अनाथ बालिका ~ पंडित ज्वालादत्त शर्मा की कहानी

प्रस्तुत है – “अनाथ बालिका पंडित ज्वाला दत्त शर्मा की कहानी” (Anath Balika Story By Pandit Jwaladutt Sharma). डॉक्टर साहब पण्डित राजनाथ ने एक अनाथ बालिका का पालन पोषण किया. उस बालिका की माँ ने मृत्यु पूर्व डॉक्टर साहब को कुछ पत्र दिए. क्या लिखा था उन पत्रों में? क्या था उस अंत बालिका का अतीत और रहस्य? जानने के लिए पढ़िए : 

Anath Balika Story By Pandit Jwaladutt Sharma 

Anath Balika Story By Pandit Jwaladutt Sharma 

(१)

पण्डित राजनाथ, एम.डी. का व्यवसाय साधारण नहीं है। शहर के छोटे-बड़े-अमीर-ग़रीब सभी उनको अपनी बीमारी में बुलाते हैं। इसके कई कारण हैं। एक तो आप साधु पुरुष हैं; दूसरे बड़े स्पष्ट वक्ता हैं; तीसरे सदाचार की मूर्ति हैं। चालीस वर्ष की अवस्था हो जाने पर भी आपने अपना विवाह नहीं किया। ईश्वर की कृपा से आपके पास रुपये और मान की कमी नहीं। अतुल धन और अमिट सम्मान के अधिकारी होने पर भी आप बड़े जितेन्द्रिय, निरभिमान और सदाचारी हैं। गोरखपुर में आपको डाक्टरी शुरू किये सिर्फ सात ही वर्ष हुए हैं; पर शहर के छोटे-बड़े सबकी ज़बान पर राजा-बाबू का नाम इस तरह चढ़ गया है; मानों वे जन्म से ही वहाँ के निवासी हैं। आपका कद ऊँचा, शरीर छरेरा और चेहरा कांति-पूर्ण गोरा है। मरीज़ से बात-चीत करते ही उसकी तकलीफ़ आप कम कर देते हैं। इस कारण साधारण लोग आपको जादूगर तक समझते हैं। आपके परिवार में सिर्फ वृद्धा माता हैं। एक भानजे का भरण-पोपण भी आप ही करते हैं। भानजा सतीश कालेज में पढ़ता है।

डाक्टर राजा-बाबू ने अनेक मरीजों से फ़ारिग होकर आज का दैनिक उठाया ही था कि उनके सामने एक ११-१२ वर्ष की निरीह बालिका, आँखों में आँसू भरे हुए आ खड़ी हुई। डाक्टर साहब समझ गये कि इस बालिका पर कोई भारी विपत्ति आई है। उन्होंने दैनिक को मेज़ पर रखकर बड़े स्नेह के साथ उससे पूछा–

“बेटी, क्यों रोती हो?”

“डाक्टर साहब कहाँ हैं? मैं उनके पास आई हूँ। मेरी माँ का बुरा हाल है।”

“मैं ही डाक्टर हूँ। तुम्हारी माँ को क्या शिकायत है?”

“डाक्टर साहब, मेरी माँ को बड़े ज़ोर का बुखार चढ़ा है। तीन दिन से वह बेहोश थी। आज कुछ होश हुआ है, तो आपको बुलाने के लिये भेजा है। हमारा घर बहुत दूर नहीं है। आप चलकर देख लीजिये।”

“मैं अभी चलता हूँ। तुम घबराओ मत। ईश्वर तुम्हारी माँ को निरोग कर देगा।”

डाक्टर साहब अपना हैंड-बैग उठाकर लड़की के साथ पैदल ही चल दिये। लड़की के मना करने पर भी उन्होंने नहीं माना और कहा–तुम्हारा मक़ान बहुत क़रीब है। मैं भी प्रातःकाल से गाड़ी में बैठे-बैठे थक-सा गया हूँ; इसलिये थोड़ी दूर पैदल चलने को तबीयत चाहती है।

डाक्टर साहब पेंचदार गलियों से निकलते हुए एक बहुत छोटे मकान में दाखिल हुए। मकान की अवस्था देखते ही डाक्टर साहब ने समझ लिया कि इसमें रहने वालों पर चिरकाल से लक्ष्मीजी का कोप मालूम होता है। उन्होंने मकान के भीतर जाकर देखा कि एक छप्पर के नीचे चारपाई पर लड़की की माँ लिहाफ़ ओढ़े लेटी हुई है। आँगन में नीम का एक पेड़ है। उसके पत्तों से आँगन भर रहा है। मालूम होता है कि कई दिनों से घर में झाडू तक नहीं लगाई गई। लडकी ने अपनी माँ की चारपाई के पास पहले से ही एक मूंढ़ा बिछा रखा था; क्योंकि उसने अपनी माँ से सुना था कि कोई भी ग़रीब आदमी डाक्टर साहब के घर से निराश नहीं लौटाया जाता। डाक्टर साहब मूंढ़े पर बैठ गये। लड़की ने माँ के कान में ज़ोर से आवाज दी कि डाक्टर साहब आ गये। माँ ने मुँह पर से लिहाफ़ उठाया। यद्यपि बीमारी की तकलीफ के कारण उसके चेहरे पर उदासी छाई थी, तथापि उस उदासी के अंदर से भी डाक्टर साहब ने उसके हृदय की पवित्रता और मानसिक दृढ़ता की निर्मल किरणों को छनते हुए देखा। उन्होंने यह भी जान लिया कि भगवान अदृष्ट के कोप से यद्यपि यह रोगिणी इस छोटे से मकान में टूटे-फूटे सामान के साथ रहने को विवश कर दी गई है; किंतु एक दिन यह ज़रूर अच्छे घर और बड़े सामान के साथ किसी सुयोग्य पति के हृदय की अधिकारिणी रही होगी। रोगिणी की अवस्था ४० वर्ष के ऊपर थी। रोग और ग़रीबी ने मिलकर उसके मुख-कमल को मलिन करने में कोई कसर न छोड़ी थी; परन्तु उसके चेहरे पर जिस स्वर्गीय शांति का आधिपत्य था, उसे विपत्ति नहीं हटा सकी थी। रोगिणी के शांति-पूर्ण चेहरे को देखते ही डाक्टर के हृदय में उसके विषय में बड़ी श्रद्धा उत्पन्न हो गई। उन्होंने अपने स्वभाव-सिद्ध मीठे स्वर से पूछा – “माँजी, आपको क्या तकलीफ है? धीरे-धीरे अपनी तबीयत का हाल कह सुनाइए।”

रोगिणी ने कराहते हुए कहा – “राजा-बाबू तुम दीनबंधु हो ; इसलिए ईश्वर-वत पूज्य हो। मैं आपसे लज्जा छोड़ कर कुछ कहना चाहती हूँ। आशा है, इसके लिए तुम मुझको क्षमा करोगे। संसार में मैंने किसी का एहसान नहीं उठाया; पर मरते समय तुम्हारे एहसान के नीच़े मुझे दबना पड़ा। इसलिए ईश्वर तुम्हारा……………” यह कहते-कहते रोगिणी के नेत्रों में आँसू भर आये।

राजा-बाबू ने बड़ी नम्रता से कहा – “माँजी, आप तबीयत को भारी न कीजिए। मैं आपकी सेवा के लिए तैयार हूँ। आप नि:संकोच आज्ञा कीजिये; पर पहले रोग का हाल तो कहिए।”

“डाक्टर साहब, रोग का हाल कुछ नहीं। समय पूरा हो गया है। अब मैं आपसे जो कुछ कहना चाहती हूँ, उसे सुन लीजिए। सरला–जो आपके पीछे खड़ी हुई है-मेरी एकमात्र कन्या है। यह अब अनाथ होती है। इसको मैं आपके सुपुर्द करती हूँ। इसका विवाह मैं न कर सकी; इसीलिए मुझे आपसे इतनी बड़ी भिक्षा मांगनी पड़ी। यह घर के काम-काज में होशियार है। जो कुछ मैं जानती थी और बता सकती थी, उसकी शिक्षा मैंने इसको दे दी है। यह आपकी सेवा करेगी। मुझे पूर्ण आशा है कि यह आपकी प्रसन्न रखेगी। समय आने पर आप इसका किसी पढ़े-लिखे ब्राह्मण-वर के साथ विवाह कर दें। बस मेरी यही प्रार्थना है। और हाँ! यह एक पैकट है, जिसमें दो लिफाफे हैं। इनको आप मेरी मृत्यु के एक वर्ष बाद जब चाहें पढ़ें। उनमें मेरा परिचय है—जिसको बताने की और आपको जानने की इस समय जरूरत नहीं। दूसरों का उपकार करने वाले सदा संकट में ही रहते हैं। आप भी परोपकाररत हैं; इसलिए आपको भी बे-वास्ते इन संकटों में पड़ना पड़ा।”

इस प्रकार कहते-कहते उसका गला भर आया।

राजा-बाबू ने उत्तर दिया – “माँजी, मैं आपकी आज्ञा को सहर्ष स्वीकार करता हूँ। मैं आपकी कन्या को संतान-वत रखूंगा । मेरे घर में कोई बालक नहीं। माताजी सरला को पाकर यथार्थ में बहुत प्रसन्न होंगी। समय आने पर मैं इसका विवाह भी कर दूंगा; पर आप इतना निराश क्यों होती हैं। मुझे आशा है, आप अच्छी हो जायेंगी।”

इसके बाद डाक्टर साहब ने रोगिणी की नब्ज़ आदि देखी। देखने से डाक्टर साहब को मालूम हो गया कि रोगिणी का रोग-विषयक बयान बहुत कुछ ठीक है।

उसी दिन शाम को रोगिणी इस संसार से चल बसी।

(२)

विस्मृति भी बड़े काम की चीज़ है। यह न होती, तो मनुष्य का जीवन बहुत बुरा हो जाता। जन्म से लेकर आज तक हमको जिन-जिन दुःखों, क्लेशों और संकटों का सामना करना पड़ा है,वे सब-के-सब यदि हर समय हमारी आँखों के सामने खड़े रहते,तो हमारा जीवन भयानक हो जाता। अकेली विस्मृति ही उनसे हमारी रक्षा करती है।

सरला ने मातृ-वियोग को सह लिया। माता की याद धीरे-धीरे विस्मृति के गर्भ में छिपने लगी। अब उसकी जीवन-पुस्तक का एक नया, पर चमचमाता हुआ पृष्ठ खुला। छोटे-से झोंपड़े से निकलकर अब उसने महल को मात करने वाले डाक्टर राजा-बाबू के मकान में प्रवेश किया। माता की छत्रछाया उठ गई,डाक्टर की वृद्धा माता की गोद का आश्रय मिला; पर उसमें भी उसने वही स्नेह-रस-परिप्लुत अभय दान पाया।

सरला ने पहले तो कुछ संकोच अनुभव किया; पर अन्नपूर्णा की ममता-पूर्ण और डाक्टर साहब की स्नेह-भरी बातों ने उसको बता दिया कि वह मानो अपने ही घर में है। डाक्टर साहब ने सरला की शिक्षा का भी समुचित प्रबंध कर दिया। पुत्र के लिए स्वयं ही भोजन तैयार करती; पर सरला फिर भी उनको कुछ कम सहायता न देती । सरला को धीरे-धीरे पाक-शास्त्र की शिक्षा मिलने लगी। वृद्धा अन्नपूर्णा के निरीक्षण में निरामिषभोजी डाक्टर साहब के लिए विविध प्रकार के शाक, खीर, हलुआ आदि अनेक सु-स्वादु और पौष्टिक पदार्थ वह बनाने लगी। प्रातःकाल होते ही अन्नपूर्णा की पूजा का सामान भी वह ठीक कर देती। घर के बग़ीचे से फूल लाकर सजा देती और चंदन आदि सामग्री यथा-स्थान रख देती। अपनी सेवा और सु-स्वभाव से – मतलब यह कि – सरला ने डाक्टर साहब और उनकी वृद्धा माता के हृदय में संतान से बढ़कर स्नेह पैदा कर लिया।

बड़े दिन की छुट्टियों में सतीश घर आया। उसने देखा कि घर में एक देवी-स्वरूपिणी कन्या रहती है। उसके आलोक से उसने मानों सारा मकान आलोकित पाया। मामा से पूछने पर उसको मालूम हुआ कि वह भी उनकी एक आत्मीया है और कुछ दिनों तक उनके यहाँ रहने के लिए चली आई है। दो-चार दिन तक सतीश को उसके साथ बात-चीत करने में संकोच-सा मालूम हुआ। उधर सलज्जा सरला भी एक नये आदमो के साथ बातचीत करने में झिझकती रही; पर कुछ ही दिनों में दोनों की तबीअतें खुल गई। फिर तो वे आपस में खूब आलाप करने लगे। सतीश ने सरला से कभी उसका परिचय न पूछा; क्योंकि वह मामाजी की बात को वेद भगवान की बात समझता था। न सरला ने ही अपना प्रकृत परिचय देने की आवश्यकता समझी। इसमें संदेह नहीं कि सरला की योग्यता, गृहकार्य-कुशलता और उसके पवित्रता-पूर्ण आचरण पर सतीश मन से मुग्ध हो गया। सरला भी सतीश के कामों का बड़ा ध्यान रखती। सतीश प्रायः देखता कि उसके कपड़े तह किये हुए यथा-स्थान रखे हैं, वह अपने पढ़ने की पुस्तकें भी-जिनको वह इधर-उधर बिखरी और खुली हुई छोड़ गया था-बंद की हुई और चुनी हुई पाता। छुट्टियों के अत्यल्प काल में ही सरला ने उसके हृदय में स्थान कर लिया। उसको न-मालूम क्यों हर समय सरला का ध्यान रहने लगा। वह अपने मन से भी इसका कारण कई दफे पूछकर कुछ उत्तर न पा सका था। परन्तु वह जाने या न जाने-और जानने की जरूरत भी नहीं—प्रेमदेव की पवित्र किरणों से उसका हृदयाकाश अवश्य ही आलोकित रहने लगा। वह कभी सरला को पढ़ाता-बीसियों नई-नई बातें बताता-और कभी घण्टों खाली इधर-उधर की बातें ही करता। मतलब यह कि इन दोनों की मैत्री दिन-पर-दिन मजबूत होने लगी। छुट्टियाँ समाप्त होने पर जब सतीश कालेज को जाने लगा, तब उसे मकान छोड़ने में बड़ा मीठा दर्द-रूप मोह मालूम हुआ; पर वह तत्काल संभल गया और हमेशा की तरह मामाजी और वृद्धा के चरण छूकर सरला से आँखों-ही-आँखों उसने बिदा ली।

( ३ )

सतीश सेन्ट्रल हिन्दू-कालेज में पढ़ता है। इस वर्ष वह एम० ए० की अंतिम परीक्षा देगा। सतीश बड़ा धार्मिक है। वैसे तो हर लड़के को, जो हिन्दू-कालेज के बोर्डिंग हाउस मे रहता है, स्नान-ध्याय और धार्मिक कृत्य संपादन करने पड़ते हैं; किन्तु सतीश ने अपनी बाल्यावस्था के कुल वर्ष अपने मामा डाक्टर राजा-बाबू के साथ काटे हैं। इसलिए नित्य प्रातःकाल उठना, सन्ध्योपासन करना और परोपकार के लिए दत्त-चित्त रहना उसका स्वभाव-सा हो गया है। सतीश छः वर्ष से इसी कालेज में पढ़ रहा है और हर वर्ष परीक्षा में बड़ी नामवरी के साथ पास हो रहा है। सतीश अपने दैवी गुणों के लिए सब लड़कों में प्रसिद्ध है। हर एक लड़का, किसी-न-किसी रूप में, उसकी कृपा का पात्र बना है। अनेक कमज़ोर (शरीर में नहीं पढ़ाई में) लड़कों ने उससे पढ़ा है; अनेक गरीब विद्यार्थियों की उसने आर्थिक सहायता की है। किसी लड़के के रोग-ग्रस्त होने पर सहोदरवत् उसने उसकी सुश्रुषा भी की है। इसलिए कालेज का हर लड़का उसको बड़ी पूज्य-दृष्टि से देखता है। सतीश के पास वाले कमरे में रामसुंदर-नामक एक लड़का रहता है। वह दो वर्ष से इस कालेज में पढ़ता है। पर है सतीश का सहाध्यायी ही। यह लड़का घर का मालदार होते हुए भी विद्या का बड़ा प्रेमी है। इसके पिता का हाल में स्वर्गवास हो गया है और यह बहुत बड़ी संपत्ति का मालिक हुआ है। पर फिर भी इसने पढ़ना नहीं छोड़ा। सतीश के साथ इसकी बड़ी घनिष्ठता है । सतीश और राम सुंदर की प्रकृति अनेक अंशों में एक-सी है। इसीलिये इन दोनों में खूब मित्रता है। सतीश और रामसुंदर छुट्टी के समय प्रायः एक ही साथ रहते हैं।

सतीश और रामसुंदर एक नाव पर बैठे हुए हैं। नाव पुण्यतोया भागीरथी में धीरे-धीरे वह रही है। ग्रीष्म ऋतु की संध्या है। बड़ा लुभावना दृश्य हैं। तारों का बिम्ब गंगाजल में पड़कर अजीब बहार दिखा रहा है। सच तो यह है कि इस “शाम” के सामने “शामे लखनऊ” कुछ भी चीज नहीं। नाववाला बड़े मीठे स्वर में कोई गीत गा रहा है। उसकी आवाज गंगा के तट के अट्टालिका-सम ऊँचे स्थानों से टकराकर मानों कई गुनी होकर वापिस आ रही है। ये दोनों मित्र आपस में खूब घुल-घुलकर बातें कर रहे हैं। अंत में सतीश ने कहा- “मित्र, तुम्हारा हृदय बहुत विशाल है। इस बात को मैं स्वीकार करता हूँ। जहाँ तक मेरी शक्ति है, मैं तुमको इस पुण्यकार्य में सहायता दूंगा। तीन मास बाद कालेज बंद होगा। उस समय तीन मास से अधिक का अवकाश मिलेगा। उसमें मैं तुम्हारे साथ रहूंगा। जहाँ तुम चलोगे, मैं चलूंगा। जहाँ तक पता चलेगा, मैं तुम्हारे मनोरथ के साफल्य के लिये प्रयत्न करूंगा। इस समय इस काम को ईश्वर के ऊपर छोड़ो।

परीक्षा के दिन बहुत कम रह गये हैं। इसलिए सब ओर से मन हटाकर इसी ओर लगाना चाहिए। परीक्षा से निवृत्त होकर अपनी सब शक्तियाँ उधर लगावेंगे। मैं तुम्हारा साथ दूंगा।”

रामसुंदर-भाई सतीश, मुझे तुम्हारा बहुत भरोसा है। पूर्ण आशा है कि यदि तुम-जैसे परोपकार-व्रती और देवोपम मित्र ने प्रयत्न किया, तो मेरा यह कार्य-जिसके कारण मेरी निद्रा और मेरी, भूख, दोनों नष्ट हो गई हैं-जरूर सिद्ध हो जायेगा। मित्र, तुलसीदासजी ने ठीक ही कहा है-

‘यद्यपि जग दारुण दुख नाना।

सबतें कठिन जाति-अपमाना।’

नाव धीरे-धीरे किनारे पर आ लगी और ये दोनों नवयुवक उससे उतर कर कालेज की ओर चल दिये।

( ४ )

सरला को माता को मरे दो वर्ष बीत गये। सरला निश्चिन्तता-पूर्वक डाक्टर-बाबू के यहाँ रहती है। उसको अपनी माता की याद आती है जरूर; पर डाक्टर और उसकी वृद्धा माता के सद्व्यवहार से उसको कोई कष्ट नहीं । बल्कि, यह कहना चाहिए कि कोई ऐसा सुख नहीं, जो उसको प्राप्त न हो। राजा-बाबू उसको अपनी ही पुत्री समझते हैं। उसने भी अपने गुणों से उसको खूब प्रसन्न कर रक्खा है।

राजा-बाबू ने दो वर्ष बाद उस लिफ़ाफे को खोला, जिसको पढ़ने की आज्ञा सरला की माता, मरते समय दे गई थी।

उसमें दो लिफ़ाफे थे। जिस पर नंबर एक पड़ा था, उसको खोलकर डाक्टर साहब पढ़ने लगे। उसमें लिखा था-

“आप मेरे परम हितैषी हैं। जो ऐसा न होता, तो यह लिफ़ाफा आप न पढ़ते। अब तक यह कब का अग्निदेव के सुपुर्द हो चुका होता। आप मेरी कन्या के संरक्षक हैं। इस कारण मैं आपसे नीचे लिखा वृत्तांत कहती हूँ! सुनिये-

“मेरे पति दो भाई थे। पति की मृत्यु के बाद मेरे जेठ ने मुझसे अच्छा व्यवहार न किया। उन्होंने एक दिन क्रोध-वश मुझे मकान से निकल जाने तक की आज्ञा दे दी। मेरे पति ने मरते समय बिना विचार किये ही अपने भाई की आज्ञा का पालन करने का आदेश मुझे दिया था; इसलिए स्वर्ग-गत पतिदेव की आज्ञा का स्मरण करके मुझे अपने जेठ की अत्यंत अनुचित और अकारण दी हुई आज्ञा को शिरोधार्य करना पड़ा। मैं अपनी एक मात्र कन्या को लेकर घर से निकल चली। ओफ़! कैसी भीषण रात्रि थी। उस समय के दुःख का हाल किसी भले और सामान्य घर की स्त्री के मन से ही पूछना चाहिये। मेरे शरीर पर कुछ आभूषण थे। उन्हीं के सहारे मैं कई सौ मील की यात्रा करके यहाँ आई और एक साधारण-सा मकान लेकर रहने लगी। मैंने जीवनभर प्रतिष्ठा के साथ अपना और अपनी प्यारी बेटी का पेट पाला। मैंने ‘आन को रखा जान गंवा कर’ बस मेरा यही रहस्य है। अब यदि आप मेरा पूरा परिचय प्राप्त करना चाहें, तो दूसरे लिफाफे को खोलिए। उसमें आपको मेरे जेठ का लिखा हुआ एक रजिस्टर्ड इक़रारनामा मिलेगा। उसमें उन्होंने मेरे पति की संपत्ति को मेरी संपत्ति से अलग, अर्थात विभक्त बताया है। उसमें मेरे पतिदेव का पूरा पता भी प्रसंगवश आ गया है। उसको आप साधारण कागज़ न समझिये। उसके द्वारा मेरी एकमात्र कन्या सरला-ईश्वर उसे सानन्द रखे-एक दिन लाख रुपये से अधिक मूल्यवाली संपत्ति की अधिकारिणी बन सकती है। पर मैं नहीं चाहती कि उसका प्रयोग किया जाये। मुझे पूर्ण आशा है कि मेरी सरला अपने गुणों के कारण ही बहुत बड़ा संपत्ति की अधिकारिणी होगी।

अंत में, मैं आपको हृदय से आशीर्वाद देती हूँ कि ईश्वर आपका भला करें; क्योंकि आपने मेरा और मेरी कन्या का भला किया है।”

डाक्टर राजनाथ को पत्र पढ़कर बड़ा आश्चर्य हुआ। वे बहुत देर तक ईश्वरीय माया और मरने वाली सती की दृढ़ प्रतिज्ञा पर विचार करते रहे। उन्होंने दूसरा लिफ़ाफा बिना पढ़े ही अपने बाक्स में बंद कर दिया।

( ५ )

जब डाक्टर राजनाथ ने सतीश के पत्र में यह पढ़ा कि वह परीक्षा देकर मकान पर न आवेगा, तब उनको बड़ी चिंता हुई। उसका विचार कुछ दिनों इधर-उधर घूमने का है। और खर्च के लिये पाँच सौ रुपये उससे मांगे हैं। राजनाथ ने पाँच सौ रुपये का नोट नीचे लिखी चिट्ठी के साथ उसके पास भेज दिया –

“प्रिय सतीश,

मुझे बड़ा विस्मय है कि तुम किधर जा रहे हो और क्यों? माताजी तुमको देखने के लिए बड़ी व्यग्र हैं; पर, मुझे भरोसा है कि तुम किसी अच्छे उद्देश्य से ही जा रहे हो। खर्च भेजता हूँ। यथा साध्य शीघ्र लौटना।

शुभानुध्यायी –

राजनाथ।”

पाँचवें छठे दिन इसका उत्तर आ गया। उसमें लिखा था—”पूज्य मामाजी, प्रणाम।

कृपापत्र और ५०० का नोट मिला। मेरे मित्र पण्डित रामसुंदर को आप जानते ही हैं। उनका एक बहुत ही आवश्यक कार्य है, जिसमें वे मेरी सहायता चाहते हैं। उस कार्य के लिए इधर-उधर घूमना पड़ेगा। मैं आपको पहले पत्र में ही वह कार्य बता देता, जिसके लिए यह तैयारी है; पर उसको गुप्त रखने के लिए उन्होंने ताकीद कर दी है। अब आप यदि आज्ञा दें, तो मैं उनके साथ चला जाऊं। आपके उत्तर की मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ।

सेवक—

सतीश।”

पत्र को पढ़कर राजा-बाबू कुछ देर तक सोचते रहे। फिर उन्होंने नीचे लिखा हुआ प्रत्युत्तर अपने भानजे को भेजा—

“प्रिय सतीश,

मैं बड़ी प्रसन्नता से तुमको अपने मित्र के कार्य में सहायता देने की आज्ञा देता हूँ। खर्च के लिए जिस क़दर रूपये की और ज़रूरत हो, नि:संकोच मंगा लेना। यात्रा से लौटते समय अपने मित्र को भी एक दिन के लिए इधर लाना। उनको बहुत दिनों से मैंने नहीं देखा। देखने को तबीअत चाहती है। आशा है,वे मेरी प्रार्थना स्वीकार करेंगे।

शुभैषी—

राजनाथ।”

राजा-बाबू ने पत्र समाप्त ही किया था कि सरला ने चाँदी की तश्तरी में कुछ तराशे हुए फल उनके सामने रख दिये। राजा-बाबू फल खाते-खाते सरला से इधर-उधर की बातें करने लगे।

(६)

गरमी की बड़ी छुट्टियों के ८-१० दिन ही बाक़ी हैं। सतीश ने अब की बार छुट्टी के तीनों महीने बाहर ही काटे। कल उसकी चिट्ठी आई कि वह आज रात को रामसुंदर-सहित मकान पहुँचेगा। उसका कमरा साफ किया गया है। वृद्धा माता भी आज बड़ी खुशी से भोजन बना रही हैं। सरला के मन की आज अद्भुत दशा है। कभी तो वह हर्ष के मारे उछलने लगता है और कभी किसी अज्ञात कारण से उसकी गति और भी कम पड़ जाती है। उसका मुख-सरोज घड़ी-घड़ी पर इन भावों के अस्तोदय के साथ खिलता और मुरझाता है। उसने यह भी सुना है कि सतीश के साथ उसके मित्र भी आवेंगे, जिनके काम में उसने अपनी सारी छुट्टियाँ खर्च की हैं। सरला मन-ही-मन सतीश के मित्र पर नाराज़ भी है; क्योंकि उसके कारण ही सतीश की छुट्टियों से वह फायदा नहीं उठा सकी।

सतीश रात के ९ बजे की ट्रेन से मकान पहुँच गया। राजा-बाबू उसकी प्रतीक्षा कर ही रहे थे। उन्होंने बड़े प्रेम से रामसुंदर को अपने पास बिठाया और बड़े आग्रह से पूछा-“मुझे आशा है, तुम अपनी चेष्टाओं में अवश्य सफल हुए होगे।” राम सुंदर ने निराशा-भरी आवाज में उत्तर दिया-“सफलता का कोई चिह्न नहीं मिला। भविष्य के लिए कोई आशा भी बाकी नहीं रही।” इस पर डाक्टर साहब ने उसे ढाढ़स देकर उसके चित्त-क्षोभ को बहुत कुछ कम कर दिया।

सतीश मामाजी के चरण छूकर अंदर गया। सरला को देखते ही उसका मुख-कमल खिल उठा। उसने देखा कि उसके काम की हर चीज़ ठीक रखी हुई है और बड़ी सावधानता से उसके आने की बाट देखी जा रही है। सरला ने मुस्कराकर; पर ताने के साथ, पूछा- “अबकी बार आपने कुल छुट्टियाँ बाहर ही बिता दीं?”

“मित्र के काम के लिए यह सब करना पड़ा, पर कोई फल न हुआ। इसके लिए मुझे भी दुःख है।”

“आपके मित्र का ऐसा क्या काम था, जिसके लिए तीन महीने इधर-उधर घूमना पड़ा और फिर भी वह न हो सका?”

“उस काम का जिक्र करने से भी, सरला, मुझे दुःख होता है। इसलिए, सुनकर तुम भी दुःखी हुए बिना न रह सकोगी। भोजन की बात तो कहो, क्या देर है? भूख लग रही है।”

“बिलकुल तैयार है। मैं जाकर नौकर से आसन बिछाने के लिए कहती हूँ। आप, मामाजी और अपने मित्र को साथ लेकर आइए।”

यह कहकर सरला बड़ी फुर्ती से चली गई। उसने बड़े क़रीने से भोजन चुनना शुरू किया। तीन थालों में भोजन चुना गया। जिन चीजों को गरम रखने की जरूरत थी, वे अभी तक गरम पानी में रखी हुई थीं; भोजन के साथ नहीं परोसी गई थीं। थोड़ी देर में डाक्टरसाहब, सतीश और राम सुंदर के साथ आ पहुँचे। भोजन शुरू हुआ, सरला ने बड़ी होशियारी से परोसना प्रारंभ किया। भोजन करते समय इधर-उधर की बातें होने लगीं-

“सतीश—’मामाजी, स्टेशनों पर बहुत बुरा भोजन मिलता है। भाई राम सुंदर, बलिया के स्टेशन की पूड़ियाँ याद हैं?”

राम सुंदर-“और लखनऊ के स्टेशन के ‘निखालिस दूध’ को तो कभी न भूलिएगा।”

सतीश-“पर तरकारी तो किसी भी स्टेशन की भूलने की नहीं।”

डा०सा-“ऐसे मौक़ों पर तो फल खा लेने चाहिए।”

सतीश-“मामाजी, बड़े स्टेशनों को छोड़कर और स्टेशनों पर फल नहीं मिलते।”

बातें भी जारी थीं। खाना भी जारी था। सरला का परोसना भी जारी था। राम सुंदर यद्यपि बातों में योग दे रहा था; पर उसका ध्यान सरला ही की ओर था। वह बार-बार उसी को देखता था। उसकी इस हरकत से सतीश को थोड़ी-सी भीतर जलन पैदा हुई। मानिनी सरला ने भी मन में कुछ बुरा माना। भोजन समोन्न हुआ। रामसुंदर और सतीश ने एक कण्ठ से कहा-“तीन महीने में आज ही तृप्त होकर भोजन किया है।”

चलते समय राम सुंदर ने मुड़कर एक बार फिर सरला को देखा। अब की बार तो सतीश जल ही गया। दोनों मित्र बाहर आये। सतीश को गुस्सा आ ही रहा था कि रामसुंदर को इस बेहूदा हरकत पर उसको लानत-मलामत दे कि इतने ही में उसने पृछा-

“भाई, यह लड़की कौन है? जब मैं पहले तुम्हारे यहाँ आया था, तब तो यहाँ यह न थी।”

मानो सतीश की प्रदीप्त क्रोधाग्नि पर मिट्टी का तेल पड़ा। उसने बड़ी घृणा के साथ कहा-

‘रामसुंदर, तुम बड़े नीच हो। जब तक खाते रहे, तब तक उसकी ओर घूरते रहे। जब खाकर बाहर आये, तब फिर- फिरकर उसकी ओर देखा किये। अब तुम्हारी नीचता इतनी बढ़ गई कि मुझसे भी उसी प्रकार के प्रश्न करने लगे। मुझे तुम्हारी नैतिक अवस्था पर बड़ा दुःख है।’

सतीश की यह बकवास सुनकर रामसुंदर को ज़रा भी क्रोध न आया। उसने बड़े विनीत भाव से कहा-

“भाई साहब, आप क्या कह रहे हैं? जो कुछ आपने मेरे आचरण के विषय में कहा, ठीक है ; पर यह आचरण किस दृष्टि से देखना चाहिये, इस पर आप ने विचार नहीं किया। मैं समझता हूँ कि हमारा सैकड़ों मील इधर-उधर घूमना बेकार हुआ। जिसकी हमको तलाश थी, वह हमारे ही घर में मौजूद है। मैं सच कहता हूँ कि कई बार मेरे जी में आया कि अपनी नन्हीं को हृदय से लगा लूं। आप मामाजी से इसके विषय में पूछिये तो, मेरा हृदय कूद रहा है। कार्य सिद्ध हो गया ।”

बड़े ही विस्मय और सलज्जता के साथ सतीश ने पूछा- “राम सुंदर क्या सच कहते हो, यही तुम्हारी बहिन-नन्हीं है?”

“मेरी अवस्था आठ वर्ष की थी, जब प्यारी नन्हीं हमसे जुदा हुई थी। मुझे अब तक उसका चेहरा खूब याद है। वह हंसता हुआ स्वर्गीय कांति-पूर्ण चेहरा आज भी मेरी आँखों के सामने फिर रहा है। सरला से उसका चेहरा बहुत मिलता है। मुझे खूब याद है, उसके गाल पर दो छोटे -छोटे स्याह तिल थे। सरला के चेहरे पर भी वैसे ही हैं। चलिए, मामाजी से इसके विषय में पूछ -ताछ करें।”

दोनों मित्र तत्काल डाक्टर साहब के कमरे में आये। डाक्टर साहब आराम-कुर्सी पर लेटे कोई व्यवसाय सम्बन्धी पुस्तक पढ़ना ही चाहते थे कि ये दोनों वहां पहुंच गये। उन्होंने कहा-

“सतीश, अब आराम करो। बहुत थके हो।”

सतीश ने धीरे से कहा-“मामाजी, रामसुंदर सरला के विषय में आपसे कुछ पूछना चाहते हैं।”

डाक्टर साहब ने भाव-पूर्ण दृष्टि से रामसुंदर को देखा, जिसका चेहरा हर्ष और विस्मय के मिले हुए भाव से एक विशेष प्रकार का आकार धारण कर रहा था।

डाक्टर साहब ने कहा – “सरला के विषय में आप क्या और क्यों पूछना चाहते हैं?”

रामसुन्दर बड़े विनीत भाव से बोला – “मामाजी! आज मैं अपने घर का एक रहस्य सुनाता हूँ। उसी के विषय में मैं और भाई सतीश, इधर-उधर सैकड़ों मील घूमा किये। मगर सफलता तो क्या, उसके चिह्न तक भी नहीं मिले। अब मैं उस रहस्य को सुनाता हूँ। मेरे पिता दो भाई थे-रामप्रसाद और शिवप्रसाद। रामप्रसादजी मेरे पिता थे। शिवप्रसादजी के एक कन्या थी, जिसको घर के लोग स्नेह-वश नन्हीं कहा करते थे। वह मुझसे छः वर्ष छोटी थी। मेरे चाचा-नन्हीं के पिता का-देहांत मेरे पिता के सामने ही हो गया था। मेरी चाचीजी का स्वभाव बड़ा उग्र था। वे अपनी आन की बड़ी पक्की थी। एक दिन मेरे पिता ने किसी घरेलू बात पर गुस्सा होकर उनसे घर से निकल जाने की बहुत ही बुरी बात कह दी। उसके लिए उनको सदा पश्चात्ताप रहा और इस बड़े भारी कलंक को साथ लिये ही उन्होंने इह-लोक परित्याग किया। मेरी चाची ने उसी रात को घर छोड़ दिया। नन्हीं को भी वे साथ लेगई। मेरे पिता ने बहुत तलाश की; पर पता न लगा। मरते समय उन्होंने मुझको अंतिम वसीअत के तौर पर यही कहा कि ‘जिस तरह हो, अपनी चाची और बहिन का पता लगाना। यदि पता लग जाये, तो उनकी संपत्ति मय उस दिन तक के सूद के उनको दे देना। इस तरह मेरी आत्मा के कलंक को धोने की चेष्टा करना। मेरा गया-श्राद्ध इसे ही समझना। यदि पता न लगे, तो तू भी विवाह मत करना। अपने शरीर के साथ ही वंश की समाप्ति कर देना; क्योंकि इस कलंक के साथ वंश-वृद्धि करना मानो कलंक ज़िंदा रखना है। बेटा, वंश-नाश ही इस पाप का एक छोटा-सा; पर भयानक प्रायश्चित्त है। आशा है, तुम इस प्रायश्चित्त-द्वारा, मेरे कारण अपने वंश पर लगे इस कलंक से उसको मुक्त करने का ज़रूरत हुई तो-सुप्रयत्न करोगे।” यह कहते-कहते मेरे पिता के प्राण-पखेरू उड़ गये। उनकी मृत्यु के बाद से ही मैं व्यग्र था कि इस विषय में क्या करूं। भाई सतीश-चंद्र से मैंने अपना रहस्य खोलकर कह दिया था और इन्होंने सदा की तरह मेरे इस दुःख में भी भाग लेना स्वीकार कर लिया था। अब, जैसा कि आपको मालूम है, हम लोग सैकड़ों मील का चक्कर और न-मालूम किन-किन मुसीबतों को झेलकर वापिस आ गये और कार्य-सिद्धि न हुई। पर, यहाँ आकर-यहाँ सरला को देखकर-मेरी अंतरात्मा बार-बार यह कह रही है, कि यही मेरी बहन नन्हीं है। अब आप कृपा करके यह बतलाइए कि सरला के विषय में मेरी जो यह धारणा है, उसको आप अमूलक तो नहीं समझते?’

डाक्टर साहब ने बड़ी शांति से उत्तर दिया –

“राम सुंदर, मैं इसके उत्तर में स्वयं कुछ न कहकर तुमको वे पत्र दिये देता हूँ, जो सरला की माता ने मरते समय सरला के साथ ही मुझे सुपुर्द किये थे। मुझे प्रतीत होता है कि तुम अपनी चेष्टाओं में सफल हुआ चाहते हो।”

डाक्टर साहब ने बाक्स खोलकर वे दोनों लिफाफे राम सुंदर के हाथ में दे दिये, जो सरला की माता ने उनको दिये थे। राम सुंदर ने दोनों लिफाफों को खोलकर पढ़ा। उनको पढ़ते ही उनको निश्चय हो गया कि उसकी चाची का ही यह पत्र है और उसके पिता का ही वह इक़रार-नामा है। सरला भी प्यारी नन्हीं के सिवा और कोई नहीं। राम सुंदर डाक्टर-बाबू के चरणों पर गिर पड़ा और सतीश, जो इस अभिनय को देखकर आश्चर्य में डूब रहा था, उठकर बाहर चला गया। डाक्टर बाबू ने सरला को बुलाया। वह तुरंत आकर उपस्थित हो गई। राम सुंदर भावावेश को न रोक सका और सरला को हृदय से लगाकर अश्रुवर्षन करने लगा। यदि डाक्टर-बाबू सरला से यह न कहते, तो वह अपने को बड़ी विपत्ति में समझती –

“बेटी, ये तुम्हारे भाई राम सुंदर हैं। तुम्हारी तलाश में बहुत दूर तक घूम आये हैं। तुम उस दिन कहती थीं कि तुम्हारी माता तुमसे कभी-कभी जिक्र किया करती थी कि सरला, तुम्हारे एक भाई है। वह अवश्य एक दिन तुमको मिलेगा। आज तुम्हारी स्वर्गीया माता की भविष्यवाणी पूरी हुई।”

( ७ )

चार मास के बाद डाक्टर राजनाथ ने नीचे लिखा हुआ निमंत्रण-पत्र अपने मित्रों के नाम भेजा-

“प्रिय महोदय,

मेरे भानजे श्रीसतीशचन्द विद्यानिधि, एम० ए० का विवाह जौनपुर के सुप्रसिद्ध रईस स्वर्गीय पण्डित शिवप्रसादजी की कन्या के साथ होना निश्चित हुआ है। आपसे प्रार्थना है कि वसंत पंचमी के दिन शाम को मेरे निवास स्थान पर पधार कर, भोज में सम्मिलित होइए और दूसरे दिन प्रातःकाल ९ बजे की ट्रेन से बारात में सम्मिलित होकर मेरी मान-वृद्धि कीजिए।

निवेदक—

राजनाथ ।”

कहने की ज़रूरत नहीं कि सरला का विवाह सतीश के साथ बड़ी धूम-धाम से हो गया। राम सुंदर ने उसकी कुल संपत्ति दहेज में सरला के अर्पण कर दी। आज तक राम सुंदर और सतीश मित्रता के ही जबरदस्त पाश में बद्ध थे। अब वे मित्रता और आत्मीयता के डबल पाश में बेतरह जकड़ गये!

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