बाइसवां बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास | Baeesva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas

बाइसवां बयान कुसुम कुमारी देवकीनन्दन खत्री का उपन्यास, Baeesva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Ka Upanyas, Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri Novel In Hindi 

Baeesva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

Baeesva Bayan Kusum Kumari Devaki Nandan Khatri

कालिन्दी को विश्वास हो गया था कि बीरसेन अब मुझे जीता न छोड़ेगा मगर बहादुर बीरसेन ने लापरवाही के साथ उसे छोड़ दिया और अपने सामने से चले जाने के लिए कहा। कालिन्दी ने इसे ही गनीमत समझा और अपनी जान लेकर वहां से भागी। यद्यपि अपने स्वभाव और करनी के अनुसार कालिन्दी राक्षसी की पदवी पाने योग्य थी परन्तु विधाता ने उसमें खूबसूरती और नजाकत कूट-कूट कर भर दी थी। उसमें इतनी हिम्मत न थी कि दो-तीन कोस पैदल चल सकती परन्तु जान के खौफ से उसे भागना ही पड़ा। राह में वह तरह-तरह की बातें सोचती जाती थी। ‘‘जसवंत से मिलूं या न मिलूं? अगर मैं उसके पास जाऊंगी तो वह अवश्य मेरी खातिर करेगा, मगर नहीं वह बड़ा ही खुदगर्ज है, देखो मुझे अकेली छोड़ के कब्रिस्तान से कैसा भाग निकला नहीं-नहीं, इसमें उसका कोई कसूर नहीं, वह जरा डरपोक है इसी से भाग गया था, अब अगर वह मुझे देखेगा तो अवश्य क्षमा मांगेगा। अस्तु एक दफे पुनः उसके पास चलना चाहिए, यदि वह अब भी मुझसे प्रेम न करेगा तो अवश्य उसे यमलोक में पहुंचाऊंगी।’’ इत्यादि बातों को सोचती-विचारती वह बालेसिंह के लश्कर की तरफ बढ़ी चली जा रही थी मगर थकावट के कारण भरपूर चल नहीं पाती थी।

बालेसिंह का लश्कर जब से तेजगढ़ के सामने आकर पड़ा था तब से वह रात को स्वयं थोड़े से आदमियों को साथ लेकर इधर-उधर घूमा करता था। यद्यपि उसने कई जासूस गुप्त का पता लगाने, चारों तरफ छिपकर घूमने के लिए मुकर्रर किए थे परन्तु जब तक वह स्वयं रात को इधर-उधर न घूमता उसका जी न मानता। आज भी वह थो़ड़े से सवारों को साथ लेकर घूमने के लिए अपने लश्कर से बाहर निकला ही था कि एक जासूस सामने आकर खड़ा हो गया और बोला, ‘‘किले के पिछले दरवाजे से महारानी कुसुम कुमारी को निकाल ले जाने की नीयत से कई आदमी किले के अन्दर रिश्वत देकर घुसे हैं, मुझे ठीक पता मिला है कि यह कार्रवाई कालिन्दी की तरफ से की गई है। मैं अपने दो सिपाहियों को उस जगह छोड़कर आपको खबर देने के लिए आया हूं।’’

यह खबर सुनकर बालेसिंह बहुत खुश हुआ और उसी जासूस को हुक्म दिया कि जहां तक जल्द हो सके जसवंतसिंह को बुला लावे। जासूस जसवंतसिंह के खेमे की तरफ रवाना हुआ और बालेसिंह खड़ा होकर सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए। थोड़ी देर में जसवंतसिंह भी लड़ाई के सामान से दुरुस्त होकर बालेसिंह के पास आ पहुंचा। बालेसिंह ने जासूस की जुबानी जो कुछ सुना था उससे कहा और इसके बाद जसवंतसिंह और उस जासूस को साथ लेकर किले के पिछली तरफ रवाना हुआ। जो कुछ सवार तैयार थे उन्हें साथ लेता गया और हुक्म दे गया कि पांच सौ सवार बहुत जल्द मुझसे आकर मिलें।

बालेसिंह थोड़ी ही दूर गया था कि पहले जासूस का एक और साथी भी आ पहुंचा और उसने खबर दी कि चोर दरवाजे से किले के अन्दर जो लोग घुसे थे उनमें से कई आदमी किसी को जबर्दस्ती गिरफ्तार करके ले आए और पालमपुर की तरफ रवाना हो गए। यह खबर पाकर बालेसिंह ने घोड़े की बाग मोड़ी और उस जासूस को यह आज्ञा देकर पालमपुर की तरफ रवाना हुआ कि तू इसी जगह खड़ा रह जब मेरे सवार यहां आवें तो उन्हें पालमपुर की तरफ भेज दे।

पालमपुर की तरफ लगभग आधा कोस गया होगा कि सामने से एक औरत आती हुई दिखाई पड़ी, जब पास पहुंचा तो उसे रोक कर पूछा कि ‘‘तू कौन है?’’ चांद अच्छी तरह निकल आया था इसलिए उस औरत ने बालेसिंह और जसवंतसिंह को बखूबी पहचान लिया और कहा, ‘‘मैं कालिन्दी हूं, इस समय तुम्हारा एक काम किए हुए चली आ रही हूं। इसके जवाब में बालेसिंह ने कहा, ‘‘जो कुछ तू कर चुकी है मुझे बखूबी मालूम है।’’

इसी समय बालेसिंह के और सवार भी आ पहुंचे, उनमें से दस सवारों को उसने आज्ञा दी कि इस औरत (कालिन्दी) को ले जाओ और हिफाजत से रखो। इसके बाद बालेसिंह बाकी सवारों को साथ लिए हुए तेजी के साथ पालमपुर की तरफ रवाना हुआ और बात की बात में वहां पहुंचकर उसने रनबीरसिंह इत्यादि को चारों तरफ से घेर लिया जैसा कि ऊपर के बयान में हम लिख आए हैं।

उस समय पूरब तरफ सूर्य की किरणें दिखाई दे रही थीं। रनबीरसिंह यह गए और नंगी तलवार लिए हुए बालेसिंह पर टूट पड़े। इस समय रनबीरसिंह की बहादुरी देखने ही योग्य थी। बालेसिंह ने बहुत जोर मारा परन्तु महारानी की डोली पर हाथ न रख सका। बेचारी कुसुम यह हाल देखकर घबड़ा गई और अंजुली उठाकर बोली, ‘‘ईश्वर, इस समय मेरी लाज को रखनेवाला तेरे सिवा इस जगत में और कोई भी नहीं है।’’

थोड़ी ही देर में लड़ाई की यह नौबत पहुंची कि बालेसिंह के सवार जिन्होंने चारों तरफ से घेर लिया था रनबीरसिंह बीरसेन और उनके सिपाहियों की बहादुकी देखकर दंग हो गए और उन्हें लाचार होकर एक तरफ हो मुकाबला करना पड़ा। इसी बीच में रनबीरसिंह ने अपनी पीठ किले की तरफ कर दी और बीरसेन से कहा कि कुसुम की डोली लेकर लड़ते हुए पीछे की तरफ हटना शुरू कर दो और बीरसेन ने ऐसा ही किया। लड़ाई अन्धाधुन्ध होने लगी और मौत का बाजार ऐसा गर्म हुआ कि बहादुरों को दीन-दुनिया की होश न रही और न किसी को यह आशा रह गई कि आज इस लड़ाई से जीते जी बच कर घर जाएंगे। रनबीरसिंह की बेतरह काटने वाली तलवार पर दुश्मनों की निगाह नहीं ठहरती थी। वे देखते कि उस बहादुर की तलवार बिजली की तरह चारों तरफ घूम रही है, अभी एक के सिर पर पड़ी और तुरन्त दूसरे की गर्दन से निकलते ही तीसरे को सफा किया और चौथे की तरफ पलट पड़ी। इसी बीच में रनबीरसिंह की निगाह नमकहराम जसवंतसिंह पर जा पड़ी जिसकी निगाह कुसुम की डोली पर घड़ी-घड़ी पड़ रही थी। उसे देखते ही रनबीरिसिंह यह कहते हुए उसकी तरफ झुक पड़े, ‘‘ओ कमबख्त! अब मेरे हाथ से बचकर तू कहां जा सकता है?’’ जसवंत ने चाहा कि अपने को रनबीरिसिंह की निगाह से छिपा ले मगर न हो सका। बाज की तरह झपटकर रनबीरसिंह उसके पास जा पहुंचे और तलवार का एक वार किया। जसवंत ने चालाकी से अपने घोड़े को पीछे की तरफ हटा लिया इसलिए रनबीरसिंह की तलवार अबकी दफे केवल दसवंत के घोड़े का खून चाट सकी, अर्थात घोड़े की गर्दन पर जा पड़ी और सिर कट जाने के कारण जमीन पर गिर पड़ा और इसके साथ ही जसवंत ने भी जमीन चूम ली। उस समय बहादुर रनबीरसिंह क्षण मांत्र तक इसलिए रुक गए कि वह नमकहराम सीधा होकर उनकी तलवार को फिर एक दफे देख ले। जसवंत ने उठकर रनबीरसिंह पर वार करना ही चाहा था कि उस बहादुर की तलवार ने कमबख्त जसवंत का काम तमाम कर दिया। उसका सिर बालेसिंह के सामने जो केवल दस हाथ की दूरी पर खड़ा इस अद्भुत लड़ाई को देख रहा था जा गिरा और इस तरह लोगों के देखते-देखते विश्वासघाती जसवंत अपने किए की सजा पाकर नर्क भोगने के लिए यमराज की राजधानी की तरफ रवाना हो गया।

लड़ाई को घण्टा भर से ज्यादे हो गया, इस बीच बालेसिंह के पचास सवार जान से मारे गए और दो सौ लड़ाके बेकाम होकर जमीन पर लेट गए, उनके घोड़े भी जख्मी होकर और अपनी पीठ खाली पाकर मैदान की तरफ भाग गए। बालेसिंह के बदन पर भी कई जख्म लगे, बहादुर रनबीरसिंह ने तीस आदमी मारे गए और वह स्वयं भी जख्मी हुए मगर लड़ने की हिम्मत अभी बाकी थी। दिलेर बीरसेन भी यद्यपि जख्मी हुए था मगर दिलावरी के साथ अभी तक कुसुम को दुश्मनों के हाथ से बचाए रहा।

यह लड़ाई ऐसी नहीं थी कि छिपी रहे, और दिन विशेष चढ़ जाने के कारण इस लड़ाई की धूम और भी हो गई। किले में से पांच सौ बहादुर सिपाही और आ पहुंचे जो कुसुम कुमारी के लिए जान देने को तैयार थे और इसी तरह बालेसिंह के हजार फौजी सिपाही भी उस जगह आ पहुंचे। अब लड़ाई का ढंग बिलकुल ही बदल गया। हटते-हटते रनबीरसिंह अपनी फौज के सहित किले की तरफ हो गए और बालेसिंह मुकाबले में अपने लश्कर की तरफ हो गया और लड़ाई कायदे के साथ होने लगी।

पांच सौ फौजी आदमियों के पहुंच जाने से बीरसेन को मौका मिल गया। वह रनबीरसिंह की आज्ञानुसार महारानी कुसुम कुमारी की डोली को दुश्मनों के हाथ से बचाकर चोर दरवाजे की राह से किले के अन्दर जा पहुंचा और किले के अन्दर से तोप की आवाज आने से रनबीरसिंह समझ गए कि उनकी पतिव्रता स्त्री कुसुम कुशलतापूर्वक किले के अन्दर पहुंच गई, क्योंकि यह काम भी इन्हीं की आज्ञानुसार हुआ था।

कुसुम कुशलपूर्वक किले के अन्दर पहुंच गई मगर उसकी जान लड़ाई के मैदान ही में रह गई। जिसका फैसला रनबीरसिंह की जिन्दगी पर मुनहसिर था। यदि रनबीरसिंह की जान बच गई तो कुसुम भी जीती बचेगी नहीं तो वह विधवा होकर इस दुनिया में जिन्दगी बिताने वाली औरत नहीं है। इसी तरह की कितनी ही बातें सोच कुसुम ने बीरसेन से पूछा, ‘‘वह दस हजार फौज जो तुम्हारे मातहत में थी एक समय कहां है और कब हम लोगों के काम आवेगी?’’

बीरसेन–उसका इन्तजाम मैं कर चुका हूं। आज किसी समय वह फौज लड़ाई के मैदान में अवश्य दिखाई देगी और जो कुछ आने से रह जाएगी वह दो दिन के अन्दर पहुंच जाएगी।

कुसुम–अच्छा तो इस समय किले के अन्दर जो फौज है उसे लेकर तुम इसी समय उनकी मदद के लिए चले जाओ, बस इज्जत बचाने का यही समय है, क्योंकि बालेसिंह की बेशुमार फौज इस समय मुकाबले में है। यदि हो सके तो अपने मालिक को बचाकर किले के अन्दर चले जाओ फिर हमारी फौज आ जाएगी तो देखा जाएगा।

बीरसेन–जी हां, मैं अब एक सायत यहां न ठहरूंगा, जो कुछ फौज मौजूद है उसे लेकर अभी जाता हूं।

दिन पहर भर से ज्यादे चढ़ आने पर भी अभी तक किले के सामने वाले मैदान में लड़ाई हो रही है। बालेसिंह की बहादुरी ने भी बहुतों को चौपट किया मगर रनबीरसिंह की चुस्ती चालाकी और दिलावरी ने उसे चौंधिया दिया था। इस समय वह सोच रहा था कि जसवंतसिंह के हाथ से जख्मी होकर रनबीरसिंह बहुत दिनों तक बेकाम पड़े रहे और बहुत सुस्त हो गए हैं, तिस पर उनकी हिम्मत ने आज पंजे में आई हुई कुसुम को छुड़ा ही लिया, यदि वे भले चंगे होते तो न मालूम क्या करते!

घण्टे भर तक फौजी बहादुरों में लड़ाई होती रही और इस बीच में बालेसिंह की बहुत सी फौज वहां आकर इकट्ठी हो गई। जिस समय किले में की बची हुई फौज को साथ लेकर बीरसेन मैदान में आ पहुंचा उस समय मार काट का सौदा बहुत ही बढ़ गया और बीरसेन ने भी खोलकर अपनी बहादुरी का तमाशा बालेसिंह को दिखा दिया। रनबीरसिंह और बीरसेन अपने बहादुरों को लेकर बालेसिंह को फौज में घुस गए। उस समय मालूम होता था कि इस लड़ाई का फैसला आज हो ही जाएगा। इसी समय बीरसेन की मातहतवाली फौज भी आती हुई दिखाई पड़ी जिससे रनबीरसिंह के पक्ष वालों का दिल और भी बढ़ गया और वे लोग जी खोल कर जान देने और लेने के लिए तैयार हो गये।

लड़ाई का जौहर दिखाता हुआ हमारा बहादुर रनबीर ऐसी जगह जा पहुंचा जहां से बालेसिंह थोड़ी ही दूर पर दिखाई दे रहा था। उस समय रनबीरसिंह के जोश का कोई हद न रहा और वे बालेसिंह के पास पहुंचने का उद्योग करने लगे। बालेसिंह ने भी उन्हें देखा मगर पास पहुंचकर उनका मुकाबला करने की हिम्मत न हुई। इस समय रनबीरसिंह और बालेसिंह दोनों ही घोड़ों पर सवार थे।

रनबीरसिंह को अपनी तरफ बढ़ते देख बालेसिंह छिप गया और धोखा देकर घूमता हुआ रनबीरसिंह के पीछे जा पहुंचा और पीछे ही से तलवार का एक भरपूर हाथ रनबीरसिंह पर चलाया। तलवार रनबीरसिंह के बाएं मोढ़े पर बैठी जिससे उनको सख्त सदमा पहुंचा। उन्हें यह नहीं मालूम था कि पीछे की तरफ बालेसिंह आ पहुंचा है। तथापि चोट खाने के साथ ही रनबीर ने घूमकर एक हाथ दुश्मन पर ऐसा जमाया कि वह बेकार हो गया। तलवार उसकी जंघा पर बैठी और उसका दाहिना पैर कट कर जमीन पर गिर पड़ा और साथ ही इसके वह घोड़े की पीठ से लुढ़क कर जमीन पर आ रहा। बालेसिंह के फौजी आदमी यह हाल देखकर हताश हो गए और अपने मालिक को उठाकर खेमे की तरफ भागे।

बीरसेन रनबीरसिंह से दूर न था और वह इस लड़ाई का तमाशा बखूबी देख रहा था। रनबीरसिंह ने भी बहुत-सी चोटें खाई थीं मगर इस समय बालेसिंह के हाथ से पहुंची हुई चोट ने उन्हें एकदम मजबूत कर दिया। बालेसिंह से अपना बदला तो ले लिया मगर उनकी आंखों के आगे भी अंधेरा छा गया और वे त्योरा कर जमीन पर गिर पड़े। इस समय बीरसेन ने बड़ी दिलावरी की। अपने आदमियों को साथ लिए हुए बिजली की तरह उनके पास जा पहुंचा और सब लोगों के देखते-देखते उन्हें उठाकर अपनी फौज में ले गया। इस समय बीरसेन का कपड़ा भी लहू से तर-बतर हो रहा था और उसके बदन पर भी कितने ही जख्म लग चुके थे।

बात की बात में रनबीरसिंह किले के अन्दर पहुंचाए गए और बेहोश बालेसिंह अपने खेमे में पहुंचा दिया गया। दोनों मालिकों के बेकाम हो जाने से लड़ाई बन्द हो गई और फौजें अपने-अपने ठिकाने लौट गईं।

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