बात अठन्नी की सुदर्शन की कहानी | Baat Athanni Ki Sudarshan Ki Kahani

बात अठन्नी की सुदर्शन की कहानी (Baat Athanni Ki Sudarshan Ki Kahani Short Story In Hindi)

Baat Athanni Ki Sudarshan Story 

Baat Athanni Ki Sudarshan

रसीला इंजीनियर बाबू जगतसिंह के यहाँ नौकर था। दस रुपए वेतन था। गाँव में उसके बूढ़े पिता, पत्नी, एक लड़की और दो लड़के थे। इन सबका भार उसी कंधों पर था। वह सारी तनख्वाह घर भेज देता, पर घरवालों का गुजारा न चल पाता। उसने इंजीनियर साहब से वेतन बढ़ाने की बार-बार प्रार्थना की, पर वह हर बार यही कहते, “अगर तुम्हें कोई ज्यादा दे, तो अवश्य चले जाओ। मैं तनख्वाह नहीं बढ़ाऊंगा।”

वह सोचता, “यहाँ इतने सालों से हूँ। अमीर लोग नौकरों पर विश्वास नहीं करते, पर मुझ पर यहाँ कभी किसी ने संदेह नहीं किया। यहाँ से जाऊं, तो शायद कोई ग्यारह-बारह दे दे, पर ऐसा आदर न मिलेगा|”

जिला मजिस्ट्रेट शेख सलीमुद्दीन इंजीनियर बाबू के पड़ोस में रहते थे। उनके चौकीदार मियाँ रमजान और रसीला में बहुत मैत्री थी। दोनों घंटों साथ बैठते, बातें करते। शेख साहब फलों के शौकीन थे, रमजान रसीला को फल देता। इंजीनियर साहब को मिठाई का शौक था, रसीला रमजान को मिठाई देता।

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एक दिन रमजान ने रसीला को उदास देखकर कारण पूछा। पहले तो रसीला छिपाता रहा। फिर रमजान ने कहा, “कोई बात नहीं है, तो खाओ सौगंध।”

रसीला ने रमजान का हठ देखा, तो आँखें भर आई। बोला, “घर से खत आया है, बच्चे बीमार हैं और रुपया नहीं है।”

“तो मालिक से पेशगी मांग लो।”

“कहते हैं, एक पैसा भी न दूंगा।”

रमजान ने ठंडी साँस भरी। उसने रसीला को ठहरने का संकेत किया और आप कोठरी में चला गया। थोड़ी देर बाद उसने कुछ रुपए रसीला की हथेली पर रख दिए। रसीला के मुँह से एक शब्द भी न निकला। सोचने लगा – “बाबू साहब की मैंने इतनी सेवा की, पर दु:ख में उन्होंने साथ न दिया। रमजान को देखो, गरीब है, परंतु आदमी नहीं, देवता है। ईश्वर उसका भला करे।”

रसीला के बच्चे स्वस्थ हो गए। उसने रमजान का ऋण चुका दिया। केवल आठ आने बाकी रह गए। रमजान ने कभी भी पैसे न मांगे, फिर भी रसीला उसके आगे आँख न उठा पाता।

एक दिन की बात है। बाबू जगतसिंह किसी से कमरे में बात कर रहे थे। रसीला ने सुना, इंजीनियर बाबू कह रहे हैं, “बस पाँच सौ! इतनी-सी रकम देकर आप मेरा अपमान कर रहे हैं।

“हुजूर मान जाइए। आप समझें, आपने मेरा काम मुफ्त किया है।”

रसीला समझ गया कि भीतर रिश्वत ली जा रही है। सोचने लगा, “रुपया कमाने का यह कितना आसान तरीका है। मैं सारा दिन मजदूरी करता हूँ, तब महीने भर बाद दस रुपए हाथ आते हैं। वह बाहर आया और रमजान को सारी बात सुना दी। 

रमजान बोला, “बस इतनी-सी बात। हमारे शेख साहब तो उनके भी गुरु है। आज भी एक शिकार फंसा है। हजार से कम तय न होगा। भैया, गुनाह का फल मिलेगा या नहीं, यह तो भगवान जाने, पर ऐसी ही कमाई से कोठियों में रहते हैं, और एक हम हैं कि परिश्रम करने पर भी हाथ में कुछ नहीं रहता।

रसीला सोचता रहा। मेरे हाथ से सैंकड़ों रुपए निकल गए, पर धर्म न बिगड़ा। एक-एक आना भी उड़ाता, तो काफी रकम जुड़ जाती। इतने में इंजीनियर साहब ने उसे आवाज लगाई, “रसीला! दौड़कर पांच रुपए की मिठाई ले आ।”

रसीला ने साढ़े चार रुपए की मिठाई खरीदी और रमजान को अठन्नी लौटाकर समझा कि कर्ज उतर गया।

बाबू जगतसिंह ने मिठाई देखी, तो चौंक उठे, “यह मिठाई पाँच रुपए की है।”

“हुजूर पाँच की ही है।”

रसीला का रंग उड़ गया। बाबू जगतसिंह समझ गए। उन्होंने रसीला से फिर पूछा, रसीला ने फिर वही दोहराया। उन्होंने रसीला के मुँह पर एक तमाचा मारा और कहा, “चल मेरे साथ जहाँ से लाया है।”

“हुजूर, झूठ कहूं तो…..” रसीला ने अभी अपनी बात पूरी भी न की थी कि इंजीनियर बाबू चिल्लाए, “अभी सच और झूठ का पता चल जाएगा। अब सारी बात हलवाई के सामने ही कहना।”

अब कोई रास्ता न बचा था। रसीला बोला, “माई बाप, गलती हो गई। इस बार माफ कर दें।”

इंजीनियर साहब की आँखों से आग बरसने लगा। उन्होंने निर्दयता से रसीला को खूब पीटा, फिर घसीटते हुए पुलिस थाने ले गए। सिपाही के हाथ में पाँच का नोट रखते हुए बोले, “मनवा लेना। लातों के भूत बातों से नहीं मानते।”

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दूसरे दिन मुकदमा शेख सलीमुद्दीन की कचहरी में पेश हुआ। रसीला ने तुरंत अपना अपराध स्वीकार कर लिया। उसने कोई कहानी न बनाई। चाहता तो कह सकता कि यह साजिश है। मैं नौकरी नहीं करना चाहता, इसीलिए हलवाई से मिलकर मुझे फंसा रहे हैं। पर एक और अपराध करने का साहस वह न जुटा पाया। उसकी आँखें खुल गई थी। हाथ जोड़कर बोला, “हुजूर, मेरा पहला अपराध है। इस बार माफ़ कर दीजिए। फिर गलती न होगी।”

शेख साहब न्यायप्रिय आदमी थे। उन्होंने रसीला को छह महीने की सजा सुना दी और रूमाल के मुँह पोंछा। यह वही रुमाल था, जिसमें एक दिन पहले किसी ने हजार रुपए बाँधकर दिए थे।

फैसला सुनकर रमजान की आँखों में खून उतर आया। सोचने लगा – “यह दुनिया न्याय नगरी नहीं, अंधेर नगरी है। चोरी पकड़ी गई, तो अपराध हो गया। असली अपराधी बड़ी-बड़ी कोठियों में बैठकर दोनों हाथों से धन बटोर रहे हैं। उन्हें कोई नहीं पकड़ता।”

रमजान घर पहुंचा। एक दासी ने पूछा, “रसीला का क्या हुआ?”

“छह महीने की कैद।”

“अच्छा हुआ। वह इसी लायक था।”

रमजान ने गुस्से से कहा, “यह इंसाफ नहीं अंधेर है। सिर्फ एक अठन्नी की ही तो बात थी।”

रात के समय जब हजार, पाँच सौ के चोर नरम गद्दों पर मीठी नींद से रहे थे, अठन्नी का चोर जेल की तंग, अंधेरी कोठरी में पछता रहा था।

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