपके भइया ने अपनी दुकान उठा दी है। वह किसी के साथ कपड़े की दुकान खोल रहे हैं।”

अब देवेन चौंका। कहा, “यह किसने कहा तुमसे?”

“‘शची की बहू ने। उसी के मालिक के साथ तुम्हारे भइया ने साझा किया है। वे रुई का सौदा करने की बात सोच रहे हैं।”

देवेन अनमना हो गया। बोला, “भइया रुई का सौदा करेंगे?”

“जी! वह अब खूब रुपए कमाना चाहते हैं।”

“सचमुच?”

न जाने क्या हुआ कि उसके हृदय में एक विचित्र घबराहट भर चली। उसका स्वर शिथिल होने लगा। वह शून्य में ताकता हुआ कहने लगा, “‘विद्या, भइया ने परसों मुझसे भी कहा था।”

उत्सुक विद्या बोली, “क्या कहा था?”

“कि मैं उनकी दुकान लेकर उन्हें रुपए दे दूं।”

“फिर?”

“फिर क्या। मैंने इनकार कर दिया।”

विद्या ने गहरी साँस ली। कहा, “ठीक तो किया। सगे-संबंधियों से लेन-देन करना दुश्मनी पैदा करना है।”

“हाँ, विद्या! भाभी ने भी एक दिन मुझसे यही बात कही थी। उनकी बातें मैं खूब याद रखता हूँ, परंतु भइया धर्म-भीरु व्यक्ति हैं। वह सौदा करना क्या जानें।”

विद्या बोली, “औलाद का पालना भी तो धर्म है। गोपाल से जब इतनी आशा है तो उसके लिए सबकुछ करना होगा।”

देवेन अब मुसकरा उठा। कहने लगा, “ठीक है, विद्या! आशा सबकुछ करा लेती है। मैं व्यर्थ ही डर गया था। अच्छा, मैं भइया से मिल आऊँ। कल सवेरे ही हमें चले जाना है।”

और देवेन चला गया। तब विद्या का मन न जाने क्यों आप-ही-आप अंदर से उमड़ने लगा। वह अनमनी-सी सामान सहेजने लगी। सोचने लगी, “‘वह उदास हैं। जिज्जी का घर बिगड़ रहा है। मैं जा रही हूँ। सबकुछ अजीब है। कहीं कोई तुक नहीं है। न जाने क्या होनेवाला है!”

फिर धीरे-धीरे संध्या हो गई। उनका सामान बँध गया। देवेन लौट आया। विद्या ने देखा, उसके हाथ में एक कागज है। पूछा, “यह क्या है?”

सरलता से देवेन ने कहा, “‘यह भइया की दुकान का कागज है।”

विद्या जैसे सिहर उठी। बोली, “क्या कहते हो?”

“ठीक कहता हूँ, विद्या। मैंने भैया की दुकान ले ली है।”

कहकर उसी तरह उस कागज के टुकड़े करने शुरू कर दिए।

विद्या हतबुद्धि बोली, “आप क्या कर रहे हैं? आखिर…”

“सोचता हूँ, कहीं पागल न हो जाऊं। इसीलिए उसके कारण को समूल मिटा देना चाहता हूँ।”

विद्या की समझ में खाक भी नहीं आया। उसी तरह घबराई सी कहने लगी, “क्या कहते हैं आप? इतने रुपए क्या यों ही फेंक दिए जायेंगे?”

देवेन ने कहा, “नहीं विद्या, भाभी को जानता हूँ। उन्हीं की गोद में पलकर तो इतना बड़ा हो सका हूँ। रुपए होंगे तो रोकेंगी नहीं। और जब देने आएँगी, तो मैं लौटाऊंगा भी नहीं। ब्याज तक ले लूंगा। व्यवहार की बात है। इसमें नाते-रिश्ते बंधन नहीं बन सकेंगे।”

विद्या बोली, “मैं नहीं जानती कि यह सब क्या हो रहा है।”

देवेन अब हँस पड़ा। बोला, “मैं भी नहीं जानता विद्या, कि यह सब क्या हो रहा है। उनसे जाकर जब मैंने कहा कि मैं दुकान लेने को तैयार हूँ, तो सच कहता हूँ, भाभी बोल सकने में एकदम असमर्थ नादान बालक की तरह रो पड़ीं। विद्या, आज मैंने जीवन में पहली बार भाभी को रोते देखा। मैं हँसता हूँ। तुम गुस्सा करती हो। करो, पर मैंने आज भाभी को रोते देख ही लिया।”

कहते-कहते देवेन उत्तेजित हो उठा। उसने कागज के छोटे-छोटे टुकड़े किए, और उन्हें आग में डालकर बोला, “सुनो विद्या, रुदन और हास्य का यह दृश्य यहीं समाप्त होता है। प्रार्थना करता हूँ, समाप्ति का यह समाचार दुनिया तक न पहुँच सके।”

आगे उसकी वाणी रुक गई। मार्ग में आँसू उमड़ आए थे।

**समाप्त**

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