अभाव आचार्य चतुरसेन शास्त्री की कहानी | Abhaav Acharya Chatursen Shastri Ki Kahani

अभाव आचार्य चतुरसेन शास्त्री की कहानी (Abhaav Acharya Chatursen Shastri Ki Kahani Hindi Short Story)

Abhaav Acharya Chatursen Shastri Ki Kahani

Abhaav Acharya Chatursen Shastri Ki Kahani

(यह कहानी सन् १९२८ में लिखी गई थी जबकि लाला लाजपत राय का बलिदान हुआ था। कहानी में एक ओर देश की तात्कालिक अवस्था की झलक मिलती है, दूसरी ओर पंजाबकेसरी के उज्ज्वल चरित्र की झांकी।)

प्रशान्त तारकहीन रात्रि का गहरा अंधकार पृथ्वी पर छा रहा था। अमृतसर की प्रशस्त सड़कों पर मनुष्य का नाम न था। उसके दोनों पाश्वों पर जलती हुई लालटेनों के खम्भे निस्तब्ध खड़े बहुत अशुभ मालूम हो रहे थे। जिन मकानों की खिड़कियों में नित्य दीपमालिका जगमगाती थी, उनमें भी गहरा अन्धकार छा रहा था। एक विशाल अट्टालिका में एक युवक बैठे अन्धकार में दूर तक आकाश की ओर देख रहे थे। वे उस अभेद्य अन्धकार में मानो कुछ देख रहे थे। उनका मन उन्हें सुदूर फ्रांस के युद्धक्षेत्र में ले उड़ा था-चारों तरफ प्रचंड युद्ध की ज्वाला, तोपों का गर्जन, जहरीली गैसों की सरसराहट, पाहतों की चीत्कार, बम-प्रपात का हाहाकार! मानो वे उस शून्य आकाश में जागरित-से देख रहे थे। उन्हें सहस्रों मरणोन्मुख व्यक्तियों में से सहसा एक अद्भत मुख की आलोकित आभा दीख पड़ी, जो लाशों के ढेर में से सहायता के लिए संकेत कर रहा था। किस प्रकार प्राणों पर खेलकर वे उसकी सहायता को अग्रसर हुए थे, और किस प्रकार उस मुख के वीर स्वामी को उत्कृष्ट वीरता के उपलक्ष्य में विक्टोरिया क्रॉस मिला था-डेढ़ वर्ष पूर्व का वह चित्र उनकी आंखों में घूम गया। वे एक हाय कर उठे, हाय! वही वीर पुरुष, वही सिंह-नर, वही युवा, सुन्दर युवा, जो कल मेरे साथ भोजन कर गए थे, अभी-अभी कुछ घंटे प्रथम हंस रहे थे, जलियानवाला बाग में मुर्दा पड़े हैं! वह उनका एकमात्र ढाई वर्ष का शिशु भी वहीं लहू-लुहान पड़ा है। उनकी लाश उठाने का इस समय कोई प्रबन्ध नहीं। प्रोफ! हत्यारे डायर! युवक सिसकियां लेकर रोने लगे-रोते-रोते ही धरती पर लोट गए।

टनन्-टनन्! टेलीफोन चिल्ला उठा। युवक ने चौंककर देखा। उठकर कहा-हलो, आपका नाम?

‘क्या आप डाक्टर साहब हैं? मैं धनपत राय हूं।’

‘जी हां, कहिए।’

‘योह, मेरी स्त्री के मरा बच्चा हुआ है, वह बेहोश है। कृपा कर अभी आइए, वरना उसके प्राण बचना कठिन है।’

‘परन्तु यह तो बड़ा कठिन है, शहर में तो मार्शल लॉ हो रहा है, कौन इस समय घर से बाहर निकलेगा? जान किसे भारी है। यह डायर की अमलदारी हैं।’

‘परन्तु डाक्टर साहब! वह मर रही है, क्या आप भी मेरा साथ न देंगे? मैं आपका बीस वर्ष का पुराना मित्र, सहपाठी और भाई हूं।’

युवक का माथा सिकुड़ गया। उसके होंठ कांपने लगे।

‘हलो’

‘जी हां।’

‘वह ठंडी हो रही है, घर की स्त्रियों का रोना बंद करना मुझे कठिन हो रहा है।

‘मैं आ रहा हूं।’

डाक्टर ने जल्दी से वस्त्र पहने और वे उस शून्य राजमार्ग में अपनी ही पद ध्वनि से स्वयं चौकन्ने होते हुए चले। नाके पर पहुंचकर गोरे सार्जन्ट ने बंदूक का कुन्दा उनकी ओर घुमाकर कहा-कौन!

उन्होंने निकट जाकर कहा-मैं हूं डॉ० मेजर आर० एल० कपूर, एम० डी० ।

‘मगर आप जा नहीं सकते, आप पास दिखाइए।’

‘पास मेरे पास नहीं है। एक रोगिणी मर रही है, मेरा कर्तव्य है कि मैं जाऊं।’

‘वैल, तुम कीड़े के माफक रेंगकर जा सकता है।’

‘क्या कहा, कीड़े के माफक?’

‘यस, इस गली में इसी तरह जाना होगा। नीचे झुको।’

‘कदापि नहीं। मैं भी अफसर हूं-और ३५ नं ० रेजीमेंट का कर्नल मेजर हूं।’

‘मगर काला आदमी हो।’

‘इससे क्या?’

‘कीड़े के माफक रेंगकर जामो-तुम हिन्दुस्तानी!’ यह कहकर गोरा यमवज्र की तरह तनकर सम्मुख खड़ा हो गया। डाक्टर ने क्रोध और वेदना से तड़पकर एक बार होंठ चवा डाला और फिर वह धैर्य धारण कर धरती पर लेट गए। उनके वस्त्र और शरीर गलीज़ कीचड़ में लतपत हो गए। उन्होंने पड़े ही पड़े पुकारा:

‘लाला धनपतराय!’

धनपतराय ने द्वार खोलकर रोते-रोते कहा-ओफ! अब भी शायद बच जाए-पर क्या आपको भी उन ज़ालिमों ने कीड़े की तरह (धनपतराय डाक्टर के पैरों के पास गिरकर रोने लगे)।

डाक्टर ने कहा-धीरज! लाला धनपतराय-रोगी कहां है?-रोगी बेहोश अवस्था में था। आवश्यक उपचार करने के बाद डाक्टर ने कहा-क्या थोड़ा गर्म पानी मिल सकेगा?

‘पानी, नहीं, घर में सुबह से एक बूंद भी पानी नहीं है। कुएं पर निर्लज्ज गोरों का पहरा है, वे पानी नहीं भरने देते। दो बार मैं गया पर पीटकर भगा दिया गया।’

डाक्टर ने बाल्टी हाथ में लेकर कहा-किधर है कुआं?

‘आप क्या इस अपमान को सहन करेंगे?’

डाक्टर चुपचाप चल दिए।

कुएं पर पहुंचने पर ज्यों ही उन्होंने कुएं में बाल्टी छोड़ी त्यों ही एक गोरे ने लात मारकर कहा-साला भाग जाओ!

डाक्टर साहब ने तान के एक चूंसा उसके मुंह पर दे मारा। क्षण-भर में चारपांच पिशाचों ने बंदूक के कुन्दों से अकेले डाक्टर को कुचलकर धरती पर डाल दिया।

साहस करके डाक्टर उठे और कीड़े की तरह रेंगते हुए गली के पार को चले। और किसी तरह अपने घर के द्वार पर आकर वे फर्श पर पड़ गए।

प्रभात हुआ। उनकी पत्नी ने आकर देखा, वे औंधे मुंह ज़मीन पर पड़े हैं। उसने उन्हें जगाया और उनकी इस दुरवस्था पर आश्चर्य प्रकट करते हुए संकेत से पूछा–माजरा क्या है? क्षण-भर में घर-भर वहीं मौजूद था। सैकड़ों प्रश्न उठ रहे थे, परन्तु डाक्टर साहब विमूढ़-से बैठे चुपचाप आकाश को देख रहे थे। मानो एकाएक चौंककर वे उठे। उन्होंने मुट्ठी भींचकर कहा-ओह, कहां है वह पंजाबकेसरी! आज पंजाब के शेर उसके बिना यों कुचले जा रहे हैं। आज यदि वह होता!!

डाक्टर साहब उन्मत्त होकर उठ बैठे और उन्होंने अपने उन घृणित साहबी ठाट के वस्त्रों को उतारकर फेंक दिया, फिर जेब से दियासलाई निकालकर उनमें आग लगा दी, धीरे-धीरे वह घर की सभी वस्तुओं को ला-लाकर आग में डालने लगे। लोग अवाक् होकर चुपचाप यह होली-कांड देख रहे थे। अन्त में धीर गम्भीर स्वर में उन्होंने कहा:

देश के पुरुषों का सम्मान संगठन, देशभक्ति और स्वात्माभिमान की कल्पना से होगा। यह बढ़िया विदेशी ठाट और काट के वस्त्र पहनना और मोर के पर खोंसकर कौए की तरह हास्यास्पद बनना अत्यन्त पाप-कर्म है। मैं आज से यह सब त्यागता हूं।

बम्बई में हलचल मच गई। पंजाब का शेर महायुद्ध के बाद सात वर्ष में फिर अपने देश में पा रहा है। आज फिर देश उसकी दहाड़ से गूंजेगा। आज पंजाब के आंसू पूछेंगे। आज न जाने क्या होगा। देश-भर में धम मच गई थी। देश-भर के महान पुरुष उस सिंह-नर को देखने को दौड़ रहे थे। बाजारों में जयजयकार के शब्द बोले जा रहे थे। सभा-स्थान में तिल धरने को जगह न थी। महामना तिलक व्यासपीठ पर विराजमान थे। पंजाब केसरी ने उठकर गर्जना शुरू की। जनसमूह हिलोरें मारने लगा।

‘मेरे देश की बहनो और भाइयो! मैंने विदेश में सुना है कि पंजाब ने जलियानवाले बाग में मार खाई है। और वे पंजाबी शेर जिन्होंने फ्रांस के मैदान में अपनी संगीनों की नोक पर इंग्लैंड की नाक बचाई थी, अपने ही घर के द्वार पर कुत्ते की तरह शिकार किए गए हैं। मैंने यह भी सुना है कि वह हत्यारा डायर अभी तक अपने स्थान पर आनन्द उठा रहा है। यदि कोई पंजाबी बच्चा यहां है तो वह मुझे बताए कि उसके लिए उसने क्या किया है?’

सभा में सन्नाटा था। सूई गिरने का शब्द भी होता। उन्होंने आवाज़ ऊंची करके कहा:

‘पंजाबी नहीं, भारत का कोई भी सच्चा सपूत बताए कि उसने इस अपमान का कोई बदला लिया है? मैंने सुना है, वहां मर्दो को कीड़े की तरह रेंगकर चलाया गया था, और स्त्रियों की गुप्तेन्द्रियों में लकड़ियां डालकर उन्हें कुत्ती, मक्खी और गधी कहा गया था। अरे देश के नौजवानो! मैं पूछता हूं वे किसकी मां-बहिनें और बेटियां थीं! उन पिताओं, भाइयों और पतियों ने क्या किया है?’

भीड़ में लोग रो रहे थे। एक सिसकारी पा रही थी। शेर ने ललकारकर कहा:

‘हाय! मुझे उस दिन उस स्थान पर मौत नहीं नसीब हुई? अगर मैं जानता कि पंजाब के शेर-बच्चे भी अब ऐसे बेशर्म हो गए हैं तो मैं वहीं जहर खा लेता और यहां अपना मुंह न दिखाता।’

जनता बरसाती समुद्र की तरह उथल-पुथल हो चली। बहिन-बेटियां सिसकसिसककर रो पड़ीं, और वृद्ध नररत्न तिलक की अश्रुधारा बह चली।

पंजाब केसरी का कण्ठ-स्वर कांपा। वह अब वोलने में असमर्थ होकर नीची गर्दन किए बैठ गए।

सहस्रों कंठों से ध्वनि निकली-पंजाब-केसरी की जय! हम पंजाब केसरी की आज्ञा से प्राण देने को तैयार हैं!

‘स्वामी श्रद्धानन्द मारे गए।’

‘क्या कहते हो?’

‘अभी फोन आया है, एक मुसलमान ने उन्हें गोली से मार डाला।’

‘वह पकड़ा गया है?’

‘पकड़ा गया है?’

यह कहते-कहते लाला लाजपतराय उठ खड़े हुए।

इसी समय तीन-चार भद्र पुरुषों ने प्रवेश करके समाचार की सत्यता बयान करके कहा-वहां जाने की चेष्टा न करें। मार्ग अशान्त है, नगर में उपद्रव होने की आशंका है।

लालाजी धीरे-धीरे बैठ गए। विषाद के स्थान पर उनके मुख पर एक हास्यरेखा और नेत्रों में एक नई ज्योति का उदय हुआ। उन्होंने कहा:

‘यह सम्भव ही नहीं कि मुझे यह मौत नसीब हो! मैं तो अब इतना बूढ़ा हो गया हूं कि चाहे जब चुपचाप मौत धोखा दे जाए। कुछ उम्र से, कुछ रोग और कष्ट से।’

परन्तु एक भद्र पुरुष ने कहा–लालाजी, आप तो अब उतने कष्ट में नहीं हैं। एसेम्बली में तो कुर्सियां गद्देदार हैं और उनमें बिजली के हीटर लगे होते हैं।

लालाजी व्यंग्य को पीकर बोले–यह सब कुछ होने पर भी वैसा कुछ सुख नहीं है।

‘यदि ऐसा न होता तो आपसे उधर जाने की आशा न थी। वह आपको शोभा देने योग्य स्थान भी तो नहीं। आप वे पुरुष हैं, जिनके नाम से गवर्नमेंट कांपती रहती थी। आप अब जब उस गोल पिंजरे में बैठकर बोलते हैं तो ऐसा ज्ञात होता है कि कोई कुशल अभिनेता अभिनय कर रहा हो।’

लालाजी ने विषादपूर्ण दृष्टि से कहा:

‘क्या सचमुच?’

भद्र पुरुष कुछ लज्जित हुए। परन्तु लालाजी ने एक बार आकाश को ताकी हुए कहा:

‘हाय! श्रद्धानंद! आज तुमने मुझे जीत लिया।’

‘क्या आपने सुना?’

‘रोज़ सुनता हूं।’

‘आप क्या इनका मुंहतोड़ उत्तर नहीं देंगे?’

‘नहीं।’

‘आप चुपचाप सब सुन लेंगे?’

‘हां।’

‘पर लोग मर्यादा से बाहर हो रहे हैं।’

‘क्या कहते हैं?’

‘कहते हैं आप वतनफरोश हैं।’

‘और?’

‘आप देश-घातक हैं।’

‘और?’

‘आप कायर हैं, आरामतलब हैं, कष्ट नहीं सह सकते।’

‘और?’

‘आप देश और देश के बदनसीबों से रुपया ऐंठते हैं।’

‘आह! यहां तक, और?’

‘आपके कारण पंजाब लज्जित है।’

‘केवल पंजाब ही न? शुक्र है!’

‘आर्यसमाज आपको अपना सदस्य नहीं मानता।’

‘अच्छा, मैं कल त्याग-पत्र भेज दूंगा।’

‘मद्रास अछूतोद्धार के फण्ड में अब एक रुपया भी नहीं है।’

‘यह लो चैकबुक, जो बैंक में है, सभी भेज दो।’

‘सभी?’

‘है ही कितना, पचास-साठ हजार होगा।’

‘पाप खाएंगे क्या?’

‘तब क्या पंजाब के घरों से मुझे रोटियां भी न मिलेंगी?’

लालाजी ने एक हास्य बखेरा और एक मोती टप से गिराया।

‘अभी उस दिन तो आप एक लाख रुपये अनाथों के लिए और गढ़वाल के लिए दे चुके हैं।’

‘यह उस रकम से बचा हुआ माल है।’

‘आगे कैसे काम चलेगा?’

‘आगे देखा जाएगा।’

‘वह डेढ़ लाख अस्पताल को भी आप दे चुके हैं।’

‘वह तो सब जायदाद के बेचने से हो ही जाएगा।’

‘लालाजी! आपके बाल-बच्चे भी तो हैं!’

लालाजी ने कठिनता से आंसू रोककर कहा-मेरे बच्चों के ही लिए तो यह सब कुछ है।

‘ओह! लालाजी, आपको वे स्वार्थी बताते हैं।’

‘ठीक ही है।’

‘आप देवता हैं।’

‘जी चाहे जो समझ लो, परन्तु यह रुपया कल ही भिजवा देना। अब शरीर थक गया है, अपना-अपना काम संभाल लेना और युवकों का आगे बढ़ना उपयुक्त है। वे सच कहते हैं कि अब मैं पारामतलब हो गया हूं।’

सन्नाटा-सा फैल गया है। पंजाब की जान-सी निकल गई है। इस शरीर में कहां वह चैतन्यता थी आज, उसके नष्ट होने पर शरीर निर्जीव पड़ा रह गया। आज पंजाब का बच्चा-बच्चा जानता है कि उस सिंह-पुरुष का अभाव पूर्ण होना शक्य नहीं। पंजाब के लाखों युवक मानो अनाथ हो गए। पंजाब की शोभा मारी गई! पंजाब का मानो सिर कट गया! पंजाब खो गया! अब पंजाब का धुरी कौन होगा? कौन पंजाब के सिर पर हाथ धरेगा? कौन पंजाब के अस्तित्व को कायम रखेगा? कौन पंजाब के बढ़ते हुए तूफान को शमन करेगा? आज पंजाब की आत्मा का अभाव है। आज पंजाब की लाश पड़ी हुई है। ओह, अब पंजाब का क्या होगा?

**समाप्त**

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