आंके बांके राजपूत आचार्य चतुरसेन शास्त्री की कहानी | Aanke Baanke Rajput Acharya Chatursen Shastri Ki Kahani 

आंके बांके राजपूत आचार्य चतुरसेन शास्त्री की कहानी (Aanke Baanke Rajput Acharya Chatursen Shastri Ki Kahani) दोस्ती, दुश्मनी और बांकपन की अमर कहानी।

Aanke Baanke Rajput Acharya Chatursen Shastri Ki Kahani 

भारतीय इतिहास के राजपूत वीरों के बीते हुए आंके-बांके जीवन कुछ ऐसे अटपटे हैं कि आज की सभ्य समझ में नहीं आ सकते। उनके जीवन का दर्शन ही दूसरा था, उनके आदर्श ही दूसरे होते थे। मरने-जीने के भय-निर्भयता के नमूने आज भी सामने आते हैं, पर, आदर्शों और भावनाओं में बहुत अन्तर है। प्राचीन राजपूती जीवन में एक शौर्यपूर्ण शालीनता, एक दबंग शिष्टाचार और एक प्राणवान आदर्श था। तत्कालीन मुंगल शासकों ने अपने शासन-काल में राजपूती जीवन को हत-ओज कर दिया था, अंग्रेजों ने उसे नपुंसक किया और अब वर्तमान युगपरिवर्तन ने तो उसकी अंत्येष्टि ही कर डाली। अब तो रह गई उनकी वे उन दिनों की अलवेली कहानियां, जिन्हें भाट-चारण गांव-गांव और घर-घर जाकर सुनाया करते थे। गांव के बड़े-बूढ़े सदियों की रात में अलाव सुलगाकर गांव के सब तरुणों को आग के आसपास बैठाकर पकते हुए गुड़ की सोंधी सुगन्ध से भरे हुए वातावरण में भीगती रातों में वे कहानियां सुनाते थे, जिनसे पुराने राजपूती जीवन के किसी पहलू का परदा उठकर राजपूती चरित्र के दर्शन हो जाते थे।

सदियों की भीगती रात, पकते हुए गुड़ की सोंधी सुगन्ध से भरा वातावरण, गांव का किनारा, अलाव के चारों ओर बैठे तरुण ताप रहे थे। निश्चिन्त होकर बाजरे की रोटियां भर-पेट खाकर आकाश के टिमटिमाते तारे वे देख रहे थे। बूढ़े चारण का आज उनके गांव में आगमन हा था। आज उनकी खाट भी इसी अलाव के पास बिछी थी। अलाव से उठती हुई लाल-पीली आग की लपटों से वृद्ध चारण की लम्बी सफेद डाढ़ी कुछ अद्भुत-सी चमक रही थी। तरुणों का आग्रह थाबाबाजी, कोई कहानी सुनाइए। और चारण प्रसन्नमन यों कहानी सुनाने लगे:

जैसलमेर के सीढ़ों में कोटेचे राजपूतों का घर बहुत प्रसिद्ध था। उसकी बड़ी बेटी को ब्याहने मोहिल पड़िहार आए थे। ब्याह राजी-खुशी, धूम-धाम से हो गया। बारात ब्याह करके लौटी। राह में पड़ाव पड़ा। गोठ हुई। गोठ में सोलह बकरे काटे गए। उनकी मंडियां चरवे में भरकर इस अभिप्राय से रख दी गईं कि दूसरे दिन नाश्ते के काम आएंगी।

वहां से कूच हुआ। रातोंरात बारात चली। भोर होते ही एक तालाव पर मुकाम हुआ। साथ के बाराती राजपूत नित्य-कर्म, स्नान-सेवा में लगे। दुलहिन का सुखपाल भी एक वृक्ष की छांह में उतारा गया। दासी भारी भर लाई। दुलहिन ने दातन किया, मुखमार्जन किया, स्नान किया और सिरावण (नाश्ता) मांगा।

दासी ने कहा-बाईजी, यहां और तो कुछ नहीं है, चरवे में बकरों की मूड़ियां

‘वही ले आ!’

दासी चरवा उठा लाई। दासी परोसती गई और स्वस्थ दुलहिन मूड़ियां चट करती गई।

जब साथ के ठाकुरों ने जलपान की तैयारी की और नाश्ता मांगा, तब दासी से कहा गया-वह चरू उठा ला।

दासी ने हाथ बांधकर कहा-चरू क्या करोगे अन्नदाता, उसमें की चीज़ तो सब चट हो चुकी।

ठाकुरों ने सुना, तो सन्नाटे में आ गए। सब एक-दूसरे की ओर देखने लगे। पर, सबने चुप साध ली और वहां से डेरा उठाकर आगे चले। पड़िहार आए।”

इतनी कहानी सुनकर एक-दो तरुण हंसने लगे। किसीने कहा-बाबाजी, बहू का मुंह कितना बड़ा था?

चारण ने कहा-जब तुम्हारी बहू आए, तब उसका मुंह देख लेना कितना बड़ा है। अभी कहानी सुनो।-बाबाजी ने फिर कहानी आगे बढ़ाई:

घर आकर ठाकुरों की पंचायत जुड़ी। बहुत बहस-हुज्जत के बाद यह बात करार पाई कि इस बहू का भार हमसे न सहा जाएगा। बस, दुलहिन के पिता को पत्र लिख दिया गया कि तुम्हारी बेटी का निभाव हमारे यहां मुश्किल है, अपनी बेटी को ले जाओ। ठाकुर की बेटी ने भी बाप को सब हकीकत लिख दी। तब कोटेचे ठाकुर ने अपनी बेटी वापस बुला ली।

इसपर एक तरुण ने कहा-बाबाजी, क्या पड़िहारों के यहां बकरों की बहुत कमी थी? पर, चारण ने डाढ़ी पर हाथ फेरकर कहा-कहानी सुनो! यह बात महोबे के राठौर राव मालाजी ने सुनी, तो उन्होंने कहा-उस राजपूत ने खाने के बदले बहू त्याग दी, बड़ा खराब काम किया। ऐसी राजपूतानी के बच्चे तो बड़े वीर, बवंडर योद्धा हो सकते हैं। शेरों के भी कत्ले चीर डालेंगे। रावल मालाजी के यहां उस समय बहेलवे का राणा ईंदा उगमसी चाकरी करता था। उसने रावल के मंह से यह बात सुनकर आदमी भेजकर कोटेचे को कहला भेजा कि तुम अपनी बेटी मुझे दे दो। कोटेच ने स्वीकार किया। उसने ईंदा उगमसी को बेटी दे दी। नई रानी के साथ ईदा मज़े में रहने लगा। उससे कोटेचे रानी के सात बेटे हुए।

एक तरुण ने फिर हंसकर कहा-बापजी, उन सातों बेटों के नाम क्या थे?

‘अरे बेटों के बाप, कहानी सुन! जिनकी बात आगे आएगी, उनका नाम भी सुन लेना।’ उन्होंने कहानी आगे बढ़ाई:

उन सात बेटों में एक था ऊदा। जब वह सयाना हुआ तब रावल मालाजी की चाकरी में महोबे में रहने लगा। उन दिनों एक बाघ गोपाल की पहाड़ी पर बड़ा उत्पात मचाता था। राजपूत बारी-बारी से उस पहाड़ी की चौकी पर भेजे जाते थे। एक दिन ऊदा की भी बारी आई। उसने जाकर पहाड़ी को घेरकर बाघ को पकड़ लिया और बांधकर ले आया तथा रावलजी को भेंट कर दिया। रावलजीने प्रसन्न होकर बाघ उसे ही दे दिया। उसने बाघ के गले में एक घंटी बांधकर छोड़ दिया और ऊदा ने सबसे कह दिया कि उसे कोई न मारे। जो कोई मारेगा, उससे मेरी शत्रुता होगी। बाघ स्वतंत्रता से फिरने और नुकसान करने लगा। एक बार घूमता-घूमता वह भादराजण जा निकला। वहा सिंहल राजपूतों ने उसे मार डाला। इससे ईंदों और सिघलों में बैर बंध गया। दोनों परिवारों में युद्ध हुआ। पचीस सिंघल मारे गए। भादराजण और चौरासी का मार्ग चलना बंद हो गया। ऊदा का विवाह ईहड़ सोलंकी की बेटी से हुआ था। वह सिंघलों की चाकरी करता था। ऊदा की पत्नी भी ब्याह के बाद सात बरस तक पति के घर न आई, क्योंकि, मार्ग बन्द था। यदि किसी पक्ष का कोई व्यक्ति उस मार्ग पर चलता पाया जाता, तो दूसरे पक्षवाले उसे मार डालते।

एक दिन सिखरा के बालसीसर पर गोठ हुई। सब इंदे वहां जमा हुए, बकरे काटे गए, खूब नाशा-पत्ता जमा। वहां किसीने हंसी में पूछा-ऊदाजी, कभी भादराजण भी जानोगे?

ऊदा बोला–आज ही रात को जाऊंगा।

घर आकर उसने अपनी काठण घोड़ी को उड़दाना (गुड़-पाटा मिलाकर) दिया। तब उसके भाई सिखरा ने पूछा-आज घोड़ी को उड़दाना क्यों देता है?

उसने कहा-भादराजण जाऊंगा।

सिखरा उसका बड़ा भाई था। उसने कहा-जहां ऐसा वैर है कि पग-पग पर आदमी मारे जाते हैं, तू वहां क्यों जाता है ?-ऊदा ने उसे कसम खिलाकर कहा कि मुझे मत रोके।

सांझ होते ही ऊदा चल खड़ा हुआ और आधी रात को ससुराल जा पहुंचा। सुसराल का द्वार खुलवाकर भीतर गया। सरगरे (डोम) ने जाकर ईदणदे (ऊदा की स्त्री) को जगाया। ढोलिया बिछा दिया। ऊदा थका था, उसे नींद आ गई। वह अपनी घोड़ी का कायजा खोलकर उसे बांधना भूल गया था। वह कसी-कसाई बाहर खड़ी थी। इतने में ऊदा का साला जग गया। उसने घोड़ी देखी। वह पहचान गया-ऊदा की है। वह उसे लेकर पायगाह में बांधने चला।

इसी समय ऊदा की आंख खुली। उसने समझा कोई चोर घोड़ी को लिए जा रहा है। भादराजण में चोर बहुत रहते थे। यह समझकर वह लपका और ननवार का एक हाथ खींचकर मारा। साले के दो टुकड़े हो गए। आहट पाकर ऊदा की स्त्री भी आ गई। उसने देखा-भाई मारा गया। उसने कहा- यह तुमने क्या किया?

इसी समय ऊदा की सास भी आ गई। उसने सारी हकीकत सुनकर कहाजो होना था, वह हुआ। अब यह दूसरा बैर बढ़ा। अच्छा यही है कि अब तुम चुपचाप यहां से चले जायो। ऊदा ने सब बातों पर विचार किया, सास को प्रणाम किया। एक नज़र पत्नी पर डाली और घोड़ी पर सवार हो गया। अंधेरे में गायत्र हो गया।

इस बार सब श्रोतागण सन्नाटे में बैठे रहे। सबके चेहरे पर चिता और उन कता व्याप्त हो गई। एक ने सहमते-सहमते कहा-उन्होंने उसका पीछा किया? उसे मार डाला?

परन्तु चारण भाव-धारा में डूबे हुए थे। उन्होंने प्रश्नकर्ता की बात सुनी ही नहीं। उन्होंने कहानी आगे बढ़ाई:

भादराजण के पास ही एक गांव में मेला-सेपटा राजपूत रहता था। वह नामी-गिरामी चोर और डाकू था। उसकी सेवा में एक कुटनी नाइन रहती थी। वह भले घर की बहू-बेटियों के भेद उसे देती, उन्हें बहकाती और पथभ्रष्ट करती थी। एक दिन वह नाइन ईहड़ सोलंकी के घर आई। उसने बहुत प्रेम और अधीनता प्रकट की तथा उबटना लगाकर ऊदा की स्त्री को आग्रहपूर्वक नहलाया। पीछे मेला से जाकर उसने कहा-ईहड़ की बेटी पद्मिनी है। आपके योग्य है। उसे काब में करो।

मेला ने जाकर सोलंकियों से कहा कि यदि तुम अपनी बहिन मुझे दे दो, तो मैं ऊदा से तुम्हारा बैर लूं।’

ऊदा के साले अपने भाई की मृत्यु का बैर लेना चाह ही रहे थे। वे राजी हो गए। पर जब ऊदा की स्त्री ने यह बात सुनी, तब उसने मेला को कहला भेजा मेरा पति और जेठ ऐसे नहीं हैं, जिनकी स्त्रियों पर तू नज़र जमाए। यदि कुछ पराक्रम तुझ में हो, तभी इधर पांव रखना। इसके बाद एक ब्राह्मण के हाथों अपने जेठ के पास भी सब हकीकत भेज दी। यह भी कहला दिया-मेला उधर आएगा-उसकी अच्छी खातिर करना।

‘तो क्या मेला वहां गया?’ एक साथ दो-तीन तरुणों ने पूछा। चारण ने कहा:

मेला अपने कच्छी घोड़े पर सवार होकर चला और बालसीसर तालाब पर जा उतरा। वहां बकरियों के चरानेवाले गड़रिए अपनी छागलें (छोटी मशकें) छोड़कर तीर-कमान पृथ्वी पर रखे गप्पें लड़ा रहे थे। मेला ने उनसे पूछा:

‘रेबड़ (बकरियों का झंड) कहां का है?’

‘ये बकरे उगमसी ठाकुर के हैं।’

‘क्या इनमें से बकरे बिकते हैं?’

‘नहीं, कोई पाहुना आए, तो उसके लिए मारे जाते हैं। बिकते नहीं हैं।’

‘तो एक बकरा मुझे दे दो।

‘तुम मेहमान हो तो ले लो।’

‘पर, मैं बिना मोल नहीं लूंगा।’

इतना कहकर उसने ईकदिरा (दुअन्नियां) निकालकर उन्हें दे दिए। एक बड़ा बकरा छांटकर लिया। उसके काट-कूटकर उसने टुकड़े किए और मांस में बाजरा मिलाकर बजरिया बनाया। उसने सुना था-सिखरा के यहां दो ज़बर्दस्त कुत्ते हैं। कुछ मांस स्वयं खाया, कुछ गड़रियों को भी दिया। फिर उसने गड़रियों से कहा-मैं बीकमपुर जाता हूं।

रात को वह सिखरा के गांव पहुंचा। कुत्ते दौड़कर पीछे पड़े, तो बकरे की हड्डियां जो वह बांध लाया था, उनके आगे फेंक दीं। कुत्ते उन्हें चबाने लगे। और वह घर में घुसकर जहां ऊदा सोता था, वहां जा पहुंचा। उसने शस्त्रों की वादियां उसके बिछौने के नीचे काटकर रख दी, और सिखरा की स्त्री की चोटी काटकर वापस लौट गया।

‘जब स्त्री जगी, तो उसने देखा-सिर पर चोटी ही गायब! उसने शोर मचाया कि मेला आया और मेरी चोटी काटकर ले गया। सिखरा हड़बड़ाकर उठा, पर, उसने सब शस्त्रों के बन्धन. भी कटे पाए। वह बी हाथ में लेकर अक्लख घोड़े पर सवार होकर दौड़ा।

लौटते हुए मेला ने कुत्तों को काट डाला था। इस भागादौड़ी में उसका अमल का पोता (अफीम की थैली) भी वहीं गिर गया था। सिखरा ने उसे उठा लिया।

ऊदा की घोड़ी की बछेड़ी भी सिखरा के साथ लग ली थी। मेला रात ही रात में चलकर प्रभात होते-होते कोढणों के तालाब पर पहुंचा। अमल-पानी का समय था। पोता संभाला तो नहीं पाया। तब घोड़े से उतरकर घासिया डालकर सो रहा। सिखरा भी आ पहुंचा। उसने घोड़े पर निगाह पड़ते ही पहचान लिया कि सिखरा है। पर, यहां निश्चित सोता क्यों है? पास जाकर कपड़ा खींचकर जगाया-क्या नाम है? कौन हो?

‘मेरा नाम मेला-सपेटा है।’

‘तो मेलाजी, चौरासी को छेड़ा है। जगह-जगह टोलियां खड़ी हैं। ऊदा जैसे राजपूत को खिझाकर निश्शंक कैसे सोते हो?’

‘आपका नाम क्या है?’

‘मेरा नाम सिखरा है।’

मेला उठकर बैठ गया। उसने कहा-इस समय मेरा तो अमल उतर रहा है।

‘तो उठो अमल लो।’

‘मेरा तो अमल का पोता कहीं रास्ते में गिर गया। मैं अपने ही पोते की अमल खाता हूं।’

सिखरा ने वह पोता निकालकर मेला के हाथ में दे दिया। छागुल में जल भर लाया। अमल-पानी कराया और फिर कहा-मेलाजी, अब थोड़ा आराम कर लो। मैं तुम्हारे पांव दबा दूंगा।

मेला सो गया। सिखरा पांव दबाता रहा। थोड़ी देर में मेला जागा। आंखों पर पानी के छींटे दिए। शस्त्र बांधे।

सिखरा ने पूछा—युद्ध किस तरह करोगे?

‘सवार होकर।’

वह अपने घोड़े पर सवार हुआ। चाबुक फटकारा, तो घोड़ा हवा हो गया। सिखरा देखता ही रह गया।

उसने घोड़ा साध दिया। पर मेले को न पहुंच सका। सिखरे के घोड़े के साथ जो बछेरी आई थी वह भागती-भागती मेला के घोड़े से सौ कदम आगे जाकर पीछे फिरी। तब सिखरा बछेरी को पकड़कर उसपर चढ़ बैठा और मेला को जा लिया।

सामने आकर मेला को ललकारा और बर्छा फेंका। बर्खा उसकी छाती के पार हो गया। मेला वहीं ढेर हो गया।

चारण यह कहकर अपनी दाढ़ी सहलाने लगे। सुननेवाले सांस रोककर सुन रहे थे। चारण ने एक बार आकाश की ओर दृष्टि की। तरुणों ने कहा—फिर, फिर?

इतने ही में ऊदा भी वहां आ पहुंचा। मेला को मरा पड़ा देखकर उसने भाई से कहा—भाई, इसका अग्निसंस्कार करना चाहिए। दोनों भाइयों ने दाह किया। दाहकर्म से निवृत्त होकर ऊदा ने भाई को तो घर वापस भेजा और स्वयं मेला की पगड़ी लेकर उसकी कोटड़ी गया और पुकारकर कहा, ठाकरां, मेलोजी काम आए हैं। उनका पाग लो। मेरे बड़े भाई सिखरा ने उन्हें मारा है। दाग दे दिया गया है।

मेला का पुत्र बाहर आया। उसने ऊदा से जुहार किया और कहा—ठाकरां, हमारे-तुम्हारे कोई बैर नहीं है। पिता ने जैसा किया, उसका फल पाया। अब भीतर पधारिए।

ऊदा क्षण-भर घोड़े पर अड़ा खड़ा रहा। फिर उसने कहा—सिखरा की बेटी हमने मेलोजी के बेटे को दी। देव उठने पर ब्राह्मण के हाथ तिलक भेजेंगे। विवाह करने को शीघ्र पधारना।

उसने सब ठाकुरौं को जुहार किया और घोड़े को एड़ लगाई।

यथा समय विवाह हो गया और चिरकाल बाद यह बैर मिटा।

**समाप्त**

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